आरोप है कि मंशा सही होने के बावजूद छत्तीसगढ़ सरकार आदिवासियों के दावों की सुनवाई में जल्दबाजी कर रही है
वन अधिकार कानून को ठीक से पालन कराने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने हाल ही में कानून के तहत अमान्य हुए दावों पर पुनर्विचार का फैसला किया है। सामाजिक कार्यकर्ता पुनर्विचार की प्रक्रिया में प्रशासन पर जल्दबाजी का आरोप लगा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ की नई कांग्रेस सरकार आदिवासियों के हित में संवेदनशील दिखती है लेकिन वन अधिकार कानून के मामले में सरकार की जल्दबाजी इस कानून को कमजोर बना रही है। यह कहना है रायपुर के आलोक शुक्ला का। आलोक समाजसेवा से जुड़े हैं और वनवासियों के अधिकारों के लिए काम करते हैं। आलोक ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में कहा कि वन अधिकार अधिनियम को बनाने के पीछे उस ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करना है, लेकिन इतनी जल्दबाजी में फैसले होने से वनवासियों को अपनी बात रखने का पर्याप्त समय नहीं मिल पा रहा है। वे कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि सरकार इस मामले में संवदनशील नहीं है, पर ब्यूरोक्रेसी में बैठे लोग इस कानून को जल्दबाजी में लागू करवाना चाहते हैं और इस वजह से पूरा सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है।
भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 31 मार्च 2019 तक छत्तीसगढ़ में 8,58,682 लोगों ने वन भूमि पर अपना दावा किया है जिसमें से 4,01,251 आवेदकों के दावे स्वीकृत किए गए। वहीं 31,558 सामुदायिक भूमि के दावे आए जिसमें से 21,967 दावों को स्वीकृति मिली। स्वीकृत हुए दावों का प्रतिशत 47.54 % है। राज्य में 4,57,431 लोगों के दावे निरस्त किए गए। वनवासियों का आरोप है कि उनके दावों को बिना पर्याप्त सुनवाई के अमान्य कर दिया गया और उन्हें कोई मौका भी नहीं दिया है। छत्तीसगढ़ में आई कांग्रेस की नई सरकार ने उन अमान्य दावों पर पुनर्विचार का फैसला किया है।
प्रशासन वन अधिकार कानून की भावना नहीं समझ रहा
छत्तीसगढ़ में इस मुद्दे पर काम कर रहे समाजिक कार्यकर्ता और लेखक विजय भाई का कहना है कि प्रशासन से लेकर वन विभाग के कर्मचारी तक वन अधिकार अधिनियम की भावना नहीं समझना चाह रहे। यहां तक कि बड़े अधिकारियों को भी इसका ठीक से पता नहीं है। इस जल्दबाजी में कानून के पालन में कई गड़बड़ियां आ रही है। अभी बालोदाबाजार में सामुदायिक अधिकार देने के बाद उसे हर साल रिन्यू करने का फैसला किया गया है, जो कि कानून के हिसाब से ठीक नहां है। कई स्थानों पर गैर परंपरागत वनवासी लोगों को भी पट्टा दिए जाने की सूचना आई है। वनवासियों के अधिकारों को लेकर ऐतिहासिक अन्याय हुआ है और उसे दोबारा दिलाने में इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं है। इस कानून का मकसद वनवासियों को अधिकार दिलाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया लागू करना है। विजय भाई कहते हैं कि ग्राम सभा अपने आप में ही एक सक्षम संस्था है और प्रशासन को उसे पूरी तरह से चलने में मदद करनी चाहिए। सामुदायिक अधिकार देने के मामले में भी कई स्थानों पर सरकार के अधिकारी हस्तक्षेप करते हैं। सरकार के आदेश को अधिकारी टार्गेट समझकर जल्दबाजी में लागू करना चाह रहे हैं। इस जल्दबाजी की वजह ग्राम सभा को इसके बारे में ठीक से पता नहीं।
मुख्यमंत्री जल्दबाजी के पक्ष में नहीं
इस कानून पर बोलते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हाल ही में कहा था कि वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी हम सबकी है। हम सबका उद्देश्य एक ही है कि कानून का सही मायने में पालन हो. हजारों सालों से जंगलों में रहते आए उन आदिवासियों को अधिकार मिले, जिन्होंने कभी पटवारी के पास जाकर रिकॉर्ड दुरुस्त नहीं कराया। यह उनका अपराध नहीं है। उन्होंने कहा कि इस कार्यक्रम को अभियान की तरह लेना है लेकिन हड़बड़ी में कोई काम नहीं करना है। जमीन का मामला है। रिकॉर्ड गलत हुआ तो सुधारने में सालो लग जाते हैं। जितना कब्जा है उतने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
मध्यप्रदेश में विधायकों के साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं का संवाद
वन अधिकार कानून को पूरी तरह से समझने के लिए और इसमें आ रही परेशानों को दूर करने के लिए भोपाल में आदिवासी जन प्रतिनिधी जन संवाद कार्यक्रम का आयोजन गुरुवार को किया गया। इस आयोजन में प्रदेश के विधायक, आदिवासियों के लिए काम करने वाले जन प्रतिनिधी मौजदू रहे। मध्यप्रदेश में भी सरकार ने 15 जुलाई से 20 जुलाई तक ग्राम सभाओं का आयोजन कर अमान्य दावों पर पुनर्विचार करने का फैसला लिया है। दावों की सुनवाई के लिए सिर्फ पांच दिन के वक्त को सामाजिक कार्यकर्ता कम बता रहे हैं।
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