अंडमान की पारंपरिक व्यवस्थाएं काम नहीं कर रही हैं, अगर उन पर ध्यान दिया जाए तो ये लोगों की पानी संबंधी जरूरतें पूरी कर सकती हैं
केंद्र शासित प्रदेश अंडमान और निकोबार द्वीप समूह अपनी रणनीतिक स्थिति के चलते बहुत महत्वपूर्ण बन गए हैं, पर इससे इसकी मुश्किलें, खत्म नहीं हुई हैं। वैसे तो यहां औसत 3,000 मिमी. वर्षा होती है, पर यहां की मुश्किल भौगोलिक बनावट के चलते अधिकांश पानी समुद्र में चला जाता है। साथ ही, यहां की जमीन भी मिट्टी और रेत के मिश्रण वाली है। इसलिए इसमें पानी को थामे रखने की क्षमता बहुत कम है। भूजल निकालने की कुओं जैसी व्यवस्थाओं के लिए जरूरी है कि जमीन में रेत और कंकड़ हों, जिससे पानी आसानी से रिसकर जमा हो। इतना ही नहीं, यहां की जल निकासी व्यवस्था भी अब तक व्यवस्थित नहीं हो पाई है और पानी के बहाव की दिशा एकदम अनिश्चित है। इसके चलते कोई बड़ा बांध नहीं बनाया जा सकता। इसी सबके बीच विभिन्न तबकों, खासकर पर्यटकों की तरफ से ताजे पानी की मांग बढ़ती जा रही है। इस स्थिति में भूतल वाली व्यवस्थाओं के साथ ही पानी की नई व्यवस्थाएं तैयार करना जरूरी हो गया है।
द्वीप समूह की बनावट को साधारण ढलान वाली पहाड़ियों के इलाकों, संकरी घाटियों और तटीय इलाकों, जिनमें दलदली क्षेत्र शामिल हैं, में बांटा जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्र में घने जंगल हैं। उत्तर से दक्षिण की तरफ गई प्रमुख श्रंृखलाएं तट से लगी हैं, जिसकी ऊंचाई उत्तर अंडमान के सैडल पीक पर 732 मीटर और मध्य तथा दक्षिण अंडमान द्वीप समूह के पूर्वी हिस्से में रटलैंड द्वीप पर स्थित माउंड फोर्ड (काला पहाड़) की ऊंचाई 435 मीटर है।
दक्षिण अंडमान द्वीप तक गई यह पर्वत श्रंृखला उधर समुद्र तल से 60 से 100 मीटर तक ऊंची है। दक्षिण अंडमान के ब्रूक्सबाद-बेडोनाबाद क्षेत्र में इसकी ऊंचाई कम हो गई है और यह समुद्र तल से 45 से 100 मीटर तथा घाटियों में 35 से 90 मीटर ऊंची रह गई है। छिछला खाड़ी प्रदेश और विशाल तटीय प्रदेश इस क्षेत्र की विशेषता है, जिसमें जगह-जगह गरान के जंगल उगे हैं। पश्चिमी हिस्सा भी ऐसी ही मुश्किल बनावट वाला है और इसमें पूर्वी हिस्से से भी कम विभिन्नताएं हैं। पश्चिमी क्षेत्र की संकरी घाटियों के बीच से निकली पर्वत श्रंृखला भी यहां की मुश्किलें बढ़ाती हैं जिसकी ऊंचाई 70 से 140 मीटर है। इसके बाद तीखी ढलान वाले इलाके आते हैं, जो कहीं-कहीं एकदम खराब भूखंड पर खत्म होते हैं।
642 मीटर ऊंचाई वाला माउंट थुलियर और इससे जुड़ी पहाड़ियां ग्रेट निकोबार द्वीप समूह तक गई हैं। ये समुद्री अवसाद से बनी पहाड़ियां हैं। आधी से लेकर 2 किमी. तक चौड़ाई वाले तटीय मैदान पूर्वी इलाके में हैं जबकि पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में इनकी चौड़ाई एक से 3.5 किमी. तक है और ये थोड़ा उठे भी हैं। यहां जल संचय बहुत आम और व्यापक स्तर पर होता रहा है, जैसा कि 1950 के दशक के शुरू में गए एक यात्री ने लिखा है, “अनेक सोते, छोटे तालाब, कच्चे गड्ढे और कुएं प्रायः हर गांव में हैं और कुछ जगहों पर लोगों और जानवरों की जरूरतों के लिए सीमेंट के छोटे हौज भी बने हैं।”
भौगोलिक बनावट, प्राकृतिक रचना, चट्टानों के प्रकार और बरसात के हिसाब से अलग-अलग द्वीपों के आदिवासियों ने बरसाती पानी और भूजल के संचय और उपयोग की अलग-अलग विधियां विकसित की थीं। जैसे, ग्रेट निकोबार द्वीप के शास्त्री नगर के आसपास का इलाका इस द्वीप के उत्तरी हिस्से की तुलना में काफी खराब बनावट वाला है। यहां नंगी कठोर चट्टानें खुली पड़ी हैं, पर शोंपेन आदिवासियों ने जल संचय के लिए इनका बहुत कौशलपूर्ण उपयोग किया है। ढलान पर नीचे बुलेटवुड के लट्ठों को लगाकर बांध डाले जाते थे और पानी जमा किया जाता था। आज जहाज, जेट्टी और मकान बनाने में यही लकड़ी लगती है और इसका अकाल हो गया है। शोंपेन आदिवासियों को यह लकड़ी शायद ही कभी मिल पाती है। इसी के चलते अब ऐसे बांधों का बनना भी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
शोंपेन और जारवा आदिवासी बांस को चीरकर उनका उपयोग जल संचय में किया करते हैं। बांस को काटकर जमीन की ढलान के हिसाब से नीचे ठीक से जमा दिया जाता है और यही बांस बिखरते बरसाती पानी को समेटकर छिछले गड्ढों में ला देता है। इन गड्ढों को जैकवेल कहा जाता है। अक्सर फटे बांस से पेड़ों के आसपास की जमीन को घेर दिया जाता है जिससे उनके पत्तों से होकर गिरने वाला पानी संग्रहित किया जा सके। ये गड्ढे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं और एक से उफनकर दूसरे में पानी जाने का रास्ता भी इन्हीं फटे बांसों से घेरकर बनाया जाता है। यह पानी आखिरकार सबसे बड़े जैकवेल में जमा होता है, जिसकी गहराई सात मीटर और गोलाई करीब छह मीटर हुआ करती है।
पानी जमा करने के अन्य तरीकों में बरसात के समय नारियल के पेड़ के नीचे कोई बरतन या घड़ा रखना भी शामिल है। बरतन के मुंह पर एक डाल लगा दी जाती है जिससे आसपास जा रहा ताजा पानी भी इसमें आ जाए। चूंकि लोग यहां नारियल का पानी खूब पीते हैं, इसलिए पेयजल की उनकी जरूरतें काफी कम हैं। ओंगी आदिवासी अपनी छतों से गिरने वाले पानी को बरतनों में भरते हैं। अक्सर इसके लिए वे अपनी लकड़ी और बांस वाली टोकरियों को छत के किनारे लटका देते हैं। ग्रेट निकोबार द्वीप के शोंपेन आदिवासी केला, अनानास और अनेक जंगली फल तथा सब्जियां उगाते हैं। इनको सिंचित करने के लिए वे ऊंचाई से खेतों तक जलीय मार्ग बनाते हैं। बरसात का पानी इनसे होकर खेतों में जमा होता है।
आदिवासी लोग जल संचय के समय जमीन की बनावट और ढलान जैसी चीजों का ध्यान रखते हैं। अंडमान में वे 2 मी. गुणा 3 मी. से 4 मी. गुणा 5 मी. के आयताकार तालाब खोदना पसंद करते हैं। ऐसा लगता है कि आदिवासियों को मालूम है कि ये चट्टानें इस आकार में आसानी से कटती हैं।
दूसरी ओर कार निकोबार के आदिवासी अपेक्षाकृत समतल, नरम मिट्टी वाली जमीन और 2 से 3 मी. भूजल स्तर पर गोलाकर कुएं खोदते हैं। यहां 2 से 20 मीटर व्यास वाले कुएं हैं। यहां के निकोबारी और जारवा आदिवासी पत्थरों, लकड़ियों और यहां से गुजरने वाले जहाजों पर से फेंके गए बरतनों का प्रयोग करके कुएं खोदते हैं। इन कुओं के किनारे भी वही खास लकड़ी लगाई जाती है जिसका उपयोग बांध बनाने में होता है। बुलेटवुड कही जाने वाली यह लकड़ी पानी में नहीं सड़ती। लट्ठों के बीच 10-20 सेमी. जगी छोड़ दी जाती है जिससे रिसाव होकर पानी अंदर आ सके। बीमार लोगों को कुओं के पास नहीं जाने दिया जाता, क्योंकि पानी में छूत फैल जाने का खतरा होता है। कहां जमीन खोदने से पानी निकलेगा, यह निश्चित करने वाला आदिवासी कबीलों के तरीके बहुत दिलचस्प हैं। जारवा कबीले के प्रधान ही यह काम भी करते हैं। जमीन पर पैर थपथपा कर और पदचाप की अनुगूंज सुनकर वे तय करते हैं कि कहां पानी है, कहां नहीं है। वे यह भी बता देते हैं कि कितनी गहराई पर पानी है।
कार निकोबार द्वीप के निकोबारी आदिवासी नारियल के पेड़, उनका रंग-रूप और फल देखकर पानी का अंदाजा लगाते हैं। अगर कच्चे नारियल का पानी मीठा निकला, इसका मतलब उसके नीचे स्थित भूजल खारा है। इसके ठीक उलट नारियल का पानी नमकीन होने का मतलब भूजल का मीठा होता है। इन कुओं से निकलने वाले पानी की मात्रा कई चीजों पर निर्भर करती है- पानी किस रफ्तार में पुनरावेशित होता है और किस मौसम में पानी निकाला जाता है। जमीन की बनावट और उसकी भौगोलिक अवस्थिति पर भी पानी की मात्रा निर्भर करती है।
ग्रेट निकोबार की कैंपबेल खाड़ी के निकट स्थित कुओं में मॉनसून के समय तो आराम से दो से तीन मीटर पानी निकाला जा सकता है, जबकि गर्मियों में यह 0.5 से 0.8 मीटर से ज्यादा नहीं होता। दक्षिण अंडमान में पंप से पानी निकालने संबंधी जांचों से यह पता चला है कि रेतीले इलाकों (कोरबाइन कोव) में यह 120 मिनट में पुनरावेशित होता है, पर चट्टानी, खासकर लावा से बने, इलाकों में इसमें 500 मिनट का समय लगता है। इसलिए ज्यादातर कुओं से पानी निकालने के दो समय चक्र रखने से काम बनेगा। मॉनसून के दौरान रोज 1.5 मीटर पानी निकाला जा सकता है, जबकि गर्मियों में 0.6 मीटर ही। प्रति व्यक्ति रोजाना औसत 40 लीटर पानी का प्रयोग मानें तब भी आदिवासियों द्वारा विकसित पारंपरिक प्रणालियां उनकी जरूरतों के लिए पर्याप्त हैं। पर दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश आज उपेक्षित और बदहाल हैं। रखरखाव कमजोर पड़ने से उनका ढांचा भी खत्म हुआ जा रहा है। गाद भरने से उनकी क्षमता का ह्रास हुआ है। तटीय इलाकों में समद्री कचरा इन व्यवस्थाओं के अंदर आ गिरा है। 20 मीटर व्यास तक के कुएं अब त्याग दिए गए हैं, क्योंकि उनका पानी गंदा और खारा हो चुका है। तट की रेत और कंकड़ वाली जमीन अत्यधिक रिसाव वाली होती है और समुद्र खारा पानी आसानी से जलभरों तक पहुंच जाता है।
इस बीच सरकार ने भी कई बस्तियों में नलकूप गाड़ने शुरू किए हैं और इनका असर भी पुरानी व्यवस्थाओं पर पड़ा है। 1980 के दशक के आखिरी दिनों में सरकार ने पारंपरिक व्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के लिए भी कुछ कदम उठाए थे। कुछ कुएं अंडमान के लोक निर्माण विभाग ने अपने हाथ में लिए थे। उनको साफ किया गया और सीमेंट लगाकर दुरुस्त किया गया। पर दुर्भाग्य से इसमें भी कुछ गलतियां हुईं और यह पूरा ही अभियान बंद कर दिया गया। अंडमान की चर्चित सेलुलर जेल, जिसमें आजादी की लड़ाई के सबसे “खतरनाक” कैदियों को कालापानी की सजा के तहत रखा जाता था, को पानी देने के लिए अंग्रेजों द्वारा बनवाया गया डिल्थावन तालाब भी आज बदहाल है।
आज वही अनेक पारंपरिक व्यवस्थाएं काम नहीं कर रही हैं। लेकिन अभी भी अगर उन पर ध्यान दिया जाए तो वे लोगों की पानी संबंधी जरूरतें पूरी कर सकती हैं। इस द्वीप समूह पर पानी की मांग जिस तेजी से बढ़ रही है उसे सिर्फ पारंपरिक प्रणालियों से ही पूरा किया जा सकता है, क्योंकि यहां की जलवायु जमीन और संस्कृति के माफिक बैठती है। पानी की आगे की जरूरतों के लिए यहां कम-से-कम 25 बांध और 1400 कुओं की जरूरत पड़ेगी। एक बांध करीब 12 लाख रुपए में तैयार होता है और एक कुएं पर 9,000 रुपए खर्च होते हैं। यहां बहुत आधुनिक व्यवस्था कारगर नहीं हो सकती और यहां के मूल निवासी ही पानी के मामले में सबसे अच्छे गाइड हो सकते हैं। जैकवेल की शृंखलाओं के सहारे भूजल निकालना और बांसों तथा बांधों के सहारे भूतल के पानी को संग्रहित करना अभी भी उपयोगी, टिकाऊ और सबसे कम खर्चीला है।
(“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)
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