Governance

संसदीय व्यवस्था में अव्यवस्था

केन्याई उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था एक ही लिंग (जेंडर) के दो तिहाई से अधिक सदस्य नहीं हो सकते, संसद ने यह व्यवस्था लागू नहीं की

 
By Juliet Okoth
Published: Tuesday 15 August 2017
30 मार्च को केन्याई उच्च न्यायालय ने पाया कि देश की संसद ने महिलाओं के समानता और भेदभाव से स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया है (सौजन्य : तवाना डॉट ओआरजी)

केन्या की संसदीय व्यवस्था पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इसी साल 30 मार्च को केन्याई उच्च न्यायालय ने पाया कि देश की संसद ने महिलाओं के समानता और भेदभाव से स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया है। दरअसल, संसद ने उस कानून को लागू करने से मना कर दिया था, जिसके तहत एक ही लिंग (जेंडर) के दो तिहाई से अधिक सदस्य नहीं हो सकते।  

अदालत ने संसद को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि यह कानून 60 दिनों के भीतर लागू हो। 60 दिन समाप्त हो चुके हैं और सदन से इस संबंध में अब तक कोई जवाब नहीं मिला है। नतीजतन, संसद अब विघटन के कगार पर है, क्योंकि यह संवैधानिक रूप से आवश्यक लैंगिक सीमा को पूरा करने में विफल रही है।  

जाहिर है, संसद ने लैंगिक समानता नियम को लागू करने में, प्रतिरोध नहीं, तो कम से कम अनिच्छा तो दिखाई ही है। इस ढिलाई का सबसे मजबूत कारण यह है कि पुरुष नेता अपना विशेषाधिकार छोड़ना नहीं चाहते। केन्याई समाज में महिलाएं लगातार व्यवस्थागत भेदभाव का सामना कर रही हैं। समाज में गहरे तक पैठ बना चुकी पितृसत्ता तभी प्रभावी ढंग से दूर हो सकती है, जब लैंगिक कोटा लागू करने के लिए कानून लाया जाए।  

वर्तमान में, संसद में महिलाओं की संख्या मात्र 19 फीसदी है। यह 30 फीसदी की संवैधानिक रूप से आवश्यक सीमा से काफी कम है। लेकिन, अदालत ने संविधान की ईमानदारी से व्याख्या की है। अब यह संसद पर निर्भर करता है कि वह कब तक इस आदेश का पालन करता है। सवाल है कि संसद यह कानून लागू कैसे करेगा?

ऐसा करने के लिए कई तरीके प्रस्तावित किए गए हैं। इसमें एक यह तरीका है कि राजनीतिक दल लैंगिक सीमा को पूरा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा संख्या में महिला सदस्यों को नामित करे। दूसरा, राजनीतिक दल अपने मजबूत गढ़ में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करें और सीट आवंटन में चक्रीय (सीट रोटेशन) प्रक्रिया को अपनाए।  

जाहिर है, इस मुद्दे का कोई आसान समाधान नहीं है। फिर भी, इसे संसद के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। राजनीतिक दलों को इसके लिए प्रयास करने चाहिए। एक बेहतर और न्यायसंगत शासन सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है कि नेता अपने समाज की विविधता को दर्शाए। लैंगिक समानता इस चिंता का एक बुनियादी घटक है।  

सब-सहारन अफ्रीका के कई अन्य देशों ने समान लैंगिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की दिशा में बेहतर काम किया है। रवांडा की संसद में सर्वाधिक 63.8 फीसदी महिला प्रतिनिधित्व है। कैमरून और जिम्बाब्वे ने दो-तिहाई की लैंगिक सीमा और महिला प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने के लिए अपने चुनावी कानूनों में सुधार किया है।  

इन देशों ने यह सुनिश्चित किया है कि महिलाओं के लिए एक निश्चित संख्या लीडरशीप के लिए आगे आए। इन देशों ने एक निश्चित संख्या में निर्वाचित पदों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया है। साथ ही, यह सुनिश्चित भी किया है कि पार्टी सूचियां समान लैंगिक-प्रतिनिधित्व नियम के अनुरूप हों।  

केन्या से गलती कहां हुई?

2010 में केन्या ने एक नया संविधान अपनाया। इसने राजनीतिक संस्थानों के संगठन को बदल दिया। इसमें एक महत्वपूर्ण धारा अधिक से अधिक लैंगिक प्रतिनिधित्व से संबंधित थी।  

संविधान में कहा गया है कि चुनावी निकायों के सदस्यों की दो तिहाई से अधिक संख्या समान लिंग से नहीं हो सकती। यानि एक स्पष्ट संवैधानिक ढांचा बनाया गया जो न्यायसंगत लैंगिक प्रतिनिधित्व का समर्थन करता है। लेकिन इसका कार्यान्वयन निष्प्रभावी और भ्रामक साबित हुआ है। इसका कारण यह है कि संविधान यह नहीं बताता है कि संसद में दो तिहाई की लैंगिक बाध्यता कैसे पूरी होनी चाहिए।  केन्या के अटॉर्नी जनरल को यह भरोसा था कि मतदाता 2013 के चुनावों में दो-तिहाई आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त महिलाओं का चुनाव करने में असफल रहेंगे।

वह इस संभावना को लेकर भी सचेत थे कि राजनीतिक पार्टियां पर्याप्त महिला उम्मीदवारों के साथ अपना नामांकन कोटा नहीं करेंगी, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि संसद में कम से कम एक-तिहाई सदस्य महिला हो।  

इन दोनों स्थितियों में, संसद दो-तिहाई लैंगिक नियम को पूरा करने में नाकाम रहेगी और संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन होगा। ऐसे संवैधानिक संकट को टालने के लिए, अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट से परामर्श मांगा था।

2012 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया था कि लैंगिक समानता नियम का पालन किया जाना चाहिए। अदालत ने 27 अगस्त 2015 को इस कानून को लागू करने की समय सीमा तय कर दी।  

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप और लैंगिक समानता सिद्धांत को लागू करने के लिए संसद के खिलाफ दायर की गई एक याचिका के बाद भी नतीजा शून्य ही रहा।  

महिलाओं का समानता का अधिकार

चूंकि केन्या का मौजूदा संविधान 2010 में लागू किया गया था। इस नियम को सही तरीके से 2013 के चुनावों में लागू किया जाना चाहिए था। इसलिए 2013 के चुनावों के दौरान ही, एक प्रगतिशील अधिकार के रूप में लैंगिक समानता सिद्धांत की व्याख्या करना व्यावहारिक समाधान था। इससे संवैधानिक संकट को दूर किया जा सकता था।  

राजनीति में महिलाओं के खिलाफ ये ऐतिहासिक पूर्वाग्रह एक जटिल मुद्दा है। कई स्तरों पर अभी भी कई बाधाएं और पक्षपात है, जो महिलाओं को राजनीतिक नेतृत्व करने से रोकते हैं। वास्तविकता यह है कि ऐसी समस्या को तुरंत हल नहीं किया जा सकता। सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट ने संसद द्वारा ये कानून पारित करने के लिए समय सीमा क्यों तय की? जाहिर है, अदालत को इस बात का भरोसा नहीं था कि पुरुष सांसद इसे ईमानदारी से लागू करेंगे। संसद ने दो बार इस विधेयक पारित करने की कोशिश की, लेकिन विफल रही।  

विधेयक को सदस्यों द्वारा दो बार अस्वीकार कर दिया गया। उनका मुख्य तर्क यह था कि नए प्रावधानों से संसद के आकार में वृद्धि होगी, जिससे करदाता पर बोझ बढ़ जाएगा।  उन्होंने यह भी तर्क दिया कि इस प्रावधान से महिलाओं को मुफ्त में सीटें मिल जाएंगी।  

कुछ सदस्यों ने आरोप लगाया कि महिलाएं संसदीय बहस में बहुत कम योगदान करती हैं। उन्होंने अपने नामित महिला सहयोगियों का उल्लेख भी निष्क्रिय और व्यस्त होने के तौर पर दिया।  

लेकिन अब अदालती आदेश के बाद से संसद के ऊपर दबाव है। इसे अब इस कानून को पास करने के लिए सर्वोत्तम तंत्र अपनाने की जरूरत है।  

लैंगिक समानता नियम को लागू करने के साथ ही संसद को आदर्श महिला लीडरशीप सुनिश्चित करनी चाहिए। संसद को अपनी बढ़ती संख्या का प्रबंधन करने के लिए विवेकपूर्ण तरीका खोजते हुए ये सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे पदों पर सक्षम महिलाएं आगे आएं।  इस सब के साथ, संविधान ने जाहिर तौर पर एक आदर्श बदलाव किया है। इस स्वागत योग्य बदलाव को अब बदलने का सवाल ही नहीं उठता। संसद को लैंगिक समानता नियम का क्रियान्वयन सुनिश्चित करना चाहिए।  

(लेिखका इंटरनैशनल लॉ, नेरौबी यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं। द कन्वरसेशन से खास समझौते के तहत प्रकाशित)

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