जल संकट का समाधान: जातक युग की जल संपदा है आहर-पइन

सदियों पुरानी जल प्रणाली आहर-पइन उचित रख-रखाव के अभाव में वजूद खो चुकी थी। पिछले दशक में शुरू किए प्रयास से यह प्रणाली फिर से जीवित हो उठी है। इससे दक्षिण बिहार के किसानों को खेती के लिए पर्याप्त पानी मिलने लगा है

By DTE Staff

On: Tuesday 29 October 2019
 
पहाड़ी नदियों के पानी को खेती के उपयोग में लाने के लिए बने जल मार्ग पइन कहलाते थे। कुनाला गांव का यह पुराना पइन करीब-करीब सूख चुका है (गणेश पंगारे / सीएसई)

भौगोलिक बनावट के हिसाब से बिहार को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है-उत्तर बिहार का मैदानी इलाका, दक्षिण बिहार का मैदानी इलाका और छोटानागपुर या पठारी क्षेत्र (जो कि अब झारखंड में है)। उत्तरी बिहार का इलाका नदियों के साथ आई मिट्टी से बना है और यह नेपाल के तराई इलाकों से लेकर गंगा के उत्तरी किनारे तक आता है। यहां की जमीन काफी उर्वर है और यहां घनी आबादी है। दक्षिण का मैदानी इलाका गंगा के दक्षिणी तट से लेकर छोटानागपुर के पठारों के बीच स्थित है। यहां सोन, पुनपुन, मोरहार, मोहाने गामिनी नदियां हैं, जो गंगा में जाकर मिलती हैं। सोन को छोड़कर बाकी सभी नदियों का उद्गम स्थल छोटानागपुर की पहाड़ियां हैं। बरसात के समय छोटी नदियां भी भयावह रूप धारण कर लेती हैं। बिहार में सालाना औसत बरसात पटना में 1,000 मिमी. से लेकर पूर्वी हिस्सों में 1600 मिमी. या उससे भी अधिक होती है।

गंगा के मैदानी इलाके के दक्षिणी भाग पुराने पटना, गया और शाहाबाद जिलों तथा दक्षिणी मुंगेर और दक्षिणी भागलपुर की जमीन में आर्द्रता संभालने की क्षमता कम है। यहा भूजल का स्तर बहुत नीचा है और गंगा के किनारे के इलाकों को छोड़ दें तो कुआं खोद पाना बहुत मुश्किल है। यह इलाका दक्षिण से उत्तर की तरफ तेज ढलान वाला भी है, जिससे यहां पानी टिक नहीं पाता। इस प्रकार इस इलाके की जलवायु खेती के बहुत अनुकूल नहीं है। लेिकन यही प्राचीन सभ्यता का केंद्र रहा है। इस इलाके में िसंचाई की मुख्य व्यवस्था आहर और पाइन की है।

आहर-पइन प्रणाली संभवतः जातक युग (बुद्ध की पूर्ववर्त्ती अवतारों की कहानियों के लिखे जाने वाले दौर) से ही प्रयोग में लाई जा रही है। इसी इलाके में लिखे गए कुणाल जातक में जिक्र है कि किस तरह सारे लोग मिलकर पइनों का निर्माण करते थे और कई बार यही किसी के खेतों या इलाकों की सीमा रेखा बनती थीं। पर इस संपदा से पानी के उपयोग को लेकर अक्सर विवाद भी उठते रहते थे। एक गांव या किसान के हिस्से के पानी को दूसरी तरफ के खेतों में मोड़ने को लेकर विवाद चलते थे। कई बार तो यह झगड़ा बढ़ते-बढ़ते दो गांवों के बीच खूनी टकराव में बदल जाता था। फिर पंचायत के लिए स्थानीय परिषद का दरवाजा खटखटाना पड़ता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में आहरोदक-सेतु से सिंचाई का जिक्र है। मेगास्थनीज के यात्रा विवरण में बंद मुंह वाले नहरों से सिंचाई का जिक्र है। मेगास्थनीज यूनान का इतिहासकार था, जो चंद्रगुप्त मौर्य (ई.पू. 321-297) के शासनकाल में भारत घूमने आया था। उसकी किताब ‘भारत का विवरण’ काफी प्रसिद्ध है।

दक्षिण बिहार में जमीन की ढलान प्रति किलोमीटर करीब एक मीटर की है। इसी भौगोलिक बनावट के मद्देनजर एक या दो मीटर ऊंचे बांधों के जरिए आहर खड़े किए जाते हैं। बड़े बांध के दोनों छोरों से दो छोटे बांध भी निकाले जाते थे, जो ऊंचाई वाली जमीन की तरफ जाते थे। इस प्रकार आहर पानी को तीन तरफ से घेरने वाली व्यवस्था बन जाती थी। तालाबों की तरह यहां तलहटी की खुदाई नहीं की जाती थी। कई बार आहर सोतों या पइनों के नीचे बनाए जाते थे, जिनसे उसे पानी मिलता रहे। एक किमी. से ज्यादा लंबे आहर से 400 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन की सिंचाई हो जाती थी और इतने बड़े आहर भी बना करते थे, लेिकन छोटे आहरों की संख्या ज्यादा थी। दक्षिण िबहार में तालाब नहीं थे, मगर आहरों की तुलना में उनकी उपयोिगता बहुत ही कम थी।

पहाड़ी नदियों से खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए पाइनों का निर्माण किया जाता था। दक्षिण बिहार में अक्सर नदियां वर्ष के ज्यादा समय सूखी रहती हैं, पर बरसात होते ही एकदम उफन पड़ती हैं। ढलान और बलुआही मिट्टी के चलते या तो पानी सीधे तेजी से ढलककर नीचे आता है या रेत से रिसकर नीचे पहुंचता है। ऐसे में पइनों का निर्माण इस पानी को खेतों तक पहुंचाने के लिए किया जाता था। कुछ पइन तो 20-30 किमी. लंबे थे और अनेक शाखा-प्रशाखाओं के माध्यम से 100 से भी ज्यादा गांवों में सिंचाई किया करते थे। चूंकि नदियों का पेट रेत के चलते काफी कम हो गया होता है, इसलिए पइन त्यादा गहरे नहीं होते थे। ढलान के अनुसार वे अपने मूल से कुछ दूरी तक की ही जमीन सींच पाते थे। पइनों में पानी का स्तर ऊपर करने के लिए जहां-तहां उनको बांध लिया जाता था। कई मामलों में पइनों के आखिरी छोर पर चौकस बांध बना दिए जाते थे, जिनसे वहां पानी जमा हो जाए। कभी पइनों से आहरों में पानी भरता या तो कभी आहरों का पानी पइनों के माध्यम से खेतों तक जाता था। आहर और पइन, दोनों में जुलाई से सितंबर तक काफी पानी रहता था, जो बरसात कम होने पर बाद में काम आता था।

गया जिले में धान फाउंडेशन के प्रयासों से आहर पइन प्रणाली को पुनर्जीवित किया गया (सौजन्य: धान फाउंडेशन)

1810-11 में ऐन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक्स ऑफ भागलपुर लिखने वाले ब्रिटिश पर्यवेक्षक एफ. बुकानन को तालाबों की तुलना में यह व्यवस्था पसंद आती थी। उन्होंने लिखा कि दक्षिण बिहार में सिंचाई बहुत ही गड़बड़ थी। उन्हें आहर-पइन व्यवस्था का कम खर्चीला होना पसंद था, पर तालाबों की व्यवस्था उन्हें ज्यादा पसंद थी। हालांकि जैसे-जैसे वे भागलपुर से गया की तरफ बढ़े उनकी राय बदलती गई। पहले उन्होंने लिखा था कि दक्षिण बिहार में टिकाऊ सिंचाई व्यवस्था बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई और जो व्यवस्था है वह बरसात के दौरान कम पानी पड़ने के समय या बरसात के बाद से एकाध महीने की सिंचाई लायक है, जिससे तब लगी फसल बर्बाद न हो। पर गया पहुंचकर उन्होंने लिखा, “आहरों और पइनों में इतना पानी रहता है कि किसान सिर्फ धान की फसल ही नहीं लेते, बल्कि सर्दियों में गेहूं और जौ उगाने के लिए उसका प्रयोग कर लेते हैं।” पानी को ढेंकुली और पनदौरी जैसी कई व्यवस्थाओं ऊपर लाकर खेतों तक पहुंचाया जाता था।

इस व्यवस्था का विश्लेषण करने वाले निर्मल सेनगुप्त लिखते हैं, “बाहर से दिखने में आहर-पइन व्यवस्था भले ही जितनी बदरूप और कच्ची लगे, पर यह एकदम मुश्किल प्राकृतिक स्थितियों में पानी के सर्वोत्तम उपयोग की अद्भुत देसी प्रणाली है।” सिंचाई के अलावा इस व्यवस्था की एक ओर उपयोगिता है जिसकी चर्चा बहुत कम हुई है। छोटानागपुर के पठारी इलाके और गंगा घाटी के बीच स्थित होने के चलते दक्षिण बिहार में अक्सर बाढ़ का कुछ पानी समा जाता है और पइनों से बाढ़ के पानी की निकासी तेज हो जाती थी। कुल मिलाकर उसकी तबाही बहुत कम हो जाती है। यह व्यवस्था इतनी प्रभावी थी कि यहां की कुछ नदियों का पूरा पानी सिंचाई में प्रयोग कर लिया जाता है और जब तक ये नदियां गंगा या पुनपुन तक पहुंचें एकदम रीत चुकी होती थीं।

गया जिले की बाढ़ सलाहकार कमेटी ने 1949 में लिखा थाः कमेटी की राय है कि जिले में बाढ़ का असली कारण पारंपरिक सिंचाई प्रणालियों में आई गिरावट है। जमीन ढलवा है और नदियां उत्तर की तरफ कमोवेश समांतर दिशा में बहती हैं। मिट्टी बहुत पानी सोखने लायक नहीं है। अभी तक चलने वाली सिंचाई व्यवस्थाएं पूरे जिले में शतरंज के मोहरों की तरह बिछी थीं और ये पानी के प्रवाह पर रोक-टोक करती थीं।

गया जिले में आहर-पइन व्यवस्था व्यापक तौर पर प्रयोग की जाती थी। 1901-03 के सिंचाई आयोग का मानना था कि इनसे 6,76,113 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती है, जो जिले की कुल जमीन का आधे से ज्यादा है। दक्षिण बिहार के कुल सिंचित क्षेत्र में इस व्यवस्था से सिंचाई करने वाले क्षेत्रों का हिस्सा तीन-चौथाई होगा। अनेक अन्य अंग्रेज लेखकों ने भी आहर-पइन व्यवस्था की तारीफ की है। एल.एस.एस.ओ. मेली ने 1919 के गजेटियर में लिखा है, “पूर्वी बंगाल के रैयत के लिए धान की खेती करना बहुत मुश्किल है; क्योंकि न तो यहां की मिट्टी उसके अनुकूल है, न यहां भरोसे लायक बरसात होती है।” धान को तो अपने पूरे समय के कम-से-कम तीन-चौथाई समय पानी चाहिए। पर पूर्वी बंगाल से भी लगभग आधी बरसात वाले उस क्षेत्र में धान की खूब खेती हो रही है, जहां पानी टिकता भी नहीं है। दक्षिण बिहार में धान की मुख्य फसल है और पूर्वी बंगाल के भी पहले से उगाई जा रही है। इसका श्रेय काफी हद तक आहर-पइन प्रणाली को जाता है। धान की अगली फसल का 90 फीसदी हिस्सा सिंचित जमीन पर ही उगता था और उन्हें मुख्यतः आहर पइन से पानी मिलता था। आहर आमतौर पर गांव के दक्षिणी और ऊंचे भाग में स्थित होते थे और उनमें सिंचित होने वाले खेत गांव के उत्तर में होते थे। पूरा का पूरा दक्षिण बिहार ही ऐसी हल्की ढलान वाला मैदान है। हर गांव में धनहर और भीत खेत थे।

सूखे वाले वर्षों में आहर के पेट में भी धान लगा दिया जाता था। कई बार जब आहर का पानी खरीफ फसल में ही लग जाता था, तब भी उसके पेट में रबी की फसल लगा दी जाती थी। पर अक्सर ऐसा नहीं होता या भीत खेतों में ही रबी की फसल होती थी और उनकी सिंचाई कुओं से की जाती थी।

आहर और पइन का उपयोग सामुहिक रूप से ही होता था और सभी किसानों को मिलजुलकर खेती करनी होती थी। सो, एक-एक पखवाड़े के अतंराल पर खास खेतों की खास फसल के लिए सामूहिक कोशिश होती थी। दक्षिण बिहार में यही चलन आज भी है। आमतौर पर 20 जून से 5 जुलाई तक धान के बीज गिरा दिए जाते हैं और 18 जुलाई से 15 अगस्त तक रोपनी चलती है। 12 से 25 सितंबर के बीच धान के खेतों में जमा पानी को निकाल दिया जाता है (जिसे नीगार कहा जाता है) और 25 सितंबर से 7 अक्टूबर के बीच फिर से पानी भरा जाता है। जिस समय दोबारा पानी भरा जाता है उस समय हथिया नक्षत्र का पानी बरसता है, पर सिर्फ उसके भरोसे नहीं नहीं रहा जा सकता। सिंचाई का प्रबंध रखना जरूरी था। पर यह बरसात बहुत उपयोगी होती थी। सिर्फ खड़ी फसलों के लिए ही नहीं, आगे की रबी की फसल के लिए भी।

आहर-पइन कितनी उपयोगी और विश्वसनीय थी, इसका पता इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि पूरे देश का प्रायः हर इलाका निरंतर अकालों की चपेट में आता रहा, लेिकन गया जिला इससे अछूता रहा। 1866 के उड़ीसा अकाल में, असमय बरसात से पड़े 1873-74 के बिहार अकाल और 1896-97 के अकाल के समय गया जिले को अकाल राहत की जरूरत नहीं पड़ी। पर इस सिंचाई व्यवस्था में गिरावट के साथ ही इसकी मजबूती भी जाती रही। 1930 के दशक से यहां कमी पड़ने लगी। 1950-52 और 1957-59 के सूखे और अकाल के समय गया जिले के नवादा अनुमंडल की स्थिति खासतौर से खराब हो गई।

वर्ष 1966 के अकाल की गया जिले पर भी वैसी ही मार पड़ी जैसी बिहार के अन्य जिलों पर। पुराने गया जिले के अनेक हिस्सों को अक्सर सूखे वाला इलाका माना जाता है। सिंचाई की इस अनोखी व्यवस्था के चलते पहले गया जिले में बाढ़ भी नहीं आती थी। पर हाल के वर्षों में इस मामले में भी उसका बचाव नहीं हो पाता।

पुनरुद्धार के प्रयास

बिहार में सदियों पुरानी जल प्रणाली आहर-पइन समुचित रख-रखाव के अभाव में दम तोड़ चुकी थी। इसके कारण स्थानीय लोगों की जल के अन्य स्रोत पर निर्भरता बढ़ गई। साथ ही पानी के असमान वितरण के कारण समाजिक व्यवस्था भी विरूपित होने लगी। छोटे किसानों को पर्याप्त पानी नहीं मिलने के कारण उनकी फसलें बर्बाद होने लगी।

ऐसे में जल प्रबंधन की परंपरागत प्रणाली की ओर लौटना जरूरी लगने लगा। वर्ष 2010 में एक गैर-लाभकारी संस्था धान फाउंडेशन ने सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के सहयोग से गया और औरंगाबाद जिलों के गांवों में आहर-पइन को पुनर्जीवित करने के प्रयास से शुरू किए। संस्था ने स्थानीय लोगों और किसानों को इस प्रणाली के बारे में न सिर्फ जागरूक किया, बल्कि उन्हें इनके पुनरुद्धार में सहयोग करने के लिए भी राजी कर लिया। प्रयोग के तौर पर सबसे पहले दक्षिण बिहार के चार पइनों को पुनरुद्धार के लिए चुना गया।

हालांकि इस काम में कई तरह की चुनौतियां थीं। हर साल नदी के तटीय क्षेत्रों में बनाए गए रेत के अस्थाई बांध और कटाव के कारण पइन का मुंह चौड़ा हो गया था। साथ ही आहर-पइन के तल में गाद जमा हो जाने से पानी का बहाव बाधित हो रहा था। कई स्थानों पर आहर-पइन पर अतिक्रमण भी इनके पुनरुद्धार के मार्ग में बड़ी बाधा थी। धान फाउंडेशन ने सबसे पहले गया जिले के टनकुप्पा ब्लाक से अपना काम शुरू किया। शुरुआत में स्थानीय लोगों ने इस काम में रुचि नहीं दिखाई। लेकिन फाउंडेशन के सदस्यों द्वारा लगातार जागरूक करने पर ग्राम स्तर और पइन स्तर की समितियों का गठन किया जा सका। इसके बाद गांव के लोगों के सहयोग से आहर-पइन का पुनरुद्धार शुरू हुआ।

कई गांवों में चौबीसों घंटे के अथक प्रयास ने गया और औरंगाबाद जिले के आहर-पइनों का सफलतापूर्वक पुनरुद्धार किया। केंद्रीय भूमिजल बोर्ड की भूजल सूचना पुस्तिका के अनुसार गया जिले में वर्ष 2008-09 में कुल सिंचित भूमि 1,26,000 हेक्टेयर थी जो कि वर्ष 2012-13 में बढ़कर 1,79,948 हेक्टेयर हो गई।

- चैतन्य चंदन

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