Health

रगों में जहर घोलता सीसा

हर जगह आसानी से पाया जाने वाला यह सामान्य सा धातु न सिर्फ लोगों के बौद्धिक स्तर को घटा रहा है बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक स्तर को भी प्रभावित कर रहा है

 
By Vibha Varshney
Published: Friday 12 May 2017
भारत में बेचे जा रहे पेंट्स में अत्यधिक मात्रा में सीसा पाया जाता है। हालांकि अब ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स ने पेंट में सीसे की मात्रा 90 पार्ट्स प्रति मिलियन तक निर्धारित कर दी है (जॉर्ज रॉयन)

भारत में एक साधारण इंसान का सामना सीसे से दिन में कई बार हो जाता है। नलों में जो पानी आता है, वह भी इस हैवी मेटल से दूषित है। दीवारों पर लगने वाले पेंट, कुछ दवाइयों और मसालों में भी सीसा होता है। दुःख की बात यह है कि अब सीसा सभी मनुष्य के जीवन का हिस्सा बन गया है। यह लोगों के बौद्धिक स्तर के साथ ही सामाजिक और आर्थिक स्तर को भी प्रभावित कर रहा है।

कई शोधों ने इस बात की पुष्टि की है कि भारत में ऐसी कोई जगह नहीं बची है जहां लोग सीसे के प्रभाव में न हो। वर्ष 2015 में मुंबई स्थित एक पैथोलॉजी लैब मेट्रोपोलिस हेल्थ ने खून के 733 नमूनों के परीक्षण में से लगभग 24 प्रतिशत में सीसा पाया था। हालांकि इन्होंने सीसे की मात्रा का खुलासा नहीं किया। वर्ष 2013 में दिल्ली के 300 बच्चों की जांच से पता चला कि उनमें से 12 प्रतिशत के खून में सीसे की मात्रा 10 माइक्रोग्राम/ डेसीलीटर से ज्यादा थी। यह शोध इंडियन जर्नल ऑफ पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित हुआ था।

वर्ष 2010 में एनवायरनमेंटल टॉक्सिकोलॉजी में प्रकाशित एक शोध बताता है कि लखनऊ में जब 3-12 साल के बच्चों के खून की जांच की गई तो इनमें औसतन 9.3 माइक्रोग्राम/ डेसीलीटर सीसा पाया गया। कुछ बच्चों में तो सीसे की मात्रा 27.9 माइक्रोग्राम/ डेसीलीटर तक थी। 37 प्रतिशत बच्चों के खून में सीसा 10 माइक्रोग्राम/डेसीलीटर से ज्यादा था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार खून में 5 माइक्रोग्राम/ डेसीलीटर से ज्यादा सीसा नहीं होना चाहिए। पहले यह सीमा 10 माइक्रोग्राम/डेसीलीटर थी।


चिंता की बात यह है कि सीसा पर्यावरण और शरीर में सालो साल बने रहते है। भारत में भले ही सीसायुक्त पेट्रोल पर वर्ष 2000 में  प्रतिबंध लगा दिया गया हो, पर उस समय का सीसा अब भी हमारे पर्यावरण में मौजूद हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन बताता है कि सीसा शरीर में इकठ्ठा होता रहता है और इससे दिमाग के अलावा जिगर, गुर्दों और हड्डियों को भी नुकसान पहुंचता है। यह दांतों और हड्डियों में जमा हो जाता है और उम्र के साथ इनमें से निकलता रहता है। ये बच्चों पर ज्यादा बुरा प्रभाव डालता है। इसके दुष्प्रभावों को पहली बार वर्ष 1970 में पहचाना गया था, पर पक्के सबूत मिलने में कुछ दशक लग गए। जर्नल जामा में 28 मार्च 2017 को एक प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि सीसा सिर्फ आइक्यू स्तर को कम करता है और इसके प्रभाव से धीरे-धीरे आदमी का सामाजिक और आर्थिक स्तर घटने लगता है।

एक लम्बा अध्ययन

शोधकर्ताओं ने न्यूजीलैंड में लंबे समय से चल रही डुनेडिन मल्टीडिसिप्लीनरी हेल्थ एंड डेवलपमेंट  स्टडी का अध्ययन किया। इस स्टडी में उन बच्चों को शामिल किया गया था जिनका जन्म अप्रैल 1972 से मार्च 1973 के बीच में हुआ था। उस समय न्यूजीलैंड के गैसोलीन में सीसे की मात्रा बहुत उच्च थी। 1983 में जब ये बच्चे 11 साल के थे, तब इनके खून में सीसे की मात्रा मापी गई थी। विभिन्न सामाजिक और आर्थिक स्तर वाले इन सभी बच्चों के खून में सीसा पाया गया था। जब ये बच्चे 38 साल के हुए तो शोधकर्ताओं ने इनकी संज्ञानात्मक क्रिया (दिमाग में होने वाली वो क्रियाएं जिनसे ज्ञान बढ़ता है) का विश्लेषण किया और पाया कि जिन बच्चों के खून में 11 साल की उम्र में ज्यादा सीसा था, उनकी ज्ञानार्जन क्षमता कम थी। शोधकर्ताओं ने फिर इन बच्चों के व्यव्यसाय की तुलना उनके माता-पिता के व्यव्यसाय (जब वह उसी उम्र के थे) से की। अक्सर देखा गया है कि बच्चों का सामाजिक और आर्थिक स्तर माता-पिता से बेहतर होता है। पर अध्ययन का निष्कर्ष बता रहा था कि इन लोगों का सामाजिक और आर्थिक स्तर अपने माता-पिता के स्तर से नीचे था। इन बच्चों की न सिर्फ़ आय काम थी बल्कि काम भी उतना प्रतिष्ठित नहीं था। जिन बच्चों के खून में सीसे की मात्रा 10 माइक्रोग्राम/ डेसीलीटर से ज्यादा थी, उनकी आइक्यू स्तर अन्य बच्चों से 4.25 पॉइंट कम पाई गई। हर 5 माइक्रोग्राम/ डेसीलीटर ज्यादा सीसा, आइक्यू स्तर को 1.61 पॉइंट कम करता है।


ड्यूक यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान और तंत्रिका विज्ञान विभाग में शोध छात्र ऐरन रुबन ने डाउन टू अर्थ को बताया, “हमारा शोध बताता है कि सीसे से लोगों की संज्ञानात्मक क्रिया कम हुई और साथ ही वह सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ गए। अन्य अध्ययन ये ठीक से प्रमाणित नहीं कर पाए थे।” इस रिसर्च ने यह भी बताया कि आइक्यू स्तर में एक पॉइंट की गिरावट से व्यक्ति की सालाना कमाई 200 से 600 डॉलर तक कम हो सकती है। “पर्यावरण में सीसे के दुष्प्रभाव बच्चे की जिंदगी की दिशा बदल देता है, चाहे वह किसी भी सामाजिक और आर्थिक मुकाम पर रहा हो।  हमारा मानना है कि पर्यावरण में मौजूद किसी भी जहर से लड़ाई लड़ते समय उसके लंबे समय तक चलने वाले प्रभाव को समझना चाहिए”, रुबन ने कहा।

सीसे के प्रभाव का आकलन करने के लिए किए नए शोध की लेखक डुनेडिन मल्टीडिसिप्लीनरी हेल्थ एंड डेवलपमेंट रिसर्च यूनिट की एसोसिएट डायरेक्टर टेरी मॉफिट कहतीं हैं, “हम समझते थे कि जब पेट्रोल में सीसे पर प्रतिबंध लग जाएगा तो मुसीबत खतम हो जाएगी। पर जिन शोधों के आधार पर यह धारणा बनी थी, उन्होनें कभी सीसा ग्रसित लोगों का बड़ी उम्र तक अध्ययन नहीं था।” विकसित देशों में भी जब प्रदूषित इलाके को साफ किया जा रहा हो—जैसे कि पुराने घरों में पेंट हटाया जा रहा हो—तो विशेष सावधानी बरतनी चाहिए, ताकि सीसे के प्रभाव में आने से बचा जा सके। उदाहरण के लिए उत्तरी अमरीका में ऐसे बहुत से पुराने औधोगिक इलाके हैं जो अब ढह जाने की स्थिति में है। इनमें से सीसा रिसकर नदियों और पीने के पानी में घुल रहा है। इसके कारण अमरीका में अब भी सीसे के दुष्प्रभाव के मामले सामने आ रहे हैं।

शोधकर्ता अब डुनेडिन के इन बच्चों का आगे भी अध्ययन करके देखेंगे कि आने वाले सालों में उनपर सीसे के और क्या दुष्प्रभाव दिखते हैं।

भारत भी घेरे में

मई 2016 में न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन ने एक ऐसा मॉडल बनाया जिससे पता चलता है कि भारत में सीसे के कारण सालाना 236 बिलियन डॉलर का नुकसान होता है, क्योंकि यहां कई जगह बच्चे सीसे के सम्पर्क में रहते हैं। दिल्ली स्थित संस्था टॉक्सिक्स लिंक के एसोसिएट डायरेक्टर सतीश सिन्हा कहते हैं कि देश में एक सर्वेक्षण किया जाना चाहिए जिससे पता चले कि भारतीयों के खून में कितना सीसा है। वह कहते हैं कि जब भी सीसे से एक्सपोजर को कम करने की कोशिश की गई है, वह खून में कम हुआ है। हालांकि उनका मानना यह भी है कि हर चीज पर  प्रतिबंध मुमकिन नहीं है। “हम पहले ही पारे को वातावरण से हटाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे अच्छा है यह होगा कि जिन चीजों में सीसा है, उनका प्रयोग सावधानी से करने की कोशिश की जाए,” सिन्हा कहते हैं।

सीसे पर लगाम लगाना इतना आसान भी नहीं है।  कुछ समय पहले तक भारत में रंग-रोगन में काम आने वाले पेंट्स में सीसा बहुत अधिक मात्रा में मौजूद था। इसको मद्देनजर रखते हुए ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स ने पेंट में 90 पार्ट्स प्रति मिलियन तक सीसे की मात्रा निर्धारित कर दी। सेंट्रल  पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने इस पर एक नोटिफिकेशन निकाला है और इसपर अप्रैल 2017 तक टिप्पणियां आमंत्रित की थी। नोटिफिकेशन लागू होने के दो साल बाद तक कंपनियां सीसायुक्त पेंट बेच सकती हैं।

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