Agriculture

ऐसे रुक सकती हैं किसानों की आत्महत्याएं

मनोवैज्ञानिक किसानों को आत्महत्या करने से रोक सकते हैं, लेकिन वे पर्याप्त संख्या में सरकारी योजनाओं से नहीं जुड़े हैं

 
By Ishan Kukreti
Published: Tuesday 21 May 2019

श्रृति नाइक एक मनोवैज्ञानिक हैं और किसान मित्र हेल्पलाइन के लिए काम करती हैं। पिछले साल 15-16 अगस्त को तेलंगाना में बाढ़ के तुरंत बाद उन्हें एक फोन आया। फोन करने वाला एक दुखी किसान शिवन्ना था। वह एक छोटा कपास किसान है। बाढ़ ने उसकी फसल को तबाह कर दिया था। इस नुकसान से भविष्य को लेकर वह इतना भयभीत हो गया कि कीटनाशक पीकर जान देने के लिए तैयार हो गया था।

नाइक बताती हैं, “गनीमत रही कि जहर पीने से पहले पड़ोसियों ने उसे देख लिया और हमें फोन करने के लिए बाध्य किया।” हालात की गंभीरता को देखते हुए तुरंत कार्रवाई की गई। नाइक लगातार किसान शिवन्ना से बात करती रहीं जबकि एक किसान मित्र फील्ड कॉर्डिनेटर मामले में दखल देने के लिए तुरंत मौके पर भेज दिया गया।

नाइक ने डाउन टू अर्थ को बताया, “हमने समय पर मामले में हस्तक्षेप किया। एक स्थानीय कृषि अधिकारी को साथ लेकर हम शिवन्ना से मिलने पहुंचे। हमने उसे जिलाधिकारी से भी मिलवाया। जिलाधिकारी ने शिवन्ना को उस भूमि का पैसा दिलवाने में मदद की जो उसने बेची थी। साथ ही एक ऑटो रिक्शा को खरीदने के लिए वित्तीय मदद भी दी। तब से उसकी हालत ठीक है।” पहले इस तरह के उपाय न होने के कारण किसान मित्र की शुरुआत की गई थी ताकि संघर्ष कर रहे किसानों को समय रहते मदद मुहैया कराई जा सके।

सरकार ने किसान आत्महत्या के मामलों पर चुप्पी साध रखी है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 2015 से किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को अपडेट नहीं किया है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2015 में 8,007 किसानों और 4,595 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की। कायदे से एनसीआरबी का आंकड़ा हर साल अपडेट होना चाहिए। 2016 और 2017 का आंकड़ा जारी न करना दर्शाता है कि किसान आत्महत्या और उनके विरोध प्रदर्शनों को सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली है। हालांकि कुछ लोग और संगठन जमीन पर काम कर रहे हैं ताकि किसान आत्महत्या को रोकने में आवश्यक दखल दिया जा सके।

मनोवैज्ञानिक पहल

मनोवैज्ञानिक सहायता उन राज्यों की एक ऐसी नई पहल है जो किसान आत्महत्या से जूझ रहे हैं। महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में सोसायटी फॉर रूरल एंड अर्बन जॉइंट एक्टिविटी (सृजन) 2005 से ही किसानों के मामलों में जमीनी स्तर पर काम कर रही है। यह गैर लाभकारी संगठन समुदाय आधारित भरोसेमंद सपोर्ट सिस्टम बनाने की वकालत करता है। साथ ही मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग पर जोर देता है। सृजन से जुड़ीं योगिनी डोल्के बताती हैं, “इसके पीछे विचार यह है कि संकट की घड़ी में किसान को यह महसूस न होने दिया जाए कि वह बिल्कुल अकेला है। हम किसानों के साथ बैठक करके उन्हें मानसिक स्वास्थ्य जैसे अवसाद के प्रति संवेदनशील बनाते हैं।”

वह आगे बताती हैं कि जहां एक ओर सामुदायिक मदद महत्वपूर्ण है, वहीं दूसरी तरफ गंभीर मामलों में मनोवैज्ञानिकों के दखल की भी जरूरत है। उनके अनुसार, “2005 में जब हमने काम शुरू किया, तब हमारे पास अपने मनोवैज्ञानिक थे जो काउंसलिंग के लिए सप्ताह में एक बार आते थे। लेकिन 2015 में प्रेरणा योजना की शुरुआत के बाद हमने सरकारी मनोवैज्ञानिकों पर निर्भर होने का फैसला किया।” प्रेरणा योजना महाराष्ट्र सरकार द्वारा शुरू की गई एक हेल्पलाइन है। इसका मकसद आत्महत्या करने वाले किसानों की मानसिक स्थिति का पता लगाना है। संकटग्रस्त किसान इस हेल्पलाइन नंबर पर फोन करके मनोवैज्ञानिक की मदद मांग सकते हैं।

डोल्के का कहना है, “यह योजना लॉन्च होने के बाद एक साल तक तो ठीक-ठाक चली लेकिन अब यह काम नहीं कर रही है। मार्च 2018 के बाद यवतमाल के जरी ब्लॉक में प्रेरणा योजना के तहत किसी मनोवैज्ञानिक का दौरा नहीं हुआ।”

महाराष्ट्र सरकार के अधिकारी इस मामले में टिप्पणी करने से इनकार करते हैं लेकिन डोल्के का कहना है कि योजना के तहत काम करने के लिए पर्याप्त मनोवैज्ञानिक ही नहीं हैं। उनके मुताबिक, “योजना कुछ जिलों में काम कर रही है लेकिन वहां केवल एक मनोवैज्ञानिक और आठ से नौ लोगों की टीम है। और वे भी प्रशिक्षित नहीं हैं। हालत यह है कि उनके बहुत से पद खाली पड़े हैं।”

2005 में महाराष्ट्र सरकार ने किसान आत्महत्या और इसे बढ़ावा देने में मनोविज्ञान की भूमिका का पता लगाने के लिए एक अध्ययन कराया था। इस अध्ययन के शोधकर्ताओं में पीबी बेहरे भी शामिल थे। उस समय वह वर्धा स्थित महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस के मनोचिकित्सा विभाग से संबद्ध थे। वह बताते हैं, “हमने पाया कि आत्महत्या की कोशिश में विफल रहने वाले बहुत से लोगों ने कहा कि वे दोबारा आत्महत्या पर विचार कर रहे हैं।” बेहरे मानते हैं कि इस समस्या का समाधान आत्महत्या की रोकथाम पर राष्ट्रीय नीति बनाकर किया जा सकता है।

इसका उदाहरण देते हुए वह बताते हैं, “ब्रिटेन में ऐसी नीति मौजूद है। इस नीति के तहत वहां खतरनाक कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाया गया है और बंदूक को पहुंच से बाहर कर दिया गया है। हम चीन के नक्शेकदम पर भी चल सकते हैं जहां छोटे और सीमांत किसानों को ब्याजमुक्त अथवा निम्न दरों पर कर्ज दिया जाता है। श्रीलंका में भी एक बेहद अच्छी नीति अपनाई गई है जहां कृषि कर्ज का उपयोग केवल कृषि में किया जाता है। किसान उस पैसे का प्रयोग शादी आदि में नहीं कर सकते।”

तेलंगाना में भी हालात बेहतर नहीं हैं। यहां किसान मित्र योजना शुरू की गई है जो इस समय क्रियाशील भी है। किसान आत्महत्या के मामले में यह राज्य महाराष्ट्र के बाद दूसरे स्थान पर है। सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर (सीएसए) ने मीडिया में छपी खबरों, स्वयंसेवकों से प्राप्त सूचनाओं और रूझानों के आधार पर आत्महत्या के आंकड़े एकत्रित किए हैं।

अंदर की कहानी

यह तथ्य है कि इस तरह के असंगठित तंत्र का बनना एक बार फिर यह दर्शाता है कि आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। सीएसए के कार्यकारी निदेशक जीवी रामाजनेयुलू का कहना है, “हमारा आंकड़ा स्पष्ट रूप से बताता है कि आत्महत्याएं बढ़ रही हैं।” वह आगे कहते हैं, “दिक्कत यह है कि सरकार समस्या को स्वीकार करने को तैयार नहीं है क्योंकि इससे नीतियों की असफलता उजागर होती है।” अप्रैल 2017 से किसान मित्र के जरिए करीब 4,000 किसानों को मदद मिली है। टोल फ्री हेल्पलाइन (18001203244) में शिकायतों, समस्याओं को सुनने के साथ किसानों को उनका समाधान सुझाया जाता है।

उनके अनुसार, करीब 60 प्रतिशत फोन किसी न किसी तरह जमीन से संबंधित होते हैं। चाहे वह सरकारी योजनाओं से जुड़े हों अथवा बीमा या कर्ज से। रामाजनेयुलू कहते हैं, “अगर आपके नाम से जमीन पंजीकृत नहीं है तो आपको कोई सेवा नहीं मिलेगी, भले ही आपके पास तिल भर जमीन हो। कर्जमाफी के लिए यही स्थिति है।”

किसान मित्र आदिलाबाद, विकाराबाद और मंचेरियल जिलों में प्रशासन की मदद से काम कर रहा है। वह बताते हैं, “इन तीन जिलों में प्रशासन का अपेक्षित सहयोग मिलता है क्योंकि हम उनके साथ काम कर रहे हैं लेकिन अन्य जिलों में हम शिकायतों को आगे प्रेषित कर देते हैं। यह प्रशासन के ऊपर है कि वह इन पर कार्रवाई करे।” 2018 के खरीफ के मौसम में जब कपास की कीमतें गिर गई थीं, तब भी किसान मित्र के दखल के बाद जिला प्रशासन ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की थी।

रामाजनेयुलू को लगता है कि परेशान किसानों से जूझते समय संवाद बेहद अहम होता है। उनके मुताबिक, “किसानों से बात करने के लिए कोई नहीं होता। मुख्यत: इसी वजह से किसानों का असंतोष खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है। सबसे पहले हमें यह भरोसा दिलाना होगा कि हम उनके साथ हैं। हमें उनकी समस्याओं पर बात करनी होगी और समाधान के लिए नीति निर्माताओं को समय पर दखल देना होगा।”

भले ही राज्यों ने आत्महत्या के मानसिक पहलुओं को देखने के लिए हेल्पलाइन स्थापित की हों, फील्ड पर विशेषज्ञ हों और आत्महत्या रोकने के लिए अध्ययन कराए हों, लेकिन मनोविज्ञान से आगे बढ़कर नीतियों में कृषि संकट से निपटने के लिए राज्य का दखल जरूरी है।

इंडियन जर्नल ऑफ सायकाइट्री में 2017 में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, “कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में प्रमाण मिले हैं कि किसानों की आत्महत्या में मानसिक विकारों से अधिक योगदान सामाजिक-आर्थिक चिंताओं का है। अध्ययनों में यह पता नहीं चला है कि आत्महत्या के पीछे मानसिक रोग हैं। इन अध्ययनों और अन्य आंकड़ों से पता चलता है कि सामाजिक और आर्थिक तंगहाली आत्महत्या के मूल में है।” सेवाग्राम स्थित महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस ने जनवरी 2005 से मार्च 2006 के बीच महाराष्ट्र के वर्धा में आत्महत्या करने वाले किसानों का अध्ययन कराया था। अध्ययन में पाया गया था कि आत्महत्या को केवल मानसिक स्वास्थ्य से जोड़कर नहीं देखा जा सकता।

एक अन्य अध्ययन फार्मर्स सुसाइड इन विदर्भ रीजन ऑफ महाराष्ट्र स्टेटः ए मिथ ओर रिएलिटी के अनुसार, “आत्महत्या में बहुत से कारक भूमिका निभाते हैं, जैसे, किसानों द्वारा पुराना कर्ज और वर्षों तक ब्याज अदा न कर पाने की असमर्थता, आर्थिक हालात खराब होने से पैदा होने वाले पारिवारिक विवाद, अवसाद व नशा, आत्महत्या के बाद मिलने वाले मुआवजे से परिवार को कर्ज चुकाने में मदद, कम उपज, कृषि की बढ़ती लागत और उपज की गिरती कीमतें।

कृषि संकट और किसान आत्महत्या की समस्या के समाधान के लिए विस्तृत समझ की जरूरत है, केवल दिखावटी और छुटपुट प्रयास बदलाव से हालात नहीं बदलने वाले। दिल्ली और मुंबई में लगातार पहुंचने वाले किसान अपने असंतोष की चेतावनी दे रहे हैं। वे भी जीना चाहते हैं और हमें उन्हें महज के एक आंकड़े के रूप मृत्यु रजिस्टर में दर्ज होने को मजबूर नहीं करना चाहिए।

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