मंडियों तक नहीं पहुंच पाता माल्टा, हर साल हो जाता है बर्बाद
वर्ष 2019-20 में उत्तराखंड में 21739.72 हेक्टेअर क्षेत्र में नीबू प्रजाति (अधिकतर माल्टा और गलगल) का 91177.74 मीट्रिक उत्पादन हुआ
On: Thursday 31 December 2020
उत्तराखंड के पहाड़ों में इस समय माल्टा के पेड़ फलों से लदे हुए हैं। धूप में बैठकर नारंगी रंग के इस रसदार फल का खट्टा स्वाद लिया जाता है। लेकिन माल्टा उगाने वालों की जेब भी खट्टी ही रहती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य बेहद कम है और बाजार की कोई व्यवस्था नहीं है। तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन में पहाड़ की आवाज बेहद धीमी है। लेकिन खेत बंजर छोड़कर नौकरी के लिए शहर निकलने वाली आबादी बड़ी है।
रुद्रप्रयाग के जखोली ब्लॉक के काश्तकार सतीश भट्ट के पास माल्टा के करीब 35 पेड़ हैं। एक पेड़ पर तकरीबन दो क्विंटल तक की उपज होती है। वह डाउन टु अर्थ को बताते हैं कि पिछले वर्ष राज्य सरकार ने माल्टा की तीन ग्रेड बनायी थी और 7-10 रुपये प्रति किलो तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किया था। इस बार सिर्फ सी ग्रेड माल्टा की एमएसपी सात रुपये प्रति किलो तय की है। खरीद की कोई व्यवस्था नहीं बनायी गई है। उद्यान विभाग ने अपने स्टॉल नहीं लगाए हैं। इससे पहले उद्यान विभाग काश्तकारों से माल्टा खरीदता था और गढ़वाल मंडल विकास निगम को बेचता था।
वह कहते हैं कि किसान सात रुपये किलो की कीमत पर माल्टा बेचकर क्या कमाई करेगा। गांव में आकर लोग 8-10 रुपये किलो के हिसाब से फल खरीद रहे हैं। अगर बाजार तक फल ले जाओ तो 10-12 रुपये तक कीमत मिल जाएगी। इस वर्ष सतीश ने खुद ही छोटे ट्रक में माल्टा देहरादून की कॉलोनियों में लाकर बेचा। जहां उन्हें 25-35 रुपये प्रति किलो तक की कीमत मिल गई। वह कहते हैं कि चार-पांच पेड़ों वाला काश्तकार इस तरह अपनी उपज नहीं बेच सकता।
पिछले वर्ष का वह अपना अनुभव भी साझा करते हैं। “देहरादून की मंडी में करीब 20 क्विंटल माल्टा ट्रक में भरकर लाया था। तीन दिन ट्रक लेकर खड़ा रहा कोई खरीदार नहीं मिला। एक दाना भी नहीं बिका। मुझे पूरा माल्टा छोड़ना पड़ा। भाड़ा भी देना पड़ा। एक भी रुपया नहीं मिला उलटा जेब से गया”। सतीश कहते हैं माल्टा होता तो खूब है लेकिन बेचना उतना ही मुश्किल है।
रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि ब्लॉक के भीरी गांव की काश्तकार रंजना रावत कहती हैं कि सरकार अपनी तरह से जो भी एमएसपी तय करती है, लेकिन मार्केटिंग की कोई व्यवस्था नहीं करती। छोटा किसान अगर मंडी तक अपनी उपज ले जाएगा तो मालभाड़ा देने में ही उसका नुकसान हो जाएगा। कभी कोई फूड प्रॉसेसिंग कंपनी गांव में आती है और अपनी जरूरत भर का माल खरीद कर चली जाती है। गांववाले अपनी उपज बेचने के लिए अपने-अपने संपर्कों का इस्तेमाल करते हैं।
उद्यान विभाग में रुद्रप्रयाग में निरीक्षक जगदीश टम्टा बताते हैं, “अभी तक जिले में माल्टा की सरकारी खरीद नहीं हुई है। किसी भी किसान ने अपनी उपज हमें नहीं दी और न ही हमसे संपर्क किया। काश्तकार सरकारी रेट पर माल्टा बेचने को तैयार नहीं होता। कोई सात रुपये में एक किलो माल्टा क्यों देगा जब बाज़ार में दो दाने दस रुपये में बिक रहे हैं”। पर्वतीय क्षेत्रों में मंडी की आवश्यकता पर जगदीश टम्टा कहते हैं कि यहां इतनी उपज ही नहीं होती।
माल्टा का ज्यादातर इस्तेमाल जूस में होता है। चारधाम यात्रा के दौरान पर्यटक बुरांश और माल्टा जैसे पर्वतीय फलों के जूस खरीदने में दिलचस्पी दिखाते हैं। राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इस समय कुल 48 फूड प्रॉसेसिंग यूनिट कार्य कर रही हैं। इसमें सबसे अधिक पौड़ी और अल्मोड़ा में 6-6 यूनिट हैं।
उद्यान और खाद्य प्रसंस्करण निदेशालय की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में वर्ष 2019-20 में 25785.39 हेक्टेअर क्षेत्र में सेब का 36071.11 मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ। इसी दौरान 21739.72 हेक्टेअर क्षेत्र में नीबू प्रजाति (अधिकतर माल्टा और गलगल) का 91177.74 मीट्रिक उत्पादन हुआ। पर्वतीय क्षेत्रों में नाशपाती, आडू, प्लम, खुबानी और अखरोट का उत्पादन भी होता है। सेब की बाजार में अच्छी मांग है, जबकि माल्टा की मांग और कीमत दोनों कम है और बाजार तक पहुंचाना मुश्किल है।
उद्यान विभाग में कार्यकारी अधिकारी और मार्केटिंग की व्यवस्था देख रहे रतन कुमार डाउन टु अर्थ को बताते हैं “इस वर्ष अब तक माल्टा की कोई सरकारी खरीद अभी तक नहीं हुई है। एमएसपी के रेट काफी कम है और किसानों को इससे बेहतर रेट बाज़ार में मिल रहा है। हमने सभी जिलों से इसकी सूचना ली है। 31 जनवरी तक खरीद की आखिरी तारीख है। ए-बी ग्रेड का माल्टा हाथोंहाथ बिक जाता है। सी ग्रेड माल्टा यदि नहीं बिकता तो हम उसे खरीद कर प्रॉसेसिंग यूनिट को भेजते हैं”।
कृषि विशेषज्ञ डॉ राजेंद्र कुकसाल कहते हैं कि पहाड़ के किसानों को एमएसपी-मंडी पर निर्भर न रहना पड़े, इसके लिए अच्छी गुणवत्ता के पौधों की जरूरत है। हिमाचल के सेब और जम्मू-कश्मीर के किन्नू बाजार में खूब बिक रहे हैं जबकि उत्तराखंड का माल्टा बाज़ार के लिए तरस रहा है। कई जगह तो पेड़ों पर ही खराब हो जाता है। हमारे राज्य के फल सी ग्रेड में आते हैं। हिमाचल की सीमा से लगते उत्तरकाशी के फलों की गुणवत्ता ही बेहतर होती है, क्योंकि वहां हिमाचल से ही पौधे और अन्य कृषि सामान लाए जाते हैं।
डॉ कुकसाल माल्टा जैसे फल के उत्पादन को बढ़ावा देने की सरकारी योजनाओं पर भी सवाल खड़े करते हैं। उनके मुताबिक माल्टा जंगली फल है जिसका स्वाद बेहद खट्टा होता है और इसके जूस में भी चीनी ज्यादा मिलानी पड़ती है। माल्टा की जगह संतरे के उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए।
उत्तराखंड राज्य में उद्यान विभाग का बजट बढ़ा है, लेकिन फल उत्पादन कम हुआ है। पलायन आयोग की रिपोर्ट इसकी पुष्टि करती है। पौड़ी, टिहरी और अल्मोड़ा में उद्यान विभाग के आंकड़े से फल उत्पादन का क्षेत्रफल कहीं कम पाया गया। आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक “पौड़ी में पिछले 10 वर्षों में सेब का उत्पादन क्षेत्र 1100 हेक्टेअर से घटकर 212 हेक्टेअर तक हो गया है। जबकि यहां बागवानी की अच्छी संभावनाएं हैं। बाजार में मांग भी है। लेकिन किसानों के पास उन्नत तकनीक नहीं है। नर्सरी नहीं है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि यहां के फल दिल्ली जैसे शहरों के बड़े बाजारों में निर्यात किए जा सकते हैं। लेकिन किसानों के पास कोई व्यवस्था नहीं है।
डॉ कुकसाल में कृषि-बागवानी से जुड़े वास्तविक आंकड़ों की जरूरत बताते हैं।फर्जी फल उत्पादन के आंकड़ों के सहारे लगी ज्यादातर बड़ी खाद्य प्रसंस्करण यूनिटें बन्द हुई है। सबसे ज्यादा मार पर्वतीय किसानों पर पड़ी है। उन्हें अपनी उपज का बाज़ार ढूंढ़ना पड़ता है और औने-पौने दामों में बेचना पड़ता है। जैसा कि इस समय माल्टा के साथ हो रहा है।