जोहड़ों का जादू

राजस्थान के अलवर जिले में जोहड़ों को पुनर्जीवित कर पानी की समस्या से काफी हद तक निजात मिल गई है

On: Monday 15 July 2019
 
अलवर के शुष्क इलाकों में पारंपरिक बांध, जोहड़ों ने पूरी तस्वीर बदल दी है। (गणेश पंगारे / सीएसई)

राजस्थान के अलवर जिले में स्थित गोपालपुरा और गुवारा देवाड़ी जैसे अनेक गांवों में आज काफी हरियाली है, जहां हाल तक सूखे की हालत थी। यह बदलाव लाने का श्रेय जाता है तरुण भारत संघ नामक स्वयंसेवी संस्था को, जिसने यहां की अर्थव्यवस्था और पर्यावरण में नई जान फूंकने के लिए जोहड़ जैसे पारंपरिक जल संचय तकनीक को पुनर्जीवित किया। जोहड़ असल में मॉनसून के पानी को घेरने वाला बांध है। बाद में इसके अंदर आने वाली जमीन पर फसलें उगाई जाती हैं। अलवर जिले में हमेशा पानी की कमी रहती आई है और यह यहां के लिए अनमोल चीज रही है। वैसे तो यहां औसत बारिश 600 मिमी होती है पर यह पानी इतने बेतरतीब और ढंग से गिरता है कि किसी काम का नहीं रहता। सूरतगढ़ प्राथमिक स्कूल के प्रधानाध्यापक और ग्राम सभा के प्रधान सुमेर सिंह गुज्जर कहते हैं, “हफ्तों तक कोई बरसात नहीं होती और फिर दो दिन तक खूब झमाझम पानी गिरेगा। ऐसी बरसात से कोई लाभ नहीं होता।”

मुश्किलों से पार पाने के लिए लोगों ने पास के जंगलों से लकड़ी काटकर बेचना शुरू किया, जिससे अरावली पहाड़ियों की यह श्रृृंखला और नंगी होती गई। हरिपुरा गांव के विकास कार्यकर्ता 51 वर्षीय नानकराम गुज्जर कहते हैं, ”जिसके पास जमीन-जायदाद थी वे उनको बंधक रखकर पंजाब और हरियाणा चले गए।” अलवर जिले की सिर्फ 30 फीसदी जमीन पर ही खेती होती है, बाकी पर जंगल, पहाड़ी और समालतडेह (गोचर) है। खेती वाली जमीन में से भी सिर्फ 9 फीसदी पर ही सिंचाई की व्यवस्था है। मॉनसून भी लोगों की उम्मीद और जरूरतों पर खरा नहीं उतरता। तरुण भारत संघ के सचिव राजेंद्र सिंह बताते हैं, “इस जिले ने 1985 और 1986 में सूखे की मुश्किल मार झेली।

औरतों को पीने का पानी लाने के लिए दो किलोमीटर से ज्यादा दूर जाना पड़ता था और कुओं के पानी पर भी राशनिंग थी। लोग कुपोषण का शिकार बने और बड़ी संख्या में जानवर मरे। पारंपरिक रूप से यहां के लोग सिंचाई का पानी जमा करने के लिए जोहड़ों का निर्माण करते थे। लेकिन आधुनिक और सामुदायिक कामों में भागीदारी कम होने के चलते इस प्रणाली का चलन कम होता गया।” परिणामस्वरूप ग्रामीण अर्थव्यवस्था, जो खेती और पशुपालन पर टिकी है, बुरी तरह प्रभावित हुई।

गुवारा देवाड़ी के 36 वर्षी जगदीश गुज्जर कहते हैं, “हम अपनी खेती के लिए सरकार पर आश्रित न होकर काफी खुश हैं। चार साल पहले हमारे खेतों में जितनी पैदावार होती थी, आज उससे चार गुनी ज्यादा होने लगी है।” यह 60 घरों वाला गांव सरिस्का अभयारण्य की हरित पट्टी में आता है।

इस इलाके में अरावली पहाड़ी की ढलान पर बने पट्टीनुमा खेतों पर ही खेती होती है, पर पानी न होने से यहां अनाज उगा पाना भारी मुश्किल का काम था। लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया है। किसानों ने तरुण भारत संघ की अगुवाई में व्यवस्थित जल प्रबंधन शुरू किया है। नानकराम कहते हैं, “अनेक गांवों ने अपनी खोई समृद्धि हासिल कर ली है।” उन्हें उम्मीद है कि लोगों की ऐसी ही भागीदारी से गांधी के ग्राम स्वराज का सपना साकार हो जाएगा। नानकराम पांचवीं तक पढ़े हैं और साल भर पहले तक गांव के सबसे ज्यादा पढ़े व्यक्ति थे। उन्होंने दहेज लेने का प्रतिरोध करते हुए कुंआरा रहने का फैसला किया है। वैसे 51 सदस्यों वाले उनके कुनबे के पास 60 भैंसें, 44 गाय और 80 बकरियां हैं, पर खुद उनके पास कोई जमीन नहीं है। हाल ही में उन्होंने तरुण भारत संघ की सदस्यता ली है और उनकी योजना समाज और पर्यावरण के भले में ही जीवन लगा देने की है।

ग्राम सभा ही जोहड़ों के लिए उपयुक्त जगह, आगोर क्षेत्र और बजट पर विचार करती है (शैलेन्द्र कुमार / सीएसई)

राजेंद्र सिंह बताते हैं, “यहां की बदहाली का मुख्य कारण पानी की कमी ही थी। लोगों ने हमें बताया कि कई दशक पहले हर गांव में दो जोहड़ हुआ करते थे। लेकिन बाढ़ से ये टूट गए या फिर गाद भरने से कारगर नहीं रहे और किसी ने भी इनको ठीक करना या नया जोहड़ बनाना जरूरी नहीं समझा।”

जब तरुण भारत संघ के लोग गुवारा देवाड़ी गांव के समन्वित विकास की योजना के साथ वहां पहुंचे तो लोगों ने उन्हें शक की नजरों से देखा। कार्यकर्ताओं ने और जोहड़ बनाने की बात की। संघ के कार्यकर्ता लक्ष्मण सिंह बताते हैं, “हमारे सुझाव पर लोगों ने उत्साह नहीं दिखाया। फिर भी कुछ स्थानीय परिवारों की मदद से हमने बिना किसी बाहरी इंजीनियरिंग मदद के मिट्टी के 4.5 मीटर लंबे तीन बांध बनाए।”

जब इन जोहड़ों ने बरसाती पानी का प्रवाह थामा और भूमिगत जल का स्तर बढ़ाकर खेती और कुओं के पानी का स्तर बेहतर बनाया, तब गांववालों को इसका महत्व समझ में आया। नालों को बंद करने से जमीन की ऊपरी उपजाऊ मिटृी का बह जाना रुका।

लेकिन तरुण भारत संध का मुख्य उद्देश्य जल संचय की प्रणालियों को खड़ा करना भर नहीं था। राजेंद्र सिंह कहते हैं, “हमारा उद्देश्य गांवों को आत्मनिर्भर बनाना है और इसके लिए लोगों को संगठित करना ही एकमात्र तरीका है। जोहड़ का निर्माण और रखरखाव सिर्फ यह प्रदर्शित करने के लिए थी कि सामुदायिक एकता समृद्धि के लिए क्या कर सकती है।”

1986 के सूखे के समय गोपालपुर गांव के पेयजल और सिंचाई के सारे साधन सूख गए थे और फसलें नहीं उगी थीं। परिणामस्वरूप लोग दिल्ली और अहमदाबाद भाग जाने के लिए विवश हुए थे। फिर तरुण भारत संघ ने 10,000 श्रम दिवस लगाकर गांव में जोहड़ों का निर्माण कराया। मजदूरी के रूप में 1,50,000 रुपए मूल्य का गेहूं दिया गया। जुलाई 1987 में 48 घंटों के अंदर 230 मिलीमीटर बरसात हुई। इसके बाद पानी नहीं पड़ा।

इतनी बरसात से ही जोहड़ों में काफी पानी जमा हो गया। भूमिगत जल स्त्रोतों तक पानी गया और गांव के करीब 20 कुओं का जलस्तर ऊपर आ गया। बड़े जोहड़ों के पेट में स्थित खेतों में फसल लगाई गई, जबकि छोटे जोहड़ों का पानी पशुओं के लिए बचाकर रखा गया। बरसात के साथ काफी घास-फूस-पत्ता, गोबर वगैरह जैसा जैव कचरा भी जोहड़ों के तले में जमा हो गया और इससे खेतों में स्थित जमीन पर ही करीब 30 टन अनाज उगा लिया गया।

जोहड़ों के गांव के पर्यावरण को हरा-भरा बना दिया है और खुद जोहड़ों के आसपास तो पेड़ भर गए हैं। पहले खेती की जमीन से मिट्टी बह जाती थी और उसमें नमी का अभाव रहता था। अब जमीन काफी समय तक नम रहती है। 1986 में 87 परिवारों के 60 नौजवान काम की तलाश में बाहर गए थे। आज इस गांव के सिर्फ तीन लोग बाहर काम करते हैं। पहले गांव की औरतों का काफी वक्त और श्रम पानी लाने में लगता था, अब इसकी जरूरत नहीं रही।

जोहड़ के पानी का उपयोग करने संबंधी फैसला गांव के लोग खुद लेते हैं। इनका रखरखाव भी उनकी ही जिम्मेदारी है और इनकी सफलता से गांव के लोगों में सामूहिकता की भावना भी प्रबल हुई है। पारंपरिक जल संचय विधि को पुनर्जीवित करने का यह प्रयास बहुत सफल हुआ है और इसने गोपालपुरा की संपदा को बाहर बह जाने से रोका है। इसके गांव का जीवन स्तर भी ऊंचा हुआ है। 1986 के बाद थाना गाजी और राजगढ़ (अलवर जिला) और भानावास (जिला सवाई माधोपुर) गांवों में पंचायत समितियों ने 200 जोहड़ों का निर्माण कराया है। राजेंद्र सिंह बताते हैं, “हम सबसे पहले गांवों में ग्राम सभा का गठन कराने में मदद करते हैं। सभा ही जोहड़ की जगह, जल ग्रहण क्षेत्र का आकार और उसकी लागत तय करती है। फिर हम गांव की आर्थिक स्थिति देखकर उनसे एक-चौथाई, एक-तिहाई या आधा खर्च देने को कहते हैं। बाकी खर्च तरुण भारत संघ उठाता है।”

गोपालपुरा में मिट्टी बहने से गिरा पेड़। पहले खेतों से काफी मिट्टी बह जाती थी और उनमें नमी रखने की क्षमता कम थी। लेकिन जोहड़ों के बनने के बाद मिटृी काफी समय तक नम रहती है (गणेश पंगारे / सीएसई)

गोपालपुरा गांव के किसान घृतपाल मीणा कहते हैं, “जब गांववालों ने कहा कि उन्हें अपने जल संसाधनों के प्रबंधन का हक है तो विभाग ने अपनी रणनीति बदल दी और जोहड़ों को तकनीकी रूप से असुरक्षित करार दिया। लेकिन अनुभवों से यह आरोप भी गलत था, क्योंकि 1988 की भारी बरसात में भी हमारे बांध टिके रहे, जबकि सरकारी बांध जो जैतपुरा में था, बह गया। हमारे बांध पर तो 35-35 हजार रुपए का ही खर्च आया था, जबकि सरकार ने एक लाख रुपए की लागत से वह बांध बनाया था।”

जोहड़ों को लेकर गांवों के बीच भी विवाद उठते हैं जिन्हें निबटाना भी ग्राम सभा का काम है। तरुण भारत संघ के कार्यकर्ता अमन सिंह कहते हैं, “विवाद के 40 फीसदी मामले तो जोहड़ बांधने की जगह के चुनाव पर होते हैं। वैसे सूरतगढ़ में जोहड़ बांधने के लिए सबसे उपयुक्त जगह तो एक ब्राह्मण का खेत था, पर रैगर बहुल पंचायत ने फैसला अपने पक्ष में कर लिया।” सुमेर सिंह कहते हैं, “विवादों के मद्देनजर 24 दिसंबर 1992 को इलाके के सभी ग्राम सभाओं के प्रतिनिधियों, स्थानीय विधायक और सांसद की एक बैठक हुई जिसमें ये विवाद निबटाए गए।”

पानी के वितरण को लेकर भी तनाव होता है। नानकराम गुज्जर कहते हैं, “अक्सर जोहड़ के पास के खेत वाले अपने हिस्से से ज्यादा पानी ले लेते हैं। पर अब तरुण भारत संघ और ग्राम सभा ने यह व्यवस्था की है कि जिसे ज्यादा पानी चाहिए वह ले सकता है, बशर्ते वह इसके लिए ज्यादा पैसा दे। पर यह तभी हो सकता है जब बाकी लोगों की जरूरतें पूरी हो जाएं। यह सारा काम ग्राम सभा की देखरेख में होता है। यह पैसा भूमिहीनों के लिए चलने वाले कार्यक्रमों पर लगता है।” आज इन गांवों के लोग गेहूं, मक्का, बाजरा, चना और सरसों की भरपूर फसल ले रहे हैं। गोपालपुर में एक हेक्टेयर जमीन के मालिक बद्री प्रसाद मीणा कहते हैं कि जोहड़ों के बनने के बाद उन्होंने अपनी खेती की कमाई से एक ऊंटगाड़ी ले ली है और पक्का घर बनवा लिया है। गरीबों का गांव छोड़कर बाहर जाना भी थम गया है। सुमेर सिंह कहते हैं, “अब सूदखोरों के बाहर भागने के दिन आ गए हैं, क्योंकि अब गांव में किसी को अपनी संपत्ति माटी के मोल बंधक रखने की जरूरत नहीं रह गई है।”

पर्यावरण को हरा-भरा करने के लिए तरुण भारत संघ ग्राम सभाओं की नंगी पहाड़ियों, खाली जमीन, गोचर, मेड़ और जोहड़ों के ऊपर पेड़ लगाने के लिए उनके पौधे भी उपलब्ध कराता है। चार वर्ष पहले गोपालपुरा के 25 हेक्टेयर के बंजर चारागाह पर 8,000 पौधे रोपे गए थे। नानकराम कहते हैं, “पशुओं से पौधों को बचाने लिए 100 से ज्यादा गांवों में दीवारें खड़ी की गई हैं और ग्राम सभाएं ऐसी व्यवस्था कर रही है जिससे कोई इन पौधों को नुकसान न पहुंचाए। पेड़ काटने पर जुर्माना लगता है।”

अलग व्यवस्था

इन कार्यों में औरतों की भागीदारी आसान नहीं है। भवंता में औरतों की अपनी अलग सभा है। इसकी सदस्य मुरली देवी कहती हैं, “हमने ग्राम सभा के कानूनों को तोड़ने वाली महिलाओं से निबटने के लिए अलग सभा बनाई है।” यह काम अपेक्षाकृत ज्यादा पिछड़े गांवों में हुआ है, जहां आज भी पर्दा प्रथा है। औरतों की भागीदारी बढ़ाने के प्रति सारे कार्यकर्ता और समझदार ग्रामीण तत्पर हैं। सुमेर सिंह कहते हैं, “हम औरतों की भागीदारी बढ़ाकर ग्राम सभा को मजबूत करना चाहते हैं।” पर इस क्षेत्र में औरतों के प्रति पूरे समाज का जो नजरिया है उसे देखते हुए इस काम में और तत्परता की जरूरत है।

(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)

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