शुष्क क्षेत्रों में सूखा एवं तापमान सहन करने में सक्षम फसलों की संकर किस्मों का उपयोग किया जाए तो जलवायु परिवर्तन के असर को कम किया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन का असर फसल उत्पादन पर भी बड़े पैमाने पर पड़ रहा है। यदि शुष्क क्षेत्रों में सूखा एवं तापमान सहन करने में सक्षम फसलों की संकर किस्मों का उपयोग किया जाए तो पैदावार पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के असर को कम किया जा सकता है। भारतीय शोधकर्ताओं के एक ताजा अध्ययन में यह बात उभरकर आई है।
अध्ययन में फसल के पकने की अवधि, उत्पादन क्षमता, सूखा, तापमान एवं कार्बनडाईऑक्साइड के बढ़ते स्तर को सहन करने की क्षमता का मूल्यांकन किया गया है। भविष्य के खाद्यान के रूप में बाजरे की उपयोगिता को देखते हुए उसकी उन्नत एवं संकर किस्मों के साथ-साथ कई मानक फसल मॉडल तैयार किए जा रहे हैं। इस शोध के लिए वैज्ञानिकों ने सीएसएम-सीईआरईएस पर्ल मिलेट नामक मॉडल का उपयोग कर एक नया मानक मॉडल तैयार किया है।
अध्ययन में भारत और पश्चिम अफ्रीका के शुष्क और अर्द्धशुष्क उष्ण-कटिबंधीय कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्रों के रूप में आठ स्थानों को शामिल किया गया था। भारत के शुष्क क्षेत्रों के अंतर्गत हिसार, जोधपुर एवं बीकानेर और अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में जयपुर, औरंगाबाद और बीजापुर को शामिल किया गया था। जबकि, पश्चिम अफ्रीका के सादोर (नाइजर) और सिन्जाना (माली) में यह अध्ययन किया गया है।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार “जलवायु परिवर्तन के फसलोत्पादन पर पड़ने वाले खतरों को देखते हुए बाजरे की पैदावार बढ़ाने में विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग संकर किस्मों का उपयोग प्रभावी हो सकता है।”
मौजूदा जलवायु परिस्थितियों में अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में सूखा सहिष्णु किस्मों की पैदावार में कमी दर्ज की गई है। वैज्ञानिकों के अनुसार, बदलती जलवायु परिस्थितियों में शुष्क व अर्द्धशुष्क जलवायु वाले स्थानों पर जल्दी पकने वाली किस्मों से पैदावार कम होने का खतरा है। हालांकि, अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में लगभग दस प्रतिशत लंबी अवधि में पकने वाली फसल प्रजातियों के उपयोग से पैदावार बढ़ाई जा सकती है। वहीं, शुष्क व अर्द्धशुष्क दोनों क्षेत्रों में अधिक उत्पादन क्षमता वाली संकर किस्मों की पैदावार में वृद्धि का अनुमान है। दूसरी ओर शुष्क जलवायु वाले गर्म क्षेत्रों में तापमान सहिष्णु संकर किस्मों के उत्पादन में 13-17 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है।
अध्ययन में जलवायु परिवर्तन की मौजूदा और वर्ष 2050 तक की भावी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर पहली बार किसी फसल में अनुवांशिक सुधार पर विचार किया गया है। हैदराबाद स्थित इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी एरिड ट्रॉपिक्स (इक्रीसेट) के वैज्ञानिकों ने अमेरिका की फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर यह अध्ययन किया है। इसके लिए वर्ष 1980 से 2010 और वर्ष 2030 से 2050 की अवधि अनुमानित दैनिक मौसम के आंकड़ों का उपयोग किया गया है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में प्यारा सिंह, के.जे. बूटे, एम.डी.एम. कड़ीयाल, एस. नेदुमारन, एस.के. गुप्ता, के. श्रीनिवास, एम.सी.एस. बेंटिलन शामिल थे। यह शोध वैज्ञानिक पत्रिका साइंस ऑफ द टोटल एन्वायरमेंट में प्रकाशित हुआ है।
(इंडिया साइंस वायर)
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