Environment

जब स्वर्ग में बरसता है जहर

कृषि पैदावार बढ़ाने के नाम पर अंधाधुंध इस्तेमाल किए जा रहे कीटनाशकों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है अंबिकासूतन मांगड का उपन्यास

 
By Bhagirath Srivas
Published: Friday 15 September 2017
तारिक अजीज / सीएसई

स्वर्ग सी खूबसूरत धरती के आहिस्ता-आहिस्ता नर्क बनने की दास्तान है “स्वर्ग”। अंबिकासूतन मांगड का यह उपन्यास दरअसल उपन्यास से ज्यादा एक दस्तावेज है। यह एक ऐसी त्रासदी का लेखा जोखा है जो मानव निर्मित है। ऐसे संघर्ष का जीता जागता नमूना है जिसका गवाह केरल का कासरगोड जिला बना है।

यह उपन्यास सोचने पर मजबूर करता है कि क्या शासन-प्रशासन सच में इतना निर्दयी हो सकता है कि अपने ही लोगों की नस्लों को इस कदर बर्बाद कर दे कि जिंदगी मौत से बदतर लगने लगे। जिंदगी इतनी बोझ बन जाए कि लोग मौत को गले लगाने लगें। यह उपन्यास बताता है कि जब जीने के जरूरी साधन मौत की वजह बनने लगते हैं तो क्या होता है। क्या होता है जब हवा, पानी और भोजन में जहर परोसा जाता है? और यह जहर कोई और नहीं बल्कि आपकी अपनी चुनी हुई सरकार परोसती है। क्या होता है जब मामूली फायदे के लिए गरीबों की जिंदगी दाव पर लगा दी जाती है? स्वर्ग ऐसे ही सवालों से जूझता एक अहम उपन्यास है।   

स्वर्ग में वास्तविकता और कल्पना का इतना महीन मिश्रण है कि उसे अलग-अलग कर पाना बेहद मुश्किल है। कहानी के अधिकांश पात्र वास्तविक हैं जिन्हें लेखक ने करीब से देखा है।

लेखक ने कहानी के अहम किरदार नीलकंथन और देवयानी के माध्यम से केरल के कासरगोड जिले में ऐतिहासिक महाविनाश की कहानी बताई है। दोनों शहरी जीवन के तंग होकर स्वर्ग के जंगल में गुमनाम जिंदगी बिता रहे हैं। कुछ साल तो सब ठीक रहता है लेकिन एक दिन अचानक देवयानी को एक बच्चा मिलता है। उसका शरीर घावों से भरा था। उसके बाल भूरे हो गए थे। शरीर की बनावट अजीब थी। यह बच्चा उनकी एकांत की जिंदगी का खत्म करता है और उन्हें अपने चारों ओर देखने को मजबूर करता है। देवयानी और नीलकंथन उसे परीक्षित नाम देते हैं। तीन साल का परीक्षित देखने में तीन महीने का मालूम होता है। दर्द और बीमारी के साथ परीक्षित लंबे समय तक नहीं जी पाता। देवयानी और नीलकंथन को एक दिन वह घर में मृत मिलता है।

परीक्षित की मौत देवयानी और नीलकंथन को हिला देती है। उन्हें एहसास होता है कि स्वर्ग के घर-घर में ऐसे बीमार और अल्पविकसित बच्चे मौजूद हैं। वे बच्चे न तो दिमागी रूप से स्वस्थ और न ही शारीरिक रूप से। उन्हें पता चलता है कि यह त्रासदी एंडोसल्फान कीटनाशक की वजह से है। इसका हवाई छिड़काव आसपास मौजूद प्लांटेशन कॉरपोरेशन ऑफ केरला (पीसीके) के काजू के बागानों पर किया जाता है ताकि टी मास्कीटो नामक कीट को मारा जा सके। लेखक का दावा है कि इस कीट का अस्तित्व ही नहीं है। दवा कंपनी को फायदा पहुंचाने के लिए इस कीट का बहाना बनाकर कीटनाशक का छिड़काव कर लोगों का जिंदगी और उनकी आने वाली नस्लों को बर्बाद किया जा रहा है। कंपनी और सरकार इसे दवा मानती है जबकि विभिन्न रिपोर्ट्स में इसके खतरनाक होने के प्रमाण हैं।  

यह सब जानने के बाद देवयानी और नीलकंथन अपनी सन्यासी वाली जिंदगी को त्यागकर संघर्ष का रास्ता अपना लेते हैं ताकि वे खतरनाक कीटनाशक से स्वर्ग को निजात दिला सकें। उनके संघर्ष के साथ ही सत्ता से उनका और उनके साथियों का टकराव शुरू हो जाता है। यह त्रासदी एक अंतहीन सिलसिला सा बन जाती है। प्रताड़ना, धमकियां और अकेलापन उनकी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन जाता है।   

यह तथ्य है कि इंडोसल्फान कीटनाशक की वजह से केरल के कासरगोड जिले के पारिस्थितिक तंत्र को भारी नुकसान पहुंचा है। यहां पानी, हवा और जमीन में जहर फैल गया है। यहां जन्म लेने वाले बच्चे जिंदगी भर अपंगता से जूझते रहेंगे। इस जहर ने पानी में मछलियों, मेंढक आदि जीवों को खत्म कर दिया। पौधों में फूल आने बंद गए हो गए हैं और मधुमक्खियां भी खत्म हो गईं हैं। जलस्रोत तक खत्म हो गए। स्थानीय लोगों के रक्त में यह कीटनाशक बड़ी मात्रा में घुल गया।

कीटनाशक से पीड़ित लोग जब कृषि मंत्री से अपना दर्द बयां करते हैं तो उनकी बातें भी कीटनाशक कंपनी के बयान से मिलती हैं। वह कहते हैं कि एंडोसल्फान जहर नहीं, दवा है। अगर तुम बीमार हो तो डॉक्टर के पास जाओ। साफ है पूरे कुएं में ही भांग घुली हुई है।  

इस वक्त अधिकांश समकालीन लेखक विकास के मुद्दों को आधार बनाकर सााहित्य रच रहे हैं। अंबिकासूतन ने भी इसी कड़ी में मील का पत्थर उपन्यास लिखा है। लेखक ने पौराणिक कथाओं को जिक्र कहानी को आगे बढ़ाने और उसे मजबूती से स्थापित करने के लिए किया है। लेखक के अनुसार, पुराणों में पूतना ने बाल कृष्ण को मारने को लिए अपने दूध में विष मिला दिया था। यहां भी यही हो रहा है। उनके मुताबिक, हम मानते हैं कि दुनिया का सबसे सुरक्षित भोजन मां का दूध है लेकिन यहां दूध भी विष बन चुका है। बच्चे इसे पीने को विवश हैं।

लेखक अपने उपन्यास में कीटनाशक कंपनी और नेताओं के गठजोड़ का बेशर्म खुलासा करते हुए कहता है कि बहुत से कृषि वैज्ञानिक कीटनाशक लॉबी की दलाली कर रहे हैं। जहर का यह नेटवर्क बहुत बड़ा है। इससे मिलने वाला पैसा राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, बहुत से डॉक्टरों और कृषि विभाग के बहुत से अधिकारियों की जेबें गर्म करता है। यही वजह है कि इन लोगों द्वारा कीटनाशक कंपनी के पक्ष में तमाम दलीलें और शोध किए जा रहे हैं।

अंबिकासूतन मांगड ने मूलत: मलयालम में “स्वर्ग” को लिखा है जिसे जे देविका ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। अंबिकासूतन ने जिस संघर्ष पर यह उपन्यास रचा है, उसमें वह खुद भी शरीक रहे हैं। इसीलिए कहानी को बेहद गंभीरता से उन्होंने पिरोया है। “स्वर्ग” सिर्फ एंडोसल्फान के विरोध में खड़े हुए आंदोलन को ही पाठकों के सामने नहीं रखता, बल्कि देशभर में कृषि पैदावार को बढ़ाने के लिए अंधाधुंध इस्तेमाल किए जा रहे कीटनाशकों पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है।

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ग्रामीण विकास : सिद्धांत, नीतियां एवं प्रबंध:
कटार सिंह
सेज भाषा| 419 पृष्ठ | Rs 395
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