मानवाधिकार कार्यकर्ता की अपमानजनक हार ने कहीं और जीत का संकेत दिया
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित होने के बाद ये पांच शब्द पूरे देश में सुनाई दे रहे हैं। जबकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता जिनकी उत्तर प्रदेश चुनाव में शानदार जीत तथा अपार जनादेश मिलना सुर्खियां बनी हैं, मणिपुर से उत्पन्न होने वाले ये पांच शब्द किसी अन्य विपक्षी नेताओं के मुकाबले ज्यादा सुर्खियों में रहे। ये शब्द इरोम शर्मिला की प्रतिक्रिया थी, मगर मणिपुर और दुनिया भर में सबसे लोकप्रिय उम्मीदवार होने के बाद भी उन्होंने अपनी पहली चुनावी लड़ाई गंवा दी। उन्हें सिर्फ 90 मत मिले।
ये उन लोगों के लिए जानना जरूरी है जो उन्हें नहीं जानते। वह सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम यानि एएफएसपीए को खत्म करने की मांग करते हुए 16 साल तक अनशन करती रही। यह कानून सशस्त्र बलों को अधिक ताकत देता है और आमतौर पर मणिपुर जैसे अशांत क्षेत्रों में इसका प्रयोग किया जाता है। पिछले साल ही शर्मिला ने अपना अनशन तोड़ा और चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला किया। इन वर्षों में वह मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली प्रतीक के रूप में उभरी।
कोई हार ऐसी रोष पैदा नहीं करती। सिर्फ पांच शब्दों में उनकी प्रतिक्रिया 2011 में अन्ना हजारे द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ उपवास के दौरान “मैं अन्ना हूं” की जागरुकता को अग्रसर करता है। हजारे के उपवास ने कई बदलाव किए, जिसमें अरविंद केजरीवाल को एक राजनेता के रूप में उभरने और तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (युनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस) सरकार का पतन शामिल थी। यहां, यह प्रश्न भी उठता है कि चुनावी राजनीति में केजरीवाल काफी सफल क्यों हैं, जबकि वह भी शर्मिला की तरह ही एक सामाजिक कार्यकर्ता थे। एक और बुनियादी सवाल और है कि क्यों शर्मिला एक ऐसे मुद्दे पर हार गई जिसका मणिपुर में सभी लोग समर्थन करते हैं। यह वह जगह है जहां दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए अच्छे और बुरे संदेश दोनों बेमतलब हैं।
अच्छा संदेश यह है कि लोकतंत्र में मतदाताओं को राजनीति और चुनावों के बीच अंतर को समझना आना चाहिए। हालांकि हम हमेशा इसे स्वीकार करते हैं कि दोनों पद समान हैं और अलग नहीं किए जा सकते हैं। बुनियादी चीजों के स्पष्टीकरण पर ध्यान न भी दें, लेकिन यह समय की जरूरत है। राजनीति को गतिविधियों के रूप में परिभाषित किया जाता है जो एक सरकार के रूप में सत्ता हासिल करने या चुनाव के दौरान सरकार को प्रभावित करने के लिए है। जबकि चुनाव सरकार बनाने के लिए असली मुकाबला/प्रतिस्पर्धा है। दोनों ही कुछ हद तक एक दूसरे के पूरक हैं। जरूरी नहीं कि इसे एक ही तरह से समझा जाए।
शर्मिला का मानवाधिकार उल्लंघन के खिलाफ लड़ाई सरकार को प्रभावित करने की राजनीति है, जिससे उपरोक्त कानून को रद्द किया जा सके। लेकिन उनके चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने से राजनीति के उन पहलुओं के बारे में पता चलता है, जिसका उद्देश्य बदलाव लाने के लिए सरकार को सत्ता में लाना है। चुनाव लड़ने का निर्णय लेने से वह एक से अधिक तरीकों से राजनीति छोड़ कर जाती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि चुनावों को एक एजेंडे के आधार पर नहीं माना जाता। इसमें कई एजेंडे शामिल होते हैं, जो अक्सर विरोधाभासी होते हैं। केजरीवाल सक्रिय राजनीति में अग्रसर हैं। हाल ही में हुए चुनाव के परिणाम में इनकी भूमिका अधिक प्रभावी थी।
चुनावी राजनीति के सरलीकरण का जोखिम उठाते हुए, शर्मिला की हार की उपरोक्त तरीके से व्याख्या की जा सकती है। इससे यह पता चलता है कि सामाजिक कार्यकर्ता और सिविल सोसाइटी समूह चुनावी राजनीति में शामिल हो रहे हैं। यह नया नहीं है, लेकिन यह एक नए सिरे से सीखने की अहम कड़ी है। सिविल सोसायटी के सदस्यों ने विकास, पर्यावरण प्रदूषण और मानवाधिकार के एजेंडे का झंडा बुलंद किया है। वे निश्चित रूप से राजनीति कर रहे हैं और जानते हैं कि इन मुद्दों को लेकर किस तरह से सरकार को प्रभावित करना है। चुनावी राजनीति में प्रवेश एक अलग योजना हो सकती है। ऐसा करने से शासन और राजनीति में मुद्दे अधिक हाशिए पर आते हैं। शर्मिला की हार से यह अच्छी बात यह निकल कर आती है कि राजनीति तो करो, लेकिन यह भी तय करो कि किस तरह की राजनीति करनी है।
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