पंजाब के दलित एकजुट होकर मजबूत तबके से लोहा ले रहे हैं और तमाम उतार-चढ़ाव के बाद हक की लड़ाई जीत भी रहे हैं
सामुदायिक संसाधनों पर नियंत्रण को लेकर पंजाब में पांच साल से निरंतर सामूहिक संघर्ष चल रहा है। यह पूरे देश के लिए मिसाल बन रहा है। देश के गरीब और वंचित तबके की जिंदगी में सामुदायिक संसाधन दो जून की रोटी का बंदोबस्त करने में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन इस महत्वपूर्ण संसाधन पर समाज के मजबूत तबके की नजर है। पंजाब के दलित एकजुट होकर इस तबके से लोहा ले रहे हैं और तमाम उतार-चढ़ाव के बाद हक की लड़ाई जीत भी रहे हैं।
जनवरी की हाड़ कंपाती सर्दी और पंजाब की सुबह। करीब 5 बजे का वक्त। संगरूर जिले के बालदकलां गांव में ज्यादातर लोग नींद की गिरफ्त में थे पर बंत कौर उठ चुकी थीं। पचास की उम्र पार कर चुकीं विधवा बंत कौर हड़बड़ी में इधर-उधर दौड़कर रोजमर्रा के कामों को तेजी से निपटा रही थीं। उन्हें आठ बजे तक भैंस को खिला-पिलाकर दुहना था, खुद और पंद्रह साल के बेटे के लिए भोजन भी तैयार करना था। यह सब करने के बाद मजदूरी करने जाना था। भैंस दुहने के बाद वह दूध गर्म करने और रोटी बनाने चूल्हे के पास बैठ गईं। वह काम करते हुए ही डाउन टू अर्थ से बात कर लेना चाहती थीं क्योंकि अलग से समय निकाल पाना उनके लिए मुश्किल है। थोड़ी ही देर में उनका भोजन तैयार हो गया और वह वहीं चूल्हे के सामने बैठकर रोटी दूध खाने लगीं। उनको खाने में भी हड़बड़ी थी पर चेहरे पर काम निपटा लेने का सुकून भी था।
यह पूछने पर कि इतना काम करने से थकान नहीं होगी, बंत कौर उलट कर पूछ बैठीं कि और इसके अलावा चारा क्या है? पति गोपाल सिंह की मृत्यु 2011 में हो चुकी है। इस सदमे से परिवार उबर पाता, इससे पहले ही उनका 23 साल का एक बेटा 2013 में किसी अज्ञात बीमारी की वजह से गुजर गया। घर चलाने की जिम्मेदारी अब अकेले उन पर ही है। उनका कहना था, “दो पेट का भोजन जुगाड़ना और इज्जत की जिंदगी जीनी है तो काम करना ही होगा।” इतना कुछ होते हुए भी वह खुश हैं कि घर का सारा काम करने के बाद वह मजदूरी करने के लिए समय निकाल लेती हैं। इस साल उनको महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के तहत दूसरे दिन काम मिला है। 2018 में कुल सोलह दिन काम मिला था। अगर मनरेगा के तहत काम नहीं मिलता तो ईंट की भट्टी या किसी निर्माणाधीन मकान पर मजदूरी कर लेती हैं।
उनके हिसाब से हमेशा ऐसा संभव नहीं था। घर चलाने की जद्दोजहद में वह दिन भर भैंस के लिए चारा ढूंढती रह जाती थीं। उन्हें भैंस रखना इसलिए भी जरूरी लगता है क्योंकि वह इससे न केवल बच्चे का स्वास्थ्य सुनिश्चित कर लेती हैं बल्कि कुछ दूध बेचने से एक निश्चित आय भी हो जाती है लेकिन भैंस रखकर मजदूरी करना बड़ी चुनौती थी।
उनके ही शब्दों में, “2014 के पहले मैं घंटों एक खेत से दूसरे खेत चारे के लिए घूमती रहती थी। कभी-कभी खाली हाथ लौटना पड़ता था। सब कुछ इस पर तय होता था कि खेत मालिक अपने खेत में घास काटने की इजाजत देता है कि नहीं। दिन अगर बहुत अच्छा हुआ तो कोई खेत मालिक अपने खेत से चारा काटने की इजाजत देता था। उसके लिए दस बोझ चारा काटो तो खुद के लिए भी एक बोझ मिल जाता था। अगर यह सब नहीं हुआ तो दूर-दूर तक घूमकर ऐसी जगह खोजनी होती थी जहां घास उगी हो, जैसे नाली या सड़क के किनारे। इन सबमें पूरा दिन निकल जाता था और काम के बारे में तो सोचना संभव ही नहीं था लेकिन 2015 के बाद स्थिति बदल गई।” उनका इशारा उस संघर्ष की तरफ है जिसके बाद उनको कृषि के उद्देश्य से पंचायत की भूमि मिल गई। उनके गांव के दलित समुदाय के लोगों ने मिलकर संघर्ष किया और पंचायती जमीन के एक तिहाई हिस्से पर खेती करना शुरू कर दिया।
पंजाब कॉमन लैंड्स रेगुलेशन एक्ट 1961 के अनुसार, 33 प्रतिशत पंचायत जमीन जिसे स्थानीय भाषा में शामिलात (सामूहिक, सामुदायिक भूमि अथवा िवलेज कॉमन्स) कहते हैं, दलितों के लिए सुरक्षित है। पंचायत हर साल इस भूमि के लिए बोली लगवाती है और जो सबसे बड़ी बोली लगाता है उसे वह भूमि एक साल के लिए दे दी जाती है। नए साल में यह प्रक्रिया पुनः शुरू की जाती है। पिछले साल की नीलामी राशि से पांच प्रतिशत अधिक राशि से बोली शुरू की जाती है। नियम के अनुसार, कुल जमीन का 33 प्रतिशत दलितों के पास जाना चाहिए। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है।
पंजाब विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर पम्पा मुखर्जी इस विषय पर काम करती रही हैं। उनका कहना है कि पंजाब के करीब 13,000 गांवों में कुल 1,70,033 एकड़ (68,013 हेक्टेयर) सामुदायिक जमीन है (देखें, बड़ी जमीन, बड़ा मामला, पेज 32)। मुखर्जी ने सूचना के अधिकार के तहत यह पता किया कि राज्य में दलित इस जमीन का 52,000 एकड़ (20,800 हेक्टेयर) भूमि का इस्तेमाल करते हैं। दलितों के नाम पर भूमि है पर उस पर खेती कोई और करता है। पंजाब विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर रोनकी राम वंचित समुदाय के लिए काम करते रहे हैं। उनका कहना है कि पंजाब में दलितों की बड़ी आबादी है। राज्य की जनसंख्या का 31.94 प्रतिशत दलित हैं पर उनके नियंत्रण में महज 3.2 प्रतिशत जमीन ही है।
इसी स्थिति के मद्देनजर इस समुदाय को नीतियों में खास तरजीह मिली। मसलन, नजूल भूमि दलितों के बीच ही बांटी गई। ऐतिहासिक तौर पर वह भूमि नजूल की कही जाती है जिसके मालिक आजादी के समय पाकिस्तान चले गए। सरकार ने यह जमीन स्थानीय लोगों में सहकारी समिति बनाकर बांट दी। राज्य के नौकरियों में भी दलितों को 25 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। अन्य राज्यों के मुकाबले दस प्रतिशत अधिक है। इसी क्रम में पंचायत की जमीन पर प्रत्येक साल होने वाले बंटवारे में 33 प्रतिशत जमीन भी दलितों के लिए आरक्षित की गई थी। कहने की जरूरत नहीं है कि दलितों के उत्थान को ध्यान में रखकर दी गई ये कानूनी सहूलियत कागज पर ही सिमटकर रह गई है। दलित किसानों के लिए आरक्षित कृषि योग्य भूमि को अब तक राज्य का मजबूत समूह जट्ट सिक्ख समुदाय ही नियंत्रित करता रहा है। दलित समुदाय के लोग इस रसूखवाले तबके के आगे आरक्षित जमीन की मांग भी नहीं कर पाते।
लेकिन स्थिति अब बदली नजर आ रही है। खासकर पंजाब के संगरूर जिले में जहां कई गांव में इस भूमि पर दलितों के नियंत्रण के लिए आंदोलन हुए। बंत कौर का गांव बालदकलां इस आंदोलन का केंद्र है। जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के बैनर तले शुरू हुआ यह आंदोलन जिले के करीब 40 गांव में फैल चुका है। इसके साथ ही पड़ोस के पटियाला जिले के 10 गांव में भी दलितों ने इस एक तिहाई जमीन पर कब्जा कर लिया है। इस आंदोलन ने बंत कौर जैसे बहुत से लोगों को इज्जत से अपनी आजीविका कमाने में मदद की है। भूमि मिलने के बाद कौर के घर की अर्थव्यवस्था सुचारू रूप से चलने लगी है। वह 45 रुपए लीटर के भाव से दिन में चार लीटर दूध बेचती हैं जिससे उनको प्रतिदिन 180 रुपए की आय हो जाती है। इसके अतिरिक्त वह महीने में करीब बीस दिन मजदूरी भी कर लेती हैं। बकौल बंत कौर, “जब से हमें जमीन पर कब्जा मिला है, हमारा जीवन काफी आसान हो गया है। अब हमें किसी की गाली नहीं सुननी पड़ती। गांव के जमींदार लोगों से प्रताड़ित नहीं होना पड़ता। बेगारी करने की नौबत भी नहीं आती।”
साझी लड़ाई
इस संघर्ष की शुरुआत कब और कहां हुई यह जानना थोड़ा मुश्किल है। जितने मुंह उतनी बात। जमीन बचाओ संघर्ष समिति और क्रांतिकारी पेंदु मजदूर संघ दोनों ही ऐसे आंदोलन में लगे हैं और सबके अपने दावे हैं। पर सब लोग इस बात पर सहमत दिखते हैं कि यह संघर्ष 2014 में हुए बालदकलां आंदोलन से ही चर्चा में आया। कुछ छिटपुट घटनाएं होती रहती थीं जिसमें दलित पंचायत भूमि पर खेती का दावा करते थे। इसी से प्रभावित होकर इस गांव के दलितों ने सालाना होने वाले भूमि नीलामी में भाग लेने का निर्णय लिया।
दलित समुदाय के लोगों को यह मालूम था कि वे अकेले अमीर और ताकतवर जट्ट समुदाय से जीत नहीं सकते। इसलिए उन्होंने नया तरीका ईजाद किया। सभी दलित परिवारों ने चंदा इकठ्ठा किया और इकठ्ठा नीलामी में भाग लेने की घोषणा की। चूंकि 50 हेक्टेयर के करीब भूमि दाव पर थी जिसे अब तक जट्ट समुदाय ही इस्तेमाल करता आया था। उसके लिए यह आसानी से पचाने वाली बात नहीं थी। एक 60 वर्षीय किसान अजायब सिंह बताते हैं कि दलितों के साझे तरीके के बोली से बचने के लिए खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) के ऑफिस में बंद कमरे में नीलामी की पूरी प्रक्रिया निपटा ली गई। लेकिन कमिटी ने नीलामी को मानने से इनकार कर दिया और लोग आंदोलन करने लगे। मुद्दा यह था कि जट्ट समुदाय के लोग डमी उम्मीदवार खड़ाकर दलितों के लिए आरक्षित जमीन हथिया लेते थे और खुद खेती करते थे।
पंजाब में आमतौर पर रसूखदार लोग डमी उम्मीदवार खड़ा करते हैं और उनके बदले खुद पैसा लगाते हैं। प्रोफेसर रोनकी राम कहते हैं, “राज्य में एक सीरी परंपरा है। यहां लगभग हर रसूखदार के घर से एक दलित परिवार जुड़ा रहता है। कभी किसी मुश्किल समय में कमजोर वर्ग के लोग कर्ज ले लेते हैं और बदले में अपना पूरा जीवन अमीरों के घर गिरवी रख देते हैं। पुरुष उनके घर की खेती का बोझ संभालता है और महिला पशुओं के खिलाने-पिलाने का काम करती हैं। बदले में रसूखदार कुछ पैसा दे देते हैं। इन्हीं लोगों को ये जट्ट लोग अपने डमी उम्मीदवार के तौर पर नीलामी में खड़ा कर देते हैं।”
2014 में दलितों ने इसे मानने से इनकार कर दिया और बीडीओ ऑफिस के सामने धरने पर बैठ गए। उनकी मांग थी कि अधिकारी ऐसी व्यवस्था करें जिससे अधिक से अधिक दलित इसका इस्तेमाल कर सकें। उन्होंने सामूहिक बोली लगाने की इजाजत मांगी, पर उनकी मांग मानने के बजाय प्रशासन ने आंदोलनरत लोगों पर लाठीचार्ज करवा दिया। इसमें कई लोग घायल हुए। करीब 40 पुरुष और दो महिलाएं गिरफ्तार हुईं। महिलाओं को तो एक दिन बाद छोड़ दिया गया पर पुरुषों को दो महीने तक सलाखों के पीछे रहना पड़ा। उनके सगे संबंधियों ने जमानत कराने से इनकार कर दिया और खुद आंदोलन में शामिल हो गए। इसे देखते हुए प्रशासन को झुकना पड़ा और बिना जमानत के ही लोगों को छोड़ना पड़ा। लंबे संघर्ष के बाद दलित समुदाय को कुल 160 हेक्टेयर पंचायत जमीन के एक तिहाई हिस्से पर खेती करने का मौका मिला। भूमि का यह हिस्सा गांव के करीब 145 दलितों में बराबर बांट दिया गया।
आंदोलन के बाद मिली इस सफलता ने आसपास के गांवों को भी प्रेरित किया। कई और गांव भी बालदकलां के नक्शेकदम पर चलकर सामूहिक बोली लगाने लगे। बालदकलां से करीब पांच किलोमीटर दूर एक गांव है भरो। इस गांव के दलितों ने भी सामूहिक बोली लगाकर 11.6 हेक्टेयर जमीन पर खेती शुरू कर दी। इस गांव में कोई खास विरोध नहीं हुआ। गांव की कमिटी से जुड़े कृषण सिंह बताते हैं कि यह जमीन गांव के 180 दलित परिवारों में बराबर बांट दी गई।
इसके उलट कुछ गांव में दलितों को जबरदस्त हिंसा का सामना करना पड़ा। उदाहरणस्वरूप, बालदकलां से करीब पचास किलोमीटर दूर झलूर गांव को ही लें। इस गांव के दलित समुदाय से आने वाले बलविंदर सिंह बताते हैं कि ये लोग पंचायत की आरक्षित जमीन पर 2016 में कब्जा करने गए और वहीं 28 दिनों तक धरने पर बैठे रहे। 10 जून को पुलिस आई और उन्हें भगाने की कोशिश करने लगी। पुलिस ने कइयों को मारा और करीब 10 लोगों को गिरफ्तार कर ले गई। बाद में पुलिस को इन लोगों को भी बिना जमानत मांगे ही छोड़ना पड़ा लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। पांच अक्टूबर को दलितों के घरों पर हमला हुआ। लोग हथियारों से लैस होकर घरों में घुस गए और जो भी मिला उसे मारा-पीटा। पानी की टंकियां तोड़ दीं और कई तरह का नुकसान पहुंचाया। कुछ लोगों ने बलविंदर की मां पर एक गंडासे से हमला किया और उनका बांया पैर काट दिया। एक महीने तक अस्पताल में संघर्ष करने के बाद उस महिला का देहांत हो गया। लेकिन इस संघर्ष का नतीजा यह निकला कि दलित परिवारों को 7 हेक्टेयर जमीन खेती के लिए मिल गई।
इस संघर्ष से यह मुद्दा गरम हो गया और कई गांव में इसकी चर्चा होने लगी। वहां भी लोग अपने अधिकारों को लेकर जागृत हुए। ऐसा कहना है मुकेश मलौध का जो इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। मुकेश जमीन बचाओ संघर्ष समिति के अध्यक्ष हैं और कोर्ट ने उन्हें भगौड़ा घोषित कर रखा है। मुकेश पर भारतीय अचार संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत 28 मामले दर्ज हैं। इनमें से चार तो हत्या की कोशिश के हैं। खैर आंदोलन यहीं नहीं रुका। अब दलित समुदाय के लोगों के पास दूसरी चुनौती थी बोली लगाने के लिए लगने वाली बड़ी रकम की व्यवस्था कैसे हो। भरो गांव के विक्रम सिंह बताते हैं कि यह एक बड़ा मुद्दा था और इसीलिए दलित समुदाय के लोग अमीर जट्ट लोगों के सामने टिक नहीं पाते थे। इसके लिए भी संघर्ष शुरू हुआ और बालदकलां गांव ने फिर से झंडा उठाया। अन्य गांव भी इस संघर्ष में शामिल हुए। फिर से पुलिस आई और आंदोलनकारियों की पुनः गिरफ्तारी हुई पर आखिर में प्रशासन को झुकना पड़ा। प्रशासन ने नीलामी के लिए प्रति एकड़ बीस हजार रुपए तय किए।
गांव वालों के मुताबिक, वर्तमान में दलित इसी रकम पर बोली लगाते हैं जबकि सामान्य वर्ग के लिए बोली की रकम बढ़ते-बढ़ते 70 हजार रुपए पर पहुंच गई है। गांव वालों ने इस सफलता की कीमत चुकाई है। मुकेश का कहना है कि कम से कम 350 ग्रामीणों के खिलाफ भारतीय आचार संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत केस दर्ज हैं और वे आज भी न्यायालय का चक्कर लगाने को मजबूर हैं।
साझी जिम्मेदारी, साझा विकास
दलित समुदाय के लोगों ने मिलकर बोली लगाने का फैसला किया। यह भी तय किया कि खेती भी साझी ही की जाएगी। इसके लिए ग्रामीणों ने हर गांव में एक सहकारी समिति बनाई है। प्रत्येक समिति में 11 लोग सदस्य हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें खेती-किसानी में आनंद आता है और आगे बढ़ चढ़कर काम करने को इच्छुक हैं।
इस नीलामी से मिली जमीन को सारे दलित परिवारों में बराबर बांट दिया गया है। जैसे बंत कौर का ही उदाहरण लें। बोली लगाते समय उन्होंने 11,000 रुपए दिए थे और इनके हिस्से 0.32 हेक्टेयर जमीन मिली है। उनकी भाषा में उन्हें तीन बीघा जमीन मिली है। इस तीन बीघे जमीन में से आधा बीघा पर वह खुद खेती करती हैं और उसमें अपनी एकमात्र भैंस के लिए चारा उगाती हैं। बाकी जमीन पर सहकारी समिति ही खेती करती है। यही कहानी सारे गांव की है। इस सामूहिक खेती से होने वाली आमदनी में से अगले साल की बोली की रकम बचाकर शेष राशि को सभी में बराबर बांट दिया जाता है। बंत कौर को पिछले साल पांच क्विंटल गेहूं और एक ट्रॉली भूसा मिला। उनका कहना है कि 2018 में उपजाए धान से उनको हिस्सा मिलना अभी बाकी है। वह खुश हैं और बताती हैं कि एक गरीब परिवार के लिए यह बहुत बड़ी राहत है।
इस मॉडल से किसानों को न केवल मवेशियों की संख्या बढ़ाने में मदद मिली बल्कि खाद्य सुरक्षा भी मिली। भरो गांव की 48 साल की सिन्धेरपाल कौर के पास पहले एक भैंस थी और अब उनके पास तीन भैंसे हैं। वह पूरी तरह से दूध के व्यवसाय में लगी हुई हैं। इस आमदनी से उन्होंने दूध के व्यवसाय के लिए सभी जरूरी संसाधन जुटा लिए हैं, जैसे गांव से शहर तक दूध ले जाने के लिए गाड़ी इत्यादि। उनके गांव के सरपंच विक्रम सिंह कहते हैं कि पहले अगर कोई दूध के व्यवसाय में शामिल होना चाहता था तो उसे 15 हजार रुपए के हिसाब एक एकड़ जमीन मिलती थी वह भी महज तीन महीनों के लिए। अब सामूहिक जमीन की लागत ज्यादा से ज्यादा 3,500 रुपए आती है और वह भी साल भर के लिए।
इसके अलावा रोजगार का एक और बड़ा फायदा हुआ है। अगर खेती में मजदूरों की जरूरत पड़ी तो गांव के लोगों को ही काम दिया जाता है। इस तरह गांव के कई लोगों को साल में रोजगार भी मिल जाता है और वह भी कम से कम 300 रुपए रोजाना मजदूरी पर।
मामला अब भी जटिल
अभी यह देखा जाना बाकी है कि दलित समुदाय के द्वारा चलाया जाने वाला यह आंदोलन किस स्तर तक लोगों को फायदा पहुंचा पाता है पर बलादकलां गाव के लोगों के सामने एक और चुनौती आन खड़ी हुई है। पंजाब सरकार ने संगरूर और पास के अन्य जिलो में चार हजार एकड़ में औद्योगिक पार्क बनाने की घोषणा की है। 2017 के बजट में इसकी घोषणा हुई और 2018 के जनवरी में अधिकारी बालदकलां गांव में सर्वेक्षण के लिए आए। गांव वालों ने विरोध किया और उन्हें बैरन लौटना पड़ा। इस औद्योगिक पार्क में गांव की करीब 100 एकड़ सामुदायिक जमीन जानी है। यह जानकारी गांव के सरपंच गुरुदेव सिंह ने दी।
गांव का दलित समुदाय इसे साजिश मान रहा है। उनका कहना है कि उनका गांव पूरे राज्य के गांवों के लिए “रोल मॉडल” बनकर उभरा है। यह गांव प्रतीक बनकर उभरा और सरकार इस प्रतीक पर ही हमला करना चाह रही है ताकि अन्य गांव जो इस मॉडल को अपनाना चाहते हैं वे खौफ खाएं।
गांव में 65 साल के किसान जय सिंह कहते हैं कि सरकार ने लोगों को पहले लाठी से, फिर जेल से दबाने की कोशिश की पर सफल नहीं हो सकी। अब ये औद्योगिक पार्क का शिगूफा लेकर आए हैं। जय सिंह 2014 में दो महीने जेल में रहकर आ चुके हैं। 2016 में नीलामी की रकम कम करने के संघर्ष में उनके पुत्र सतपाल सिंह भी जेल जा चुके हैं। समिति के अध्यक्ष मुकेश कहते हैं कि वैसे तो अधिकारी लोग कहते हैं कि ग्राम सभा के सहमति से गांव की जमीन ली जाएगी पर सबको मालूम है कि ग्राम सभा की सहमति किस तरह ली जाती है। अपने लोगों से सहमति लेकर इसे पूरे गांव की सहमति बता दी जाएगी। मुकेश आगे कहते हैं कि सरकार को यह समझना होगा कि दलितों के लिए यह जमीन का टुकड़ा सिर्फ आर्थिक रूप से ही नहीं इज्जत से जिंदगी जीने के लिए भी बहुत जरूरी है और हम इसके लिए किसी हद तक संघर्ष करने के लिए तैयार हैं।
नजीर बना फैसला
वर्तमान में चल रहे संगरूर और पटियाला जिले के आंदोलन से इसका कोई सीधा वास्ता नहीं है पर पटियाला जिले के ही एक गांव के विवाद ने सामुदायिक संसाधन को लेकर पूरे देश में सरगर्मी बढ़ा दी थी। यह आठ साल पुरानी बात है। 28 जनवरी, 2011 को सर्वोच्च न्यायालय का एक चर्चित फैसला आया जिसमें पंचायत की जमीन से अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया गया था ताकि उस जमीन के टुकड़े को पूरा गांव-समाज इस्तेमाल में ला सके।
यह फैसला पटियाला जिले के जागीर रोहर गांव के जगपाल सिंह और देव सिंह के बीच विवाद पर आया था। इस विवाद की शुरुआत 2003 में हुई जब ग्राम सभा ने कलेक्टर के कार्यालय में एक शिकायत दर्ज कराई। यह शिकायत जगपाल सिंह के खिलाफ थी जिसमें कहा गया था कि वह पंचायत की जमीन पर घर का निर्माण करा रहे हैं। जिस जमीन पर निर्माण हो रहा था वह सरकारी रिकॉर्ड में गैर मुमकिन तोबा या तालाब के नाम से दर्ज थी। इस गांव में कुल 6.8 हेक्टेयर पंचायत की जमीन थी। नियम से सभी ग्रामीणों को तालाब को इस्तेमाल करने का अधिकार था। इसके बावजूद कलेक्टर ने अतिक्रमण करने वाले जगपाल सिंह के पक्ष में ही फैसला सुनाया।
इस फैसले के खिलाफ देव सिंह ने उपायुक्त के पास अपील डाली। जगपाल सिंह भी मानने को तैयार नहीं थे और वह खुद उच्च न्यायालय में चले गए और साथ में गृह निर्माण जारी रखा। न्यायालय ने सामुदायिक जमीन पर अतिक्रमण करने वाले जगपाल सिंह के खिलाफ फैसला सुनाया। खुद के द्वारा किए जा रहे अतिक्रमण को जायज ठहराने के लिए जगपाल सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए। यहां से जो फैसला आया वह न केवल पटियाला के जागीर रोहर गांव बल्कि पूरे देश के सामुदायिक संसाधनों के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने फैसला सुनाते हुए कहा कि हम सिर्फ इसलिए सामूहिक हित को नजरअंदाज नहीं कर सकते क्योंकि इसका अतिक्रमण कई सालों पहले हुआ है। अतिक्रमण को कभी जायज नहीं ठहराया जा सकता। सामुदायिक जमीन ग्राम सभा के अधीन होती है और पूरे समाज के हित की पूर्ति करती है।
सामुदायिक संसाधनों पर इस तरह का अतिक्रमण सिर्फ पटियाला जिले के एक गांव की कहानी नहीं है। ऐसा देश में बड़े स्तर पर होता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने पूरे देश में इस मुद्दे के प्रति सरकारों और लोगों को सजग करने में मदद की। इस पर बात करने से पहले सामुदायिक संसाधनों और इसके अतिक्रमण की कहानी जाननी जरूरी है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़
सामुदायिक संसाधन में चारागाह, वन भूमि, तालाब, नदियां और अन्य सिंचाई के स्रोत इत्यादि आते हैं और ये सब किसी भी गांव की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन सामुदायिक संसाधनों को पूरा समाज इस्तेमाल करता रहा है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय के अनुसार, सामुदायिक संसाधन देश के कुल क्षेत्र का 15 प्रतिशत हिस्सा रहा है और प्रत्येक पांच साल में करीब 1.9 प्रतिशत की दर से घटता रहा है। इसकी मुख्य वजह ताकतवर समुदाय और लोगों के द्वारा सामुदायिक संसाधन का अतिक्रमण कर निजी इस्तेमाल के लिए सुरक्षित रखना रहा है। 2011 में आए एक अनुमान के अनुसार, आजादी के बाद से 834,000 हेक्टेयर पंचायत जमीन का अतिक्रमण किया जा चुका है।
बारहवीं पंचवर्षीय योजना के एक कार्य समूह ने अनुमान लगाया था कि देश में सामुदायिक भूमि 4.87 से 8.42 करोड़ हेक्टेयर के बीच है। यह कार्य समूह प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और वर्षा आधारित कृषि के लिए बना था। इसके अनुसार, सामुदायिक भूमि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 15 से 25 प्रतिशत के बीच है। फाउंडेशन ऑफ इकोलॉजी सिक्युरिटी (एफईएस) का अनुमान है कि देश की बहुत बड़ी आबादी इस सामुदायिक भूमि पर निर्भर हैं (देखें, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के दूरगामी असर, पेज 38)। इसके अनुसार, 53 प्रतिशत घर कृषि, 69 प्रतिशत लोग अपने मवेशी के चारे, 62 प्रतिशत लोग घरेलू जरूरतों और मवेशियों के पानी के लिए 74 प्रतिशत लोग जलावन और 37 प्रतिशत लोग भोजन के लिए सामुदायिक जमीन पर निर्भर हैं। इस संस्था का अनुमान है कि सामुदायिक संसाधन देश के गरीबों की कुल आमदनी में सालाना 35,490 करोड़ रुपए देता है। जहां वर्षा आधारित कृषि है वहां गरीबों के घर के सालाना आमदनी में 20 से 40 फीसदी का स्रोत यही सामुदायिक संसाधन हैं।
2010 में आई एफईएस की रिपोर्ट ने बताया गया था कि शुष्क, अर्ध शुष्क और उप शुष्क क्षेत्र में 98 प्रतिशत परिवार चारा, कृषि, भोजन, जलावन और लकड़ी के लिए सामुदायिक क्षेत्र पर निर्भर करते हैं। इन सभी आंकड़ों के मद्देनजर अगर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को देखा जाए तो इसका महत्व समझ में आता है। एफईएस से जुड़े जगदीश राव कहते हैं कि यह फैसला सकारात्मक और चौंकाने वाला था। अतिक्रमण की हुई भूमि को वापस लेना आसान नहीं है पर लोगों को जमीन वापस लेने के संघर्ष में यह फैसला काफी मदद कर सकता है। इस फैसले के बाद कई राज्यों में सामुदायिक भूमि और संसाधनों को लेकर कई राज्यों में गतिविधियां देखी गईं। इस फैसले में न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को सामुदायिक संसाधनों को पहचानने और उसकी वर्तमान स्थिति का जायजा लेने का आदेश दिया। इसके बाद पूरे देश में सामुदायिक संसाधन को लेकर बातचीत शुरू हुई।
लेकिन पिछले आठ सालों में बहुत कुछ बदल गया है और वर्तमान में सामुदायिक जमीन पर जिस तरह से कब्जा करने की कोशिश हो रही है वैसा शायद पहले कभी नहीं देखा गई। कई राज्यों में निजी उद्योग को ध्यान में रखते हुए सरकारें भूमि बैंक बना रहीं है और इसके लिए मुख्यतः यही सामुदायिक जमीन सरकार अपने कब्जे में ले रही हैं।
सामुदायिक संसाधनों पर देशव्यापी हमला
पिछले तीन चार सालों में कई राज्य सरकारों ने सामुदायिक संसाधनों पर कब्जा करने के लिए कई प्रयास किए हैं और इसका पुरजोर विरोध भी हो रहा है। जैसे झारखंड को ही लें। इस राज्य में एक बहुत बड़ा आंदोलन हो रहा है जिसे पत्थरगड़ी कहा जा रहा है। वर्तमान राज्य सरकार ने आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने के लिए कानून में संसोधन करने का भी प्रयास किया। जैसे छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम(सीएनटी) 1908 और संथाल परगना अधिनियम (एसपीटी) 1949। ये दोनों कानून झारखंड के आदिवासियों की जमीन को बाहरी व्यक्ति से सुरक्षित करती है। राज्य सरकार ने 2016 में इन दोनों कानूनों में संसोधन के प्रयास किया।
रांची में रहने वाले आदिवासी कार्यकर्ता सुनील मिंज बताते हैं कि सरकार ने न केवल सीएनटी कानून की धारा 49, 21 और 71ए में संशोधन की कोशिश की बल्कि निजी कंपनियों के जमीन अधिग्रहण के मामले में हाथ मजबूत करने के लिए एसपीटी कानून में नई धारा 13ए जोड़ने की कोशिश भी की। सरकार के इस प्रयास का स्थानीय लोगों ने पुरजोर विरोध किया और राज्यपाल को विभिन्न समूहों द्वारा 96 ज्ञापन दिए गए। आखिरकार राज्यपाल ने विधानसभा के द्वारा पास बिल को राष्ट्रपति के पास भेजने से इनकार कर दिया।
अब सरकार ने इससे निपटने के लिए नया तरीका खोजा है। जमीन तो सरकार को चाहिए इसलिए उसने भूमि बैंक बनाने की घोषणा की। सरकार ने अधिकारियों को आदेश दिए और कुछ ही दिन में पूरे राज्य से 21 लाख एकड़ जमीन इस भूमि बैंक में डाल दी गई और कंपनियों के सामने प्रस्तुत कर दी गई। 2017 के फरवरी में झारखंड सरकार ने मोमेंटम झारखंड के नाम से उद्योगपतियों का एक आयोजन किया था। उसमें मुख्यमंत्री ने उद्योगपतियों को बताया कि उनके भूमि बैंक में कितनी जमीन है। सरकार की जमीन लेने की मंशा इतनी मजबूत है कि वह आदिवासियों के पूजा स्थलों तक को भी नहीं छोड़ रही है। मिंज कहते हैं कि खूंटी जिले में सरना की 531 जमीन इस बैंक में डाल दी गई। सरना से तात्पर्य उस जमीन से है जहां आदिवासी पूजा पाठ करते हैं।
एक और कार्यकर्ता बंधु तिर्की का कहना है कि सरकार ने पहले कानून बदलने की कोशिश की फिर गैर मजुरवा (सामूहिक) जमीन की सूची तैयार की। विकास के नाम पर सरकार यह जमीन उद्योगपतियों को देना चाहती है। अगर ये जमीन चली गई तो आदिवासी अपने मवेशी कहां ले जाएंगे। यही सब सोचते हुए लोगों ने अपने तरीके से जमीन बचाने की कोशिश शुरू कर दी है। राज्य सरकार के इस प्रयास से बचने के लिए कई गांवों ने एक नया आंदोलन खड़ा कर दिया और गांव के आगे पत्थरगड़ी करने लगे। यह आंदोलन झारखंड से शुरू होकर कई राज्यों में जैसे महाराष्ट, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में भी फैल गया है। झारखंड के अलावा कुल 11 राज्य हैं जिन्होंने भूमि बैंक बनाने का फैसला किया है और इसके लिए जमीन का अधिग्रहण कर रहे हैं। इस भूमि बैंक के लिए अधिग्रहण की जाने वाली अधिकतर भूमि सामुदायिक है।
हिमाचल प्रदेश को ही लें। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हिमाचल प्रदेश की सरकार के निवेदन पर राजी होते हुए वन की क्षरित भूमि (डीग्रेडेड लैंड) से भूमि बैंक बनाने की अनुमति दी है। इस फैसले का काफी विरोध हो रहा है और वन अधिकार कानून कार्यकर्ता इसे 2006 में आए वन अधिकार कानून को कमजोर करने की कोशिश करार दे रहे हैं। यह फैसला तब लिया गया जब सरकार ने वन अधिकार कानून के तहत महज 6 प्रतिशत दावों का ही निराकरण किया है। इसलिए लोगों का संदेह और पक्का हो जाता है कि सरकार हो न हो सामुदायिक भूमि को कब्जे में लेने के लिए यह सब कर रही है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के वेस्टलैंड एटलस, 2011 के अनुसार, राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 40 प्रतिशत (यानी 22,470 वर्ग किलोमीटर) बतौर क्षरित भूमि के रूप में चिन्हित है। वर्ष 2005 से पहले राज्य सरकार के वन विभाग के नियंत्रण में कुल 1,290 वर्ग किलोमीटर क्षरित भूमि थी। जो लोग 2005 से पहले इस भूमि पर रह रहे थे वे वनाधिकार कानून के तहत इस पर दावा कर सकते थे पर राज्य सरकार ऐसे दावों के निराकरण में देरी करती रही।
इसी तरह ओडिशा सरकार भी निवेश बढ़ाने के नाम पर सामुदायिक संसाधनों पर नजर गड़ाए है। राज्य सरकार लोगों को सामुदायिक भूमि से हटाकर निवेशकों को ओडिशा की तरफ आकर्षित करने की कोशिश कर रही है। इस राज्य ने पिछले चार साल में 118 बड़े प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है। हाल में आए भारत-विश्व बैंक सर्वेक्षण ने ओडिशा को निवेश को बढ़ावा देने में 21 राज्यों के बीच अग्रणी बताया है। विशेषज्ञ बताते हैं कि राज्य ने यह उपलब्धि कुछ खास मुश्किल को दूर कर हासिल की है और यह खास मुश्किल है भूमि। इसके लिए राज्य सरकार ने दो भूमि बैंक बनाए हैं। 2015 में राज्य ओडिशा औद्योगिक विकास कारपोरेशन के तहत एक औद्योगिक बैंक बनाया गया जिसका उद्देश्य था उद्योगों को जल्द से जल्द भूमि मुहैया कराना। दूसरा बैंक अभी बनाया जा रहा है। संरक्षित वन और उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर इसे बनाया जा रहा है। भूमि अधिग्रहण के इस प्रयास में सरकार सामुदायिक जमीन को ही निशाना बना रही है और इस तरह कमजोर तबके की इस भूमि पर निर्भरता को नजरअंदाज कर रही है। यह सिर्फ इन तीन राज्यों की कहानी नहीं है। 2015 में करीब 22,000 वर्ग किलोमीटर भूमि कृषि व्यवसाय, खनन और अन्य उद्योगों के नाम पर अधिग्रहित की गई। अनुमान के मुताबिक, 2026 तक अधिग्रहित जमीन का दायरा बढ़कर 61,653 वर्ग किलोमीटर हो जाएगा। यह केरल राज्य के क्षेत्रफल से दोगुना होगा और इनमें से अधिकतर सामुदायिक और वन भूमि होगी।
स्वयंसेवी संस्था राइट्स एंड रिसोर्स इनिशिएटिव (आरआरआई) के अध्ययन के अनुसार, 2010-15 के बीच देश के करीब 130 जिलों में सामुदायिक और वन भूमि को लेकर विवाद हुआ है (देखें, संघर्ष का सिलसिला, पेज 35)। इस रिपोर्ट से पता चलता है कि कैसे सरकारें और उद्योग लोगों के सामुदायिक भूमि के अधिकार से वंचित करने में सफल हो रहीं हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि पेसा (पंचायत- अनुसूचित क्षेत्रों का विस्तार 1996) व वन अधिकार कानून को मजबूत करके ही भूमि से जुड़े ऐसे विवादों को कम किया जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार, भूमि से जुड़े विवाद में करीब तीन चौथाई तो सामुदायिक भूमि को लेकर हैं और 26 प्रतिशत विवाद निजी जमीन को लेकर। 40 प्रतिशत विवाद वन भूमि को लेकर है और अधिकतर उन क्षेत्रों से है जहां आदिवासियों के भूमि अधिकार सुनिश्चित नहीं हैं। रिपोर्ट के अनुसार, पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में विवाद अधिक हैं। इनमें आंध्र प्रदेश, झारखंड, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा व राजस्थान के आदिवासी जिले शामिल हैं।
आदिवासी समाज पर लंबे समय तक काम करने वाले संजय बासु मलिक कहते हैं कि यह सब गैरकानूनी है। न्यायालय ने सामुदायिक संसाधनों को लेकर स्पष्ट निर्णय सुनाया है कि इस पर समाज का हक पहले है। बिना नया कानून लाए या न्यायालय के फैसले को चुनौती दिए सामुदायिक जमीन लेने के जितने भी प्रयास हो रहे हैं, सब गैरकानूनी हैं। उनका कहना है कि जनता के पास बस दो ही रास्ते हैं। एक, न्यायालय का फिर से दरवाजा खटखटाना पर इसमें दिक्कत यह है कि कानूनी प्रक्रिया इतनी लंबी है कि यह लगभग न्याय नहीं मिलने जैसा हो जाता है। दूसरा, समाज के लोग खुद को पत्थरगड़ी जैसे आंदोलन में झोंकें जैसा झारखंड और अन्य राज्यों में हो रहा है। लेकिन इसके भी अपने खतरे हैं। सबसे बड़ा खतरा है राष्ट्रदोही घोषित होने का।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के दूरगामी असर
सामुदायिक संसाधनों पर आए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का देशव्यापी असर हुआ है। इसने राज्यों ने मौजूदा योजना और व्यवस्था को सही तौर पर इस्तेमाल कर सामुदायिक संपत्ति के अतिक्रमण को हटाने की कोशिश की है। इसमें मणिपुर, झारखंड जैसे राज्य शामिल हैं। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद मिजोरम, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना जैसे राज्यों ने नए कानून और नियम बनाए। राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल और गुजरात ने इस संदर्भ में नए आदेश दिए और नीतियां बनाईं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर कुल 19 राज्य और दो संघ शासित प्रदेशों में 102 न्यायिक फैसले आए हैं। सामुदायिक संसाधनों पर आए इन आदेशों का कई पंचायत और समुदाय ने बखूबी इस्तेमाल भी किया। जैसे राजस्थान का उदाहरण ले सकते हैं। एक गांव हैं धुवाला जो भीलवाड़ा जिले में पड़ता है। यहां 2011 से खनन कंपनी को दिए गए भूमि को लेकर विवाद चल रहा था। गांव के लोगों ने राजस्थान लैंड टेन्योर एक्ट का इस्तेमाल कर गांव की सामुदायिक भूमि पर सामूहिक अधिकार पाने में सफलता हासिल की। फिर भी यह सत्य है कि सामुदायिक भूमि समय के साथ क्षरित हुई है और घटी भी है। इसकी मुख्य वजह है संपत्ति कानून और पारंपरिक कानून में तालमेल की कमी। पारंपरिक कानून को बहुत अनौपचारिक तौर पर लिया जाता है पर ये कानून स्थानीय स्तर पर काफी मजबूत और औपचारिक हैं। दूसरी मुख्य वजह है “ट्रेजडी ऑफ कॉमन्स” जैसी सोच जो निरंतर मुख्यधारा का हिस्सा बनती जा रही है। “ट्रेजडी ऑफ कॉमन्स” सामाजिक विज्ञान का एक विचार है जो बताता है कि कैसे व्यक्ति उपलब्ध सामुदायिक संपत्ति का खुद के लिए बेजा इस्तेमाल करता है। यद्यपि कई लोगों ने इस विचार को भी कठघरे में खड़ा किया है। ऐसे ही काम के लिए एलिनोर ओस्त्रोम को 2009 में अर्थशास्त्र का नोबेल भी दिया गया था। विश्व भर में धीरे-धीरे इस पर सहमति बन रही है कि समुदाय का संसाधन पर मालिकाना हक मिले। भारत में वन अधिकार कानून का आना भी यही इंगित करता है कि धीरे-धीरे लोग इस पर सहमति बन रही है कि ग्रामीण लोग सामुदायिक संसाधनों की देखभाल करने में सक्षम हैं। इधर कई राज्यों में सामुदायिक संसाधनों को लेकर तनाव बढ़ा है जैसे छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि। इसको समझने के लिए हमें कई चीजों पर बात करनी होगी। जैसे स्वामित्व की समयसीमा, एकतरफा विकास और स्थानीय अर्थव्यवस्था। विकास को लेकर वर्तमान अवधारणा में स्थानीय गतिविधियों और लोगों के हित को ध्यान में नहीं रखने की वजह से तनाव बढ़ रहा है। इस तनाव के साथ-साथ जल की समस्या, मृदा स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन की समस्या भी बढ़ रही है। भविष्य में यह समस्या और विकराल होंगी, तब ग्रामीण समुदाय और संसाधनों का महत्व बढ़ जाएगा। यद्यपि हम लोग 70 साल के लोकतंत्र में रह रहे हैं पर ग्रामीण लोगों को बराबर का नागरिक न समझकर सरकार की योजनाओं के लाभार्थी के तौर पर देखा जाना, कहीं न कहीं उनमें असंतोष पैदा कर रहा है। पिछले कुछ सालों में ग्रामीण समाज को यात्रा का मौका मिला है और संचार के बेहतर साधन उपलब्ध हुए हैं। इसकी वजह से उनका बाहरी दुनिया से संवाद बढ़ा है। ग्रामीण समाज को दुनिया को बेहतर तरीके से समझने का मौका मिला है। अब जब भी उन्हें बाहरी और स्थानीय आकांक्षाओं में बेमेल की स्थिति दिखती है वे लामबंद होते हैं और विरोध करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश और वन अधिकार कानून की वजह से लोगों को सामुदायिक संसाधनों पर नियंत्रण की इच्छा को बल मिला है। भूमि की पारिस्थितिकी स्वस्थ रहे, इसके लिए जरूरी है कि गांव और उससे जुड़ी भूमि का स्वामित्व स्थानीय लोगों के हाथों में रहे जबकि दूर दराज की जमीन पर सरकार का नियंत्रण हो। |
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