वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में बीज कंपनियों द्वारा बीटी कॉटन के रिफ्यूज के लिए किसानों को दिए जा रहे बीज सही नहीं पाए गए हैं।
लंबे समय तक विवादों में रहे बीटी कॉटन के बीजों की मार्किटिंग में बीज कंपनियां नियमों की घोर अनदेखी कर रही हैं, जिसका सीधा असर फसल उत्पादन के साथ-साथ किसानों की आमदनी पर भी पड़ सकता है। भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ है।
नागपुर स्थित केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान और सिरसा में स्थित इसके क्षेत्रीय केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में बीज कंपनियों द्वारा बीटी कॉटन के रिफ्यूज के लिए किसानों को दिए जा रहे बीज सही नहीं पाए गए हैं। जीएम फसलों के आसपास रिफ्यूज के तौर पर गैर-जीएम फसल उगाना जरूरी है। ऐसा करने से दोनों फसलों के बीच होने वाले पर-परागण से हानिकारक कीटों की प्रतिरोधक क्षमता का विकास धीमा हो जाता है। इसलिए रिफ्यूज प्रक्रिया को तय मानकों के आधार पर पूरा करना जरूरी है। लेकिन, बीज कंपनियों द्वारा नियमों का पालन नहीं किए जाने से रिफ्यूज की पूरी प्रक्रिया सवालों के घेरे में आ गई है। यह अध्ययन हाल में करंट साइंस जर्नल में प्रकाशित किया गया है। अध्ययन के लिए वर्ष 2014 और 2015 में उत्तर एवं मध्य भारत के खुले बाजार से बीटी कपास के बीजों के पैकेट खरीदे गए थे। बीटी के जीन्स की मौजूदगी का पता लगाने के लिए के इन बीजों के नमूनों का डीएनए टेस्ट किया गया और नागपुर के केंद्रीय कपास शोध संस्थान में किए गए फील्ड ट्रायल के जरिये इन दोनों फसलों के बीजों के अंकुरण एवं उनके क्रमिक विकास की पड़ताल भी की गई। अध्ययन के अनुसार बीज कंपनियों द्वारा रिफ्यूज के लिए उपलब्ध कराए जा रहे बीज निर्धारित मापदंडों पर खरे नहीं उतरते हैं। किसानों को दिए जा रहे गैर-बीटी बीजों में बीटी बीजों की मिलावट और बीजों का खराब अंकुरण प्रमुख समस्या है। इसके अलावा बोलगार्ड-2 के हाइब्रिड पैकेट में गॉसिपियम हर्बेसियम प्रजाति के बीज मिलने से भी मिलावट का साफ पता चलता है, क्योंकि गॉसिपियम हिर्सुतम के अलावा गॉसिपियम की अन्य प्रजाति के उपयोग को लेकर आनुवांशिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (जीईएसी) के दिशा-निर्देश स्पष्ट नहीं हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार बीटी एवं गैर-बीटी रिफ्यूज फसलों के बीच क्रमिक विकास न होने से भी यह पूरी प्रक्रिया बेमानी होकर रह जाती है।
बीटी कपास की बॉलगार्ड-2 (बीजी-2) किस्म को वर्ष 2006 में व्यावसायिक उत्पादन के लिए स्वीकृत किया गया था। बीजी-2 में मौजूद क्रिस्टल-1एसी और क्रिस्टल-2एबी नामक दोनों जीन्स कपास के कई कीटों को पनपने नहीं देते। लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक भारत में रिफ्यूज प्रक्रिया का ठीक तरीके से पालन नहीं होने से कपास के पिंक बोलवर्म कीट में बीटी के इन दोनों जीन्स के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई है और बीजी-2 किस्म बोलवर्म नियंत्रण के लिए अब पहले जैसी प्रभावी नहीं रह गई है।
पहले भी रिफ्यूज की खामियों के बारे में संकेत मिले हैं और इस प्रक्रिया के सफल न होने के पीछे किसानों को ही जिम्मेदार ठहराते हुए जाता था। कहा जाता था कि किसान गैर-बीटी फसल के लिए जमीन का उपयोग नहीं करना चाहते। लेकिन इस अध्ययन से पता चला है कि रिफ्यूज के असफल होने के पीछे बीजों की गणुवत्ता सही न होना भी एक प्रमुख कारण रहा है।
जीईएसी ने प्रभावी रिफ्यूज प्रक्रिया के लिए कुछ नियम तय किए हैं। इसके मुताबिक बीटी-कॉटन फील्ड के आसपास बीटी-हाइब्रिड कपास से मिलती-जुलती परंपरागत (गैर-बीटी) कपास की कम से कम पांच सीमावर्ती कतारें या फिर कुल बीटी कपास के फसल क्षेत्र के 20 प्रतिशत क्षेत्र में से जो भी अधिक हो, में गैर-बीटी कपास 'रिफ्यूज'के तौर पर लगाना जरूरी है। बीज कंपनियों को 450 ग्राम बीटी कपास के बीज के पैकेट के साथ 120 ग्राम गैर-बीटी कॉटन के बीज या फिर 200 ग्राम अरहर के बीज किसानों को रिफ्यूज फसल के लिए देने के लिए कहा गया था। लेकिन बीज कंपनियां जीईएसी के दिशा-निर्देशों के मुताबिक किसानों को पूरी तरह सही बीज उपलब्ध नहीं करा रही हैं।
एक समस्या बीजों के मूल्य से भी जुड़ी है, जो किसानों को बीटी कपास की खेती के लिए हतोत्साहित कर सकती है। अध्ययनकर्ताओं ने पाया है कि बीज कंपनियां बीटी कपास के बीजों के पैकेट के मूल्य में 120 ग्राम गैर-बीटी रिफ्यूज की उत्पादन लागत भी जोड़ देती हैं।
‘रिफ्यूज इन बैग’ (आरआईबी) के तहत अब किसानों को 475 ग्राम के पैकेट में 95 प्रतिशत बीटी कपास के बीज और पांच प्रतिशत गैर बीटी बीज दिए जाने के प्रस्ताव है। कहा जा रहा है कि इस प्रस्ताव पर अमल किया जाता है तो किसानों के पास रिफ्यूज बीजों को नकारने का विकल्प नहीं होगा। कंपनियां इन दिशा-निर्देशों पर अमल करेंगी, यह कहना अभी मुश्किल है। वहीं, शोधकर्ताओं की चिंता यह है कि इस प्रस्ताव पर अमल किया जाता है तो बीजों के नमूने इकट्ठा करना और गलत बीजों के सम्मिश्रण का पता लगाकर इसकी निगरानी करना कठिन हो जाएगा।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में एस. क्रांति, यू. सतीजा, पी. पुसदकर, ऋषि कुमार, सी.एस. शास्त्री, एस. अंसारी, एच.बी. संतोष, डी. मोंगा और के.आर. क्रांति शामिल थे।
(इंडिया साइंस वायर)
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