Natural Disasters

क्यों बढ़ रही हैं उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाएं?

उत्तराखंड में इस साल बादल फटने से आई बाढ़ के कारण लगभग 20 लोगों की मौत हो चुकी है। यहां हर साल बादल फटने की घटनाएं हो रही हैं, जिसके कई कारण हैं। इसकी पड़ताल एक खास रिपोर्ट- 

 
By Varsha Singh, Trilochan Bhatt
Published: Friday 09 August 2019
केदारनाथ आपदा के बाद का दृश्य (फाइल फोटो): मोहित डिमरी

बीते 8 अगस्त तक उत्तराखण्ड के लगभग सभी जिलों में सामान्य से कम बारिश दर्ज की गई थी। लेकिन, 8-9 की रात को ज्यादातर हिस्सों में तेज बारिश हुई और तीन जगहों पर बादल फटने की घटनाएं भी दर्ज की गई। इसके बाद 17 की रात से बादल फटने और भारी बारिश की खबरें आ रही हैं। इससे 14 लोगों की मौत और 17 लोगों के लापता हो चुके हैं। इससे पहले हुई घटना में 6 लोगों की मौत हुई थी और एक बच्ची अब तक लापता है। सवाल उठता है कि आखिर उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाएं बार-बार क्यों हो रही हैं? 

मौसम विज्ञान केंद्र देहरादून के निदेशक बिक्रम सिंह कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों के डाटा का आंकलन करने पर पता चलता है कि पूरे मानसून सीजन में बारिश तो एक समान रिकॉर्ड हो रही है लेकिन इस दौरान रेनी डे ( किसी एक जगह, एक दिन में 2.5 मिलीमीटर या उससे अधिक बारिश रिकॉर्ड होती है, उसे रेनी डे कहते हैं ) की संख्या में कमी आ रही है। यानी जो बारिश सात दिनों में होती थी, वो तीन दिन में ही हो जा रही है। जिससे स्थिति बिगड़ रही है। साथ ही जो मानसून सीजन जून से सितंबर तक एक समान होता था, वो अब जुलाई-अगस्त में सिकुड़ रहा है।

आपदा प्रबंधन विभाग के निदेशक पीयूष रौतेला के मुताबिक अत्यधिक भारी बारिश से सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर को भी बहुत नुकसान होता है। वर्ष 2018 में भारी बारिश से उत्तराखंड में 58 से अधिक मौतें हुईं थीं। वर्ष 2017 में मानसून सीजन में 84 लोगों की मौत हुई थी और 27 लोग लापता हो गए। एक हजार से अधिक मवेशियों की मौत हुई। 1602 आवासीय भवन क्षतिग्रस्त हुए। 1329 सड़कें टूट गईं और 1244 पुल-पुलिया और सुरंगों का नुकसान हुआ। इसी तरह वर्ष 2010, 2012 और 2016 में भी बादल फटने और भारी बारिश से राज्य में काफी नुकसान हुआ है।

मिजोरम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर विश्वंभर प्रसाद सती ने उत्तराखंड में बादल फटने की घटना पर अपना शोध पत्र वर्ष 2018 में स्विटजलैंड में पेश किया। उन्होंने वर्ष 2009 से 2014 के जून से अक्टूबर तक बारिश के आंकड़ों की पड़ताल की। इसी मौसम में बादल फटने की घटनाएं होती हैं। तथ्यों के आंकलन से उन्होंने पाया कि इस दौरान बारिश में अत्यधिक उतार-चढ़ाव आए हैं। बारिश में गिरावट भी दर्ज की गई है। हालांकि इस दौरान अपेक्षाकृत कम अवधि में बारिश की तीव्रता अधिक पायी गई, जो कि बादल फटने के बराबर है, जिससे प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। उनके मुताबिक बारिश में अत्यधिक अनियमितता और जलवायु परिवर्तन की वजह से वर्षा की तीव्रता और फ्रीक्वेंसी दोनों बढ़ी हैं।

प्रोफेसर सती कहते हैं कि क्लाइमेट वेरिएबिलिटी पूरे हिमालयी क्षेत्र में बढ़ गई है। बारिश की तीव्रता भी बढ़ गई है। बारिश पॉकेट्स में हो रही है। किसी एक जगह बादल इकट्ठा होते हैं और अत्यधिक भारी वर्षा से बादल फटने जैसे हालात पैदा होते हैं। बारिश का सामान डिस्ट्रिब्यूशन नहीं है। अपने शोध के ज़रिये वे बताते हैं कि मानसून का टोटल टाइम ड्यूरेशन यानी कुल अवधि भी घट गई है। इसके साथ ही गर्मियों में हीट वेव बढ़ने से घाटियां और मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में गर्मी बढ़ रही है। जिसका असर जलवायु में आ रहे बदलावों पर पड़ता है। प्रोफसर सती का कहना है कि क्लाइमेट चेंज बाद में है, पहले क्लाइमेट वैरिएबिलिटी की समस्या बड़ी हो गई है।

वाडिया इंस्टीट्यूट के जियो-फिजिक्स विभाग के अध्यक्ष डॉ सुशील कुमार कहते हैं कि निश्चित तौर पर बादल फटने की घटनाएं पिछले एक दशक में बढ़ी हैं। उत्तराखंड में पहले भी बादल फटते थे लेकिन वो दुर्गम इलाकों में किसी गांव में ऐसी इक्का-दुक्का घटनाएं होती थीं। जिससे नुकसान भी इतना अधिक नहीं होता था। लेकिन अब मल्टी क्लाउड बर्स्ट यानी बहुत सारे बादल एक साथ एक जगह पर फट रहे हैं। जिससे काफी नुकसान हो रहा है।

डॉ सुशील के मुताबिक टिहरी बांध के अस्तित्व में आने के बाद इस तरह की घटनाओं में खासतौर पर इजाफा हुआ है। टिहरी में भागीरथी नदी पर करीब 260.5 मीटर ऊंचा बांध बना है। जिसका जलाशय करीब 4 क्यूबिक किलोमीटर का करीब 3,200,000 एकड़ फीट में फैला है, जिसका उपरी हिस्सा करीब 52 वर्ग किलोमीटर का है। जिस भागीरथी नदी का कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) पहले काफी कम था, बांध बनने के बाद वो बहुत अधिक हो गया। वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक के मुताबिक इतनी बड़ी मात्रा में एक जगह पानी इकट्ठा होने से बादल बनने की प्रक्रिया में अत्यधिक तेज़ी आई। मानसून सीजन में बादल इस पानी को संभाल नहीं पाते हैं और फट जाते हैं। पूरे उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाएं चल रही हैं। नदी का प्राकृतिक बहाव रोकने से प्रकृति मुश्किल में आ गई है। इसलिए बादल फटने की घटनाओं में भी तेजी आई है।

हिमालयन पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संस्था के संस्थापक डॉ अनिल जोशी जो लगातार हिमालयी पर्यावरण का अध्ययन करते हैं, मानते हैं कि बादल फटने की घटनाओं में पिछले एक दशक में निश्चिततौर पर इजाफा हुआ है। पर्यावरणविद् अनिल जोशी का कहना है कि टिहरी बांध की विशाल झील से जो वाष्पीकरण होता है वो बरसात के मौसम में भारी बादल बनाता है। जिसका असर सिर्फ गढ़वाल पर ही नहीं कुमाऊं पर ही होता है। वे कहते हैं कि सरकार इसलिए भी बादल फटने की घटना से इंकार करती हैं क्योंकि उन्हें अभी काली नदी पर पंचेश्वर डैम बनाना है, जिसका आकार टिहरी झील से कई गुना बड़ा होगा। टिहरी झील बनाने के बाद पर्यावरण पर उसके प्रभाव का अध्ययन जरूरी हो जाता है।

उत्तराखंड में बादल फटने की पहली बड़ी घटना 1952 में सामने आई थी। जब पौड़ी जिले के दूधातोली क्षेत्र में हुई अतिवृष्टि से नयार नदी में अचानक बाढ़ आ गई थी। इस घटना में सतपुली कस्बे का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो गया था। वहां खड़ी कई बसें बह गई थी और कई लोगों को मौत हो गई थी। 1954 में रुद्रप्रयाग जिले के डडुवा गांव में अतिवृष्टि के बाद भूस्खलन से पूरा गांव दब गया था। 1975 के बाद से लगभग हर साल इस तरह की घटनाएं होने लगी और अब हर बरसात में 15 से 20 घटनाएं दर्ज की जा रही हैं। 

उत्तराखंड वानिकी एवं औद्यानिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष डाॅ. एसपी सती इंटरगवर्नमेंट पैनल फाॅर क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट का हवाला देते हैं। वे लगातार बढ़ रही अतिवृष्टि की घटनाओं को ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले क्लाइमेट चेंज का असर मानते हैं। सती कहते हैं कि अब एक साथ सूखा और अतिवृष्टि का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष में ज्यादातर समय सूखे की स्थिति बनी रहती है और कुछ दिन के भीतर इतनी बारिश आ जाती है कि जनधन का भारी नुकसान उठाना पड़ता है। वे कहते हैं अतिवृष्टि से होने वाला नुकसान इस बात पर निर्भर करता है कि उस क्षेत्र में पहाड़ी ढाल की प्रवृत्ति किस तहत की आमतौर पर भंगुर और तीव्र ढाल वाले क्षेत्र में अतिवृष्टि से ज्यादा नुकसान होता है। 

सती पर्वतीय क्षेत्रों में बड़ी संख्या में बनने वाली सड़कों को भी अतिवृष्टि से होने वाले नुकसान का कारण मानते हैं। उनका कहना है कि उत्तराखंड में पिछले 20 वर्षों में लगभग 50 हजार किमी सड़कों का निर्माण हुआ है। एक किमी सड़क निर्माण में औसतन 40 घन मीटर मलबा पैदा होता है। इस तरह इन 20 वर्षों में हम 200 करोड़ घनमीटर मलबा पैदा कर चुके हैं। इस मलबे के निस्तारण के लिए भी कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं अपनाया जाता। मलबा पहाड़ी ढलानों में ही पड़ा रहता है और तेज बारिश होने पर निचले क्षेत्रों में नुकसान पहुंचाता है।

लेखक व पर्यावरण संबंधी मसलों के जानकार जयसिंह रावत पहाड़ों में अतिवृष्टि के लिए वनों के असमान वितरण को भी एक बड़ा कारण मानते हैं। वे कहते हैं कि उत्तराखंड के 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में वन हैं, लेकिन मैदानी क्षेत्रों में वन नाममात्र के ही हैं। ऐसे स्थिति में मानसूनी हवाओं को मैदानों में बरसने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता और पर्वतीय क्षेत्रों में घने वनों के ऊपर पहुंचकर मानसूनी बादल अतिवृष्टि के रूप बरस जाते हैं। वे कहते हैं कि आज जरूरत सिर्फ पर्वतीय क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी तीव्र वनीकरण की आवश्यकता है।

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