Climate Change

वक्त जागने का

आईपीसीसी रिपोर्ट भविष्य में बढ़ने वाले तापमान के खतरे को इंगित करती है। यह चुनौती ऐसे समय में आई है जब दुनिया के पिछड़े हिस्सों में ऊर्जा की जरूरतों को बढ़ना है। 

 
By Sunita Narain
Published: Thursday 15 November 2018
रितिका बोहरा / सीएसई

जलवायु परिर्तन पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा गठित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) में ऐसे वैज्ञानिक हैं जिन्हें ऐक्टिविस्ट या रेडिकल कहना गलत होगा। ये सामान्य वैज्ञानिक हैं जो सामान्य विषयों पर काम कर रहे हैं और वे मुख्यत: अमीर राष्ट्रों से हैं। जब वे जलवायु परिवर्तन के गंभीर और विनाशकारी प्रभावों के बारे में तत्कालीन चेतावनी जारी करते हैं कि वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ जाएगा, तो हमें इसे बहुत गंभीरता से लेना चाहिए।

इसके अलावा, 1.5 डिग्री सेल्सियस पर जारी अपनी रिपोर्ट में आईपीसीसी क्या कहता है? संभवतः एक गर्म दुनिया के खतरों के बारे में एक अनुमान है। कई वैज्ञानिकों का कहना है कि रिपोर्ट ने बदलावों को ध्यान में नहीं रखा है, जिसे टिपिंग प्वाइंट यानी अस्थिर बिंदु कहा जाता है, जिसका खुलासा तापमान वृद्धि के रूप में किया जाएगा। यह अच्छी खबर नहीं है। अभी समय है कि हम इसे समझें और अब जलवायु परिवर्तन के विज्ञान पर सवाल उठाना बंद कर देना चाहिए।

आईपीसीसी ने अपने पिछले निष्कर्षों में संशोधन किया है। अब वह कहता है कि वैश्विक तापमान के प्रभाव की वजह से पहले के 1.5 डिग्री सेल्सियस के तापमान वृद्धि के अनुमान की तुलना में अब अधिक होंगे। हमें इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए। दुनिया में विशेष रूप से गरीब देश- पहले से ही विनाशकारी प्रभाव देख रहे हैं जब तापमान में वृद्धि 1.2 डिग्री सेल्सियस है। जलवायु परिवर्तन हमारे सामने है। अब हमें यह बताने के लिए विज्ञान की आवश्यकता नहीं है कि आगे ऐसा होगा। आईपीसीसी हमें बताता है कि स्थिति बहुत खराब हो जाएगी, और ऐसे में हमें तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने नहीं देना चाहिए।

तब केवल एक ही प्रश्न है, दुनिया को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान से नीचे रखने के लिए क्या करना चाहिए?

आईपीसीसी का अनुमान है कि इस तापमान को नीचे रखने के लिए, दुनिया को 2030 तक मानवजनित कार्बनडाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 45 प्रतिशत तक कटौती करके इसे 2010 के स्तर पर लाना होगा, और 2050 तक इस स्तर को शुद्ध रूप से शून्य तक पहुंचाना होगा। आइए इस कथन को अमल में लाएं। 2030 तक मनुष्यों की गतिविधियों के माध्यम से उत्पन्न कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जन के लगभग आधे हिस्से में कटौती की जानी चाहिए। चूंकि “शुद्ध” उत्सर्जन हैं, इसका मतलब ये है कि दुनिया इससे अधिक उत्सर्जित कर सकती है लेकिन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस उत्सर्जन को “घटा” देना चाहिए।

“प्राकृतिक शोधक” के माध्यम से उत्सर्जन को “घटाया” जा सकता है। उदाहरण के लिए समु्द्र, ये उत्सर्जन अवशोषित करते हैं और दुनियाभर की सफाई प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। फिर “शोधक” के रूप में जंगल भी महत्वपूर्ण हैं। वे कार्बन को अलग करते हैं। लेकिन यह रिपोर्ट कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के माध्यम से तकनीक-प्रेरित उत्सर्जन को घटाने की तरफ इशारा कर रही है, जहां कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में कटौती की जाती है और फिर इसे पृथ्वी की सतह के नीचे गहराई में भंडार के लिए वापस धकेल दिया जाता है।

याद रखें, यह तब होता है जब दुनिया ऊर्जा का उपभोग असमान रूप से करती है और इसीलिए इसका उत्सर्जन भी होता है। चुनौती यह है कि इसे ऐसे समय में कम करना है जब दुनिया के पिछड़े हिस्सों में ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि करनी है। आईपीसीसी के मुताबिक, शेष वैश्विक सीओटू बजट- दुनिया के लिए 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहने के लिए कितना उत्सर्जित किया जा सकता है- इसकी वर्तमान दर 420 गीगाटन सीओटू (जीटीसीओटू) से 580 गीगाटन सीओटू के बीच में है।

याद रखें कि पहले से ही समृद्ध देशों द्वारा कार्बन बजट का एक बड़ा हिस्सा इसमें पहले से ही लगाया जा चुका है। 2030 तक, जब बजट खत्म हो गया है और ऐसे में यदि दुनिया 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान से नीचे रहना चाहती है, तो इसका उत्सर्जन नकारात्मक होना चाहिए। लब्बोलुआब यह है कि यह उतना ही उत्सर्जन करे जितनी सफाई संभव हो। जब गड़बड़ी हो गई है, तब ऐसे में लाखों लोगों के विकास की जरूरतों का क्या, जिनके पास ऊर्जा की पहुंच तक नहीं है और जिन लाखों को अभी भी विकास की आवश्यकता है।

तो क्या इसका मतलब यह है कि दुिनया को जलवायु परिवर्तन में समानता के बारे में बात करना बंद कर देना चाहिए? अमेरिका लंबे समय से यही तो चाहता है। उसके वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल् ट्रम्प इसे चरम पर ले गए। उन्होंने कहा, भारत जैसे वि‍कासशील देश जो विकास का अधिकार चाहते हैं, वे ही समस्या हैं। अमेरिका को और अधिक प्रदूषित करने की अनुमति दी जानी चाहिए क्योंकि यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। यह सब केवल क्रूरता के रूप में कहा जाता है क्योंकि ऐसा वह कर सकता है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि समानता अब कई रास्तों से गुजर रही है। आईपीसीसी की 1.5 डिग्री सेल्सियस की रिपोर्ट के अनुसार भारत जैसे देश, जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। यह उलझने का समय नहीं है कि किसने समस्या पैदा की है, और अब कौन इसे हल करेगा। वह समय चला गया है। इसके अलावा, जो हो गया उस पर बहस करने का कोई फायदा नहीं, कार्बन बजट खत्म हो गया है। देशों ने पहले उत्सर्जन किया और उपलब्ध जगह को पहले ही भर चुके हैं। तो अब यह “समानता” की बात क्या है? इसका क्या मतलब है?

तथ्य यह है कि हमें इस बदले हुए परिदृश्य में “समानता” को कार्यान्वित करना है। इसके लिए कार्य करने के लिए भारत समेत सभी देशों की आवश्यकता है। लेकिन इसके लिए पहले से विकसित दुनिया और विकासशील दुनिया को उनके उत्सर्जन को बढ़ाने के लिए, यदि संभव हो, अलग-अलग और कम कार्बन उत्सर्जन के साथ वित्तीय और प्रौद्योगिकी सहायता में भी गहराई से कटौती की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन के पीड़ितों पर अंगुली उठाने का समय नहीं है। भारत जैसे देशों को विकसित करने के लिए एक जगह की आवश्यकता है। यह उत्साही सशक्तता और नेतृत्व की मांग करता है ताकि दुनिया संयुक्त रूप से और सहयोगी उत्सर्जन को कम करने व विकास प्रदान करने के तरीकों को ढूंढ सके। जलवायु न्याय की आवश्यकता को खारिज करने से हमें कहीं भी कुछ नहीं मिलेगा।

आइए चर्चा करें कि क्या किया जा सकता है। आईपीसीसी ऊर्जा, भूमि, शहरी और बुनियादी ढांचे में तेजी से और दूरगामी संक्रमण को देखता है- परिवहन और भवन क्षेत्रों सहित। उत्सर्जन के लिए ये बड़े योगदानकर्ता हैं। तो, एक और अधिक सुरक्षित भविष्य बनाने के लिए क्या करना होगा? सबसे पहले, इसका मतलब है कि नवीकरणीय ऊर्जा को 2050 तक वैश्विक बिजली का 70-85 प्रतिशत तक आपूर्ति करनी चाहिए। वर्तमान में नवीनीकरण बिजली की जरूरत का कुछ 20 प्रतिशत तक आपूर्ति करता है, जिसमें जल विद्युत संयंत्रों से अधिक आ रहा है। तो, चुनौती बहुत बड़ी है। यह संक्रमण कैसे दूर होगा? इस मिश्रण में प्राकृतिक गैस का हिस्सा लगभग 8 प्रतिशत हो सकता है, लेकिन इसमें सीसीएस भी शामिल होना चाहिए। 2050 तक कोयले का उपयोग शून्य प्रतिशत के करीब होना चाहिए। यह एक बड़ी महत्वाकांक्षा है- विकसित और विकासशील देशों में बिजली उत्पादन के लिए अब भी कोयले का प्रयोग किया जाता है। विकासशील दुनिया को बड़ी संख्या में लोगों को सस्ती ऊर्जा प्रदान करने की आवश्यकता है। यह कोयले को कैसे बदल सकता है और फिर भी वह ऊर्जा सुरक्षा प्रदान कर सकता है? कैसे? यही सवाल है। लेकिन इसके साथ भी सवाल है, कैसे विकसित दुनिया पूरी तरह से बिजली को डी-कार्बनाइज करेगा? और यह सब ट्रम्प के समय में।

चुनौती, महत्वाकांक्षा और कार्रवाई में समानता की है। जलवायु न्याय की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कठोर उत्सर्जन में कमी लाना है। आइए इस पर अपनी नजर रखें। अभी शुरू करें। रोकथाम और विलंब करने का समय खत्म हो गया है।

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