Governance

नागरिक का भीड़ बन जाना

2014 में ऐतिहासिक रूप से बहुमत लाकर मोदी की अगुआई में राजग सरकार के आते ही नफरत के बोलों का सिलसिला शुरू हो गया था

 
By Anil Ashwani Sharma
Published: Friday 30 June 2017

Credit: Shital Vermaहमारे नाम पर नहीं...। दिल्ली सहित देश भर में नागरिक जमात ने भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं के खिलाफ आवाज उठाई तो इसका असर दूर तक गया। अमेरिका से मीडिया से दोस्ताना रिश्ते की उपाधि लेकर लौटे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साबरमती आश्रम के सौ साला जश्न में इस पर बरती जा रही लंबी चुप्पी को तोड़ना पड़ा। उन्होंने कहा कि गौरक्षा के नाम पर हो रही हत्याएं सही नहीं हैं।

2014 में ऐतिहासिक रूप से बहुमत लाकर मोदी की अगुआई में राजग सरकार के आते ही नफरत के बोलों का सिलसिला शुरू हो गया था। कांग्रेस सरकार की नाकामियों के बरक्स विकल्प के रूप में सत्ता पाई भाजपा सरकार को लग रहा था कि वह हिंदुत्व का वोट बैंक लेकर ही सत्ता में आई है और हिंदुस्तान की सियासत में पहली बार सत्ता के केंद्र से कई प्रतिनिधियों के स्वर सुनाई दिए कि मुसलमान हमें वोट नहीं देते या फिर हमें मुसलिम वोटों की जरूरत नहीं है। हिंदू वोटों के बरक्स मुसलमान वोटों को कमतर साबित करने का संदेश समाज के आखिरी छोर तक गया और हिंदुओं के सामने मुसलिम कौम एक दुश्मन के रूप में खड़ी कर दी गई।

और इस नफरत का पहला असर देखा गया दादरी में मोहम्मद अखलाक की हत्या के रूप में। भीड़ सिर्फ इस शक में कि अखलाक और उसके परिजनों ने गोमांस खाया है उसकी पीट-पीट कर हत्या कर दी। खान-पान को लेकर चल रहे फतवे के बाद यह इस तरह की पहली हत्या थी और नागरिक जमात ने इसका पुरजोर विरोध भी किया। साहित्याकारों ने अपने पुरस्कार वापस किए जिसे सरकार ने कागजी क्रांति कहकर खारिज कर दिया। उस बार भी प्रधानमंत्री बहुत देर से इस पर बोले थे जिसे ‘कमजोर शब्द’ करार दिया गया था।

भीड़ के इस कृत्य को सरकार के कमजोर शब्दों ने और मजबूत कर दिया था। पुणे में मोहसिन शेख भीड़ के हाथों मारे जाते हैं। भीड़ द्वारा हत्या की फेहरिश्त लंबी होती जा रही थी और कश्मीर में अयूब पंडित और दिल्ली से फरीदाबाद के रास्ते में जुनैद का ट्रेन में मारा जाना उसका चरम था। अब भीड़ सिर्फ इसलिए मारने लगी क्योंकि आपके नाम के अंत में पंडित है या आपका नाम जुनैद है। न्याययविद फली एस नरीमन सरकार के व्यवहार पर चेतावनी देते हुए 2015 में ही कहा था कि सरकार के लोग ऐसा संदेश दे रहे हैं कि वे सिर्फ हिंदू हैं इसलिए उन्हें सत्ता मिली है। समाज के सैन्यीकरण की मानसिकता पर सवाल उठने तो लगे लेकिन सरकार ने सुनना शुरू नहीं किया था। मोहम्मद अखलाक की हत्या के आरोपी का शव तिरंगे में लिपटा ग्रामीणों के दर्शनार्थ था तो मोहसिन शेख की हत्या की सुनवाई कर रहीं जज साहिबा कहती हैं कि लोगों की मोहसिन से कोई दुश्मनी नहीं थी। गलती उसके धर्म की थी। 

जब सत्ता और अदालत से चली धर्म की गलती का जुमला बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से जूझते आम आदमी के पास पहुंचता है तो वह इसी धर्म की रक्षा का झंडा उठा लेता है। उसके हाथ में  स्मार्टफोन है और नि:शुल्क डाटा है, लेकिन दिमाग में वह विवेक नहीं है जो सोशल मीडिया पर फैले झूठ और सच के बीच फर्क कर सके। वह अपने दायरों के हिसाब से ही सच को चुनता है और अचानक से उसे अहसास होता है कि उसका धर्म और उसका राष्ट खतरे में है। आधार कार्ड के बिना राष्ट्र उसे नागरिक मान भी रहा है कि नहीं यह सब भूल वह फोटोशॉप वाले खतरे के खिलाफ योद्धा बन जाता है। उस आम आदमी के हाथ में काम नहीं है और तकनीक का अधकचरा ज्ञान है। और वह आस्था का झंडा उठा कर उस व्यक्ति को सड़क से लेकर ट्रेन तक में पीटने लगता है जिसे उसके धर्म का दुश्मन बताया गया है। यह दुश्मन टोपी से लेकर मेरा नाम खान है जैसे प्रतीकों में है।

आज दुनिया भर के समाज अलग-अलग ढंग के असमानता और शोषण को झेल रहे हैं और मुक्ति के लिए विकल्प भी तलाशते हैं। इस विकल्प में मोदी-ट्रंप जैसी सरकारें भी आती हैं। लेकिन इनके पास भी नवउदारवाद के थपेड़ों से बचाने के लिए अच्छे दिन आएंगे के अलावा कोई जुमला नहीं है इसलिए ये अपनी जनता को धर्म और राष्ट की रक्षा का आभासी सा काम सौंप देते हैं। और, जनता इस आभासी दायित्व में एक भीड़ बनकर इंसानों को जिंदा से मुर्दा बनाने में भी परहेज नहीं करती है। और आप नागरिक से भीड़ बन चुके लोगों को साबरमती से संतनुमा उपदेश देते हैं तो क्या वे सुनेंगे?

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