Agriculture

अच्छी खेती के लिए निवेश जरूरी, जीरो बजट खेती संभव नहीं

16 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने सफल खेती का मॉडल प्रस्तुत करने जा रहे उत्तराखंड के  आधुनिक किसान प्रेमचंद से विशेष बातचीत- 

 
By Varsha Singh
Published: Wednesday 10 July 2019
देहरादून के त्यूणी तहसील के अटाल गांव में इस तरह खेती कर रहे हैं आधुनिक किसान प्रेम चंद। फोटो: वर्षा सिंह

समुद्र तल से 940 मीटर ऊंचाई पर बसा है अटाल गांव। देहरादून के त्यूणी तहसील में आने वाले इस गांव की सीमाएं हिमाचल प्रदेश से लगती हैं। खेती-किसानी के लिहाज से ये गांव अपने आप में आदर्श है और यदि इस गांव के किसानों का फॉर्मुला उत्तराखंड सरकार अपना ले तो शायद समूचे गढ़वाल के बंजर खेतों में जान डाली जा सकती है। इसी गांव के आधुनिक किसान प्रेमचंद शर्मा 16 जुलाई को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने अपनी खेती के मॉडल का प्रेजेंटेशन देंगे। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की ओर से देशभर के सफल किसानों को बुलाया गया है। इसके लिए उत्तराखंड से प्रेमचंद शर्मा को चुना गया है।

62 वर्षीय प्रेमचंद अपने अनुभव और तकनीक की मदद से 40 बीघा क्षेत्र में खेती और बागवानी करते हैं। उनकी सालाना आय करीब 20 से 25 लाख रुपए है। वे बताते हैं कि शुरुआत में उन्होंने सेब के बाग लगाने की कोशिश की लेकिन सेब के उत्पादन के लिहाज से अटाल गांव की ऊंचाई कम पड़ जाती है। इसलिए उऩ्होंने अनार और आड़ू के बाग लगाए। वे 20 बीघा में बागवानी करते हैं और 20 बीघा में सब्जियां और अनाज उगाते हैं।

यह हैं प्रेम चंद, जो 16 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष सफल खेती का मॉडल प्रस्तुत करेंगे

प्रेमचंद बताते हैं कि खेती के लिए उनके सामने भी पानी की चुनौती थी। जबकि टौंस और हिमाचल से बहकर आने वाली शालू नदी उनके गांव से कुछ दूर बहती है। खेतों तक पानी लाने के लिए प्रेमचंद ने ड्रिप तकनीक का सहारा लिया। वे बताते हैं कि इसके लिए पहाड़ में ऊंचाई पर पानी का टैंक बनाया गया है। साथ ही पहाड़ों में जितने भी प्राकृतिक जलस्रोत हैं, उसके पानी को टैप कर टैंकों तक पहुंचाया गया। हालांकि इस समय कम बारिश की वजह से स्रोत में भी पानी कम है। जरूरत पड़ने पर टौन्स नदी का पानी लिफ्ट कर ऊपर पहुंचाया जाता है। ड्रिप के ज़रिये पहाड़ से पानी आसानी से नीचे उतर आता है जबकि मैदानी क्षेत्र में ये कार्य बिना बिजली की मोटर के नहीं किया जा सकता।

वे अपने खेतों के साथ-साथ बगीचों की सिंचाई भी ड्रिप के ज़रिये ही करते हैं। प्रेमचंद बताते हैं कि इस समय ड्रिप की मदद से ही मक्का तैयार किया जा रहा है। साथ ही टमाटर और रंगीन शिमलामिर्च भी। जबकि मिनी स्प्रिंकलर (फव्वारा) की मदद से धान, गोभी की सिंचाई की जा रही है। उन्होंने अनार, आड़ू, अखरोट की नर्सरी भी लगाई है। इसकी सिंचाई के लिए मिनी स्प्रिंगलर का इस्तेमाल कर रहे हैं। दिल्ली में आयोजित हो रहे कार्यक्रम में भी वे कम पानी से सिंचाई के बारे में प्रेजेंटेशन देंगे।

प्रेमचंद की उगाई सब्जियां देहरादून और दिल्ली के बाज़ारों तक पहुंच रही हैं। हालांकि अपने कृषि उत्पाद को बाज़ार तक पहुंचाना आसान नहीं होता। वे बताते हैं कि जिन सब्जियों की बाज़ार में अच्छी मांग है वे तो बिक जाती हैं लेकिन कुछ ऐसी सब्जियां भी हैं जिसकी पैदावार अटाल गांव में बेहद अच्छी है लेकिन उसे खरीदने के लिए बाज़ार तैयार नहीं है। उनके मुताबिक चेरी टमाटर की पैदावर इतनी अच्छी है। स्वाद, रंगत और सेहत से भरपूर होने के बावजूद देहरादून की मंडी में चेरी टमाटर नहीं बिक पाता। कुछ ऐसा ही ब्रोकली और रंगीन शिमलामिर्च के साथ भी है। प्रेमचंद बताते हैं कि वे अभी प्रयोग के तौर पर चेरी टमाटर उगा रहे हैं और राज्य सरकार को दिखाना चाहते हैं कि ऐसा कुछ किया जा सकता है। वे अपनी सब्जियों के लिए खाद भी खुद ही तैयार करवाते हैं। उनकी खेती से चार परिवारों को रोजगार मिला है।

 

गढ़वाल के लिए मॉडल है अटाल गांव की खेती

प्रेमचंद कहते हैं कि अच्छी जलवायु, अच्छे वातावरण का असर सब्जियों पर भी पड़ता है और उनका स्वाद भी अच्छा होता है। लेकिन सवाल ये है कि गढ़वाल के किसान इसी खेती से दूर क्यों हो रहे हैं। उनके खेत बंजर क्यों हो रहे हैं। सिंचाई, जंगली जानवर और चकबंदी का न होना गढ़वाल क्षेत्र की खेती को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है। किसानों को लगता है कि सिंचाई के लिए ड्रिप तकनीक का इस्तेमाल महंगा सौदा है। लेकिन इसमें एक बार ही खर्च आता है और उसके बाद श्रम की बहुत बचत होती है और ये कई सालों के लिए कारगर होता है।

खेत पर ही सब्जी बेचने का भी काम करते हैं प्रेम चंद। फोटो: वर्षा सिंह

गढ़वाल की खेती पर जंगली जानवरों का भी बहुत असर है। प्रेमचंद शर्मा भी हिमाचल प्रदेश की तर्ज़ पर सोलर फेन्सिंग के इस्तेमाल की सलाह देते हैं। यदि एक पूरे क्षेत्र की सोलर फेन्सिंग करा दी जाए और उसके अंदर के सारे खेत की चकबंदी कर दी जाए। वहां किसान एक ही किस्म की पैदावार उगाएं। जैसे सभी किसान टमाटर ही उगाएं तो जंगली जानवर से होने वाले नुकसान और चकबंदी समस्या दोनों का हल निकल आएगा। ये कार्य छोटे किसान नहीं कर सकेंगे, इसके लिए राज्य सरकार को ही आगे आना होगा।

 

जीरो बजट खेती नहीं हो सकती

खेती का शानदार उदाहरण देने वाले प्रेमचंद कहते हैं कि जीरो बजट खेती तो हो ही नहीं सकती। सरकार न जाने क्यों इस जुमले का इस्तेमाल कर रही है। वे कहते हैं कि हमें खेती को फायदेमंद बनाने के लिए निवेश करना ही होगा। टमाटर की खेती के लिए प्रेमचंद ने अपने खेतों में लोहे की रॉड डाली हैं, जिस पर टमाटर के झाड़ को टिकाया जाता है। जबकि इसी कार्य के लिए क्षेत्र के दूसरे किसान जंगल से लकड़ियां काटकर लाते हैं। प्रेमचंद कहते हैं कि एक बार लोहे की रॉड डालने के बाद मैं बीस सालों के लिए लकड़ी के झंझट से मुक्त हो गया जबकि दूसरे किसानों को हर बार ही नई लकड़ियों का जुगाड़ करना होता है। इसलिए खेती में कुछ निवेश भी जरूरी है। उत्तराखंड में पलायन की एक बड़ी वजह खेती से आमदनी न होना भी है। सुदूर पहाड़ों पर बसे अटाल गांव से कोई पलायन नहीं हुआ है। क्योंकि यहां खेती अच्छी है।

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