रिपोर्ट्स बताती हैं कि जल स्रोतों में दवा के अवशेष की मौजूदगी से मछलियों का चरित्र बदल गया और गर्भनिरोधक गोलियों के अवशेष ने उन्हें “स्त्रीयोचित” बना दिया है
एक नया प्रदूषक तत्व पर्यावरण में प्रवेश कर रहा है। यह तत्व किसी की बीमारी को ठीक करता है, लेकिन इसका बाकी बचा हिस्सा पर्यावरण को बीमार कर रहा है। इससे भी बड़ी बात है कि यह लाखों लोगों को भी बीमार कर रहा है। यह जीवों पर भी असर डाल रहा है, खासकर वन्य जीवों को इससे खतरा है।
यह नया प्रदूषक हमारी दवाओं, या दवा के रसायनों का अवशेष है, जो कि अनियंत्रित और अनुपचारित रह जाता है। ओईसीडी (ऑर्गेनाजेशन फॉर कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) द्वारा किए गए एक नए अध्ययन में पाया गया है कि इंसानों और जानवरों की दवाओं में इस्तेमाल होने वाले 2,000 से अधिक एक्टिव इनग्रेडिएंट्स के एक “बड़े हिस्से” को नियंत्रित नहीं किया जा रहा है। एक बार उनके पर्यावरण में पहुंच जाने के बाद उनके खतरे का अभी तक मूल्यांकन नहीं किया गया है। हर साल ज्यादा से ज्यादा ऐसे एक्टिव इनग्रेडिएंट्स के इस्तेमाल की मंजूरी दी जाती है। इस तरह, यह पर्यावरण में ऐसे अनियंत्रित अवशेषों का भंडार बढ़ता जा रहा है।
दवा के निर्माण, प्रयोग और निपटान से लेकर दवा बनाने के सभी चरणों में ये अवशेष हमारे पर्यावरण, जैसे जल निकायों, नदियों, हवा और भोजन में शामिल हो रहा है, लेकिन इसका सबसे बड़ा स्रोत इंसान के शरीर में दवा के अवशोषण की प्राकृतिक प्रक्रिया है।
हम जिन दवाओं का सेवन करते हैं, उसका 30 से 90 फीसद हिस्सा मल और मूत्र के जरिए बाहर निकाल देते हैं। इन अवशेषों में हमारे द्वारा खाई गई दवाओं के एक्टिव इनग्रेडिएंट्स मौजूद रहते हैं। एक बार जब उन्हें बिना उपचारित किए सीवर और नालियों में बहा दिया जाता है, तो वे हमारे पर्यावरण या लोगों के शरीर में पहुंच जाती हैं। एक्सपायर और इस्तेमाल नहीं की गई दवाओं को भी डंपिंग साइट्स और लैंडफिल में फेंक दिया जाता है।
उदाहरण के लिए अमेरिका का ही मामला देखें, जहां हर साल मरीजों को दी गई 4 अरब दवाओं का 33 फीसद हिस्सा कूड़े में फेंक दिया जाता है। हमारे सीवेज सिस्टम इस तरह के एक्टिव इनग्रेडिएंट्स को शोधित करने के लिए नहीं बनाए गए हैं, जिससे उनकी मौजूदगी ज्यादा व्यापक हो जाती है।
अध्ययन के मुताबिक, दुनिया भर में ऐसे अवशेष या एक्टिव इनग्रेडिएंट्स नदी-तालाबों के पानी, जमीन के नीचे के पानी और नल के पानी में पाए गए हैं। इस अअध्ययन में भारत में विभिन्न जल स्रोतों में 31-100 ऐसे अवशेष पाए गए हैं।
रिपोर्ट के मुतबिक, “चूंकि दवाओं को कम मात्रा में जीवित जीवों (लिविंग ऑर्गेनिज्म) के साथ संपर्क के लिए तैयार किया जाता है, ऐसे में थोड़ा सा जमावड़ा भी मीठे पानी के पारिस्थिति-तंत्र पर असर डाल सकता है।” इसका मतलब है कि किसी शख्स द्वारा खाई गई दवा का अवशेष किसी दूसरे इंसान के शरीर में प्रवेश करता है, जबकि वह उस बीमारी से पीड़ित नहीं है। आसान शब्द में कहें तो, यह गलत बीमारी के लिए गलत दवा लेने या बिना वजह दवा लेने जैसा है। और इसका बुरा असर होता है।
ओईसीडी की रिपोर्ट में एक अध्ययन के हवाले से बताया गया है कि गर्भनिरोधक गोलियों में एक्टिव सब्सटेंस “मछली और उभयचरों के स्त्रीकरण का कारण बना है।” इस अध्ययन में आगे कहा गया है कि मनोचिकित्सा में इस्तेमाल होने वाली दवा फ़्लूक्सेटिन के अवशेषों ने मछलियों के व्यवहार को बुनियादी रूप से बदल कर उन्हें “कम जोखिम प्रतिरोधी” बना दिया। डाउन टू अर्थ और सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की एक नई आने वाली किताब में बताया गया है कि इस तरह के अवशेष रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटीमाइक्रोबॉयल रेजिस्टेंस) के लिए जिम्मेदार हैं। अनुमान है कि वर्ष 2050 तक, एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस की वजह से एक करोड़ लोग मौत का शिकार होंगे, जिनमें से ज्यादातर विकासशील देशों में रहने वाले होंगे। भारत दुनिया में एंटीबायोटिक दवाओं का सबसे बड़ा उपभोक्ता है।
इस संकट को जो चीज और बढ़ाती है, वह है इन इनग्रेडिएंट्स के पर्यावरण पर दीर्घकालिक असर की वैज्ञानिक समझ का अभाव। उदाहरण के लिए, पर्यावरण में नुकसान को लेकर इनमें से अधिकांश का अध्ययन नहीं किया गया है। यहां तक कि, हम पर्यावरण में उनकी मौजूदगी के बारे में कुछ खास जानते भी नहीं हैं। करीब 88% इंसानी दवाओं की पर्यावरण विषाक्तता को लेकर आंकड़े तक नहीं हैं।
एक शख्स को किसी खास बीमारी में इस्तेमाल के लिए दिए जाने के उलट, कई दवाओं के अवशेषों का पर्यावरण में स्वतंत्र रूप से एक कॉकटेल बन जाता है जिसके असर या इंसानों के साथ संपर्क के बारे में शायद ही कोई जानकारी है। रिपोर्ट में कहा गया है, “इस बात के ज्यादा से ज्यादा साक्ष्य सामने आ रहे हैं कि दवाओं का मिश्रण संयुक्त विषाक्तता (यानी एडिटिव इफेक्ट) को एकाकी विषाक्तता की तुलना में ज्यादा खतरनाक बना देता है।”
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