क्या दुनिया का पेट भर पाएगा भारत या संकट से निपटने के लिए गेहूं करेगा आयात?

एक ओर मार्च-अप्रैल की गर्मी की वजह से गेहूं का उत्पादन कम हुआ तो दूसरी ओर रूस-यूक्रेन युद्ध का फायदा उठाने के लिए निजी व्यापारी गेहूं की खरीददारी कर रहे हैं

By Raju Sajwan

On: Tuesday 03 May 2022
 
मार्च-अप्रैल में भीषण गर्मी की वजह से गेहूं के उत्पादन पर असर पड़ा है। फोटो: विकास चौधरी

सरकारी एजेंसियों ने 2 मई 2022 तक देश में 161.92 लाख मीट्रिक टन गेहूं की खरीद की है। जबकि पिछले साल 27 अप्रैल 2021 तक के आंकड़े बताते हैं कि 232.49 लाख मीट्रिक टन गेहूं खरीदा गया था। यानी कि पिछले साल के मुकाबले इस साल लगभग 30 प्रतिशत खरीददारी कम हुई है।

इससे इतर सरकार ने 2022-23 में 444 लाख टन गेहूं खरीद का लक्ष्य रखा है, लेकिन एक माह के दौरान जिस तरह से खरीद हो रही है, जानकारों का अनुमान है कि सरकार लक्ष्य से लगभग 50 फीसदी कम गेहूं खरीद पाएगी।

सरकारी खरीद में गिरावट की दो बड़ी वजह बताई जा रही हैं। एक, मार्च में शुरू हुए भीषण गर्मी के सिलसिले के कारण गेहूं के उत्पादन में कमी और दूसरा रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद उपजे वैश्विक संकट का फायदा उठाने के लिए गेहूं के निर्यात की ओर ध्यान देना।

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा फरवरी 2022 में जारी दूसरे अग्रिम अनुमान के मुताबिक 111.32 मिलियन (11.132 करोड़) टन गेहूं उत्पादन का अनुमान लगाया गया था। 31 मार्च 2021 को यूनाइटेट स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर (यूएसडीए) एवं ग्लोबल एग्रीकल्चरल इंफॉर्मेशन नेटवर्क (गेन) की रिपोर्ट में भारत में 2021-22 में 97 मिलियन (9.70 करोड़) टन गेहूं की खपत का अनुमान लगाया गया।

इसका मतलब है कि दूसरे अग्रिम अनुमान के मुताबिक उत्पादन को खपत से कम कर दिया जाए तो भारत में लगभग 14.32 मिलियन (143 लाख) टन गेहूं की बचत हो सकती थी। सरकार ने इसमें से 10 मिलियन टन गेहूं निर्यात करने का लक्ष्य रखा था, लेकिन मार्च-अप्रैल की गर्मी ने इन आंकड़ों को उल्टफेर कर दिया।

नीति आयोग के सदस्य एवं कृषि अर्थशास्त्री रमेश चंद ने बिजनेस स्टैंडर्ड को दिए एक साक्षात्कार में माना है कि मार्च-अप्रैल की गर्मी की वजह से 6 से 10 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन कम हो सकता है। हालांकि सबसे बड़े गेहूं उत्पादक राज्य पंजाब और हरियाणा के किसान गेहूं उत्पादन में 10 से 30 फीसदी तक के नुकसान का अनुमान लगा रहे हैं।

एक ओर जहां गेहूं के उत्पादन कम होने का अनुमान लगाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर रूस-यूक्रेन युद्ध का फायदा उठाने के लिए निजी व्यापारी जमकर गेहूं खरीद रहे हैं। इसका असर सरकारी खरीद पर पड़ा है। गेहूं उत्पादन के मामले में दूसरे नंबर के राज्य मध्य प्रदेश में यह साफ तौर पर देखा जा रहा है। 

दरअसल, जैसे ही रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ और इन दोनों देशों से गेहूं का निर्यात प्रभावित होने लगा तो निजी व्यापारियों ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए गेहूं की खरीददारी बढ़ा दी।

खुद केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने 15 अप्रैल 2022 को एक ट्वीट किया, जिसमें कहा कि भारतीय किसान दुनिया का पेट भर रहा है। मिस्र ने भारत से गेहूं के आयात को मंजूरी दे दी है। वैश्विक बाजार में बढ़ती मांग को देखते हुए वित्त वर्ष 2022-23 में गेहूं का निर्यात 100 लाख (10 मिलियन) टन पार कर जाएगा। इससे पहले वर्ष 2021-22 में भारत ने लगभग 70 लाख टन गेहूं का निर्यात किया था।

तब सरकार ने यह भी भरोसा दिलाया था कि गेहूं का निर्यात सुगम बनाने के लिए विशाखापट्टनम, काकीनाडा औन न्हावा शेवा जैसा बंदरगाहों से भी गेहूं का निर्यात शुरू किया जाएगा। अब तक केवल कांडला बंदरगाह से गेहूं का निर्यात होता है।

सरकार के इस उत्साहजनक बयान के बाद निजी व्यापारियों ने गेहूं की खरीद शुरू कर दी। हालात यह बने कि मध्य प्रदेश में जहां पेक्स के माध्यम से सरकारी खरीद की जाती थी, किसानों ने मंडियों में जाकर निजी व्यापारियों को गेहूं बेचना शुरू कर दिया। पंजाब और हरियाणा से भी ऐसी ही खबरें आ रही हैं।

पंजाब में इस साल 2 मई 2022 तक सरकारी खरीद केवल 89.10 लाख टन गेहूं की खरीद हुई है, जबकि सरकार ने पंजाब से इस रबी सीजन में कुल 132 लाख टन गेहूं खरीद का लक्ष्य रखा है। इसी तरह हरियाणा से खरीद का लक्ष्य 85 लाख टन है, जबकि 2 मई 2022 तक 37.24 लाख टन ही खरीद हुई है।

मध्यप्रदेश से खरीद का लक्ष्य 129 लाख टन है, जबकि खरीद केवल 34.04 लाख हुई है। इसी तरह उत्तर प्रदेश से 60 लाख टन के लक्ष्य के मुकाबले अभी केवल 1.47 लाख टन ही खरीद हुई है। और राजस्थान से 23 लाख टन के खरीद के लक्ष्य के मुकाबले केवल 749 टन ही खरीद हो पाई है।

सरकारी खरीद कम होने से क्या होगा?

अब यह सवाल उठता है कि आखिर गेहूं की सरकारी खरीद कम होने से क्या होगा? दरअसल यह जानना जरूरी है कि आखिर सरकार अनाज की खरीद क्यों करती है?  इसके कई जवाब है। अनाज की सरकारी खरीद का प्रमुख उद्देश्य गरीब व कमजोर आय वर्ग के लोगों को सस्ती कीमतों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराना है, जो जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत किया जाता है।

इसके अलावा किसानों को उनकी फसल का एक सुनिश्चित दाम (एमएसपी) उपलब्ध कराना और बाजार में सरकार का हस्तक्षेप कर कीमतों को नियंत्रण में रखने के लिए भी सरकारी खरीद की जाती है। यानी कि सरकारी खरीद का मुख्य उद्देश्य देश को खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराना है।

लेकिन अगर साल 2022 में गेहूं की सरकारी खरीद का लक्ष्य पूरा नहीं होता है तो क्या होगा? आइए, समझते हैं- केंद्रीय खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग के आंकड़े बताते हैं कि साल 2020-21 में अलग-अलग योजनाओं के तहत 464.7 लाख टन गेहूं का आवंटन किया गया।

इनमें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की अलग-अलग योजनाओं के तहत लगभग 258.42 लाख टन गेहूं आवंटित किया गया। जैसे- अंतोदय अन्न योजना के तहत 39.20 लाख टन, प्राथमिकता परिवार (पीएचएच) राशन कार्ड धारकों को 194.83 लाख टन, लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) के लिए 7.61 लाख टन, पीएम पोशन के लिए 5.48 टन, गेहूं आधारित पोषण कार्यक्रम (डब्ल्यूबीएनपी) के तहत 11.30 लाख टन गेहूं आवंटन किया गया।

जबकि अन्य कल्याणकारी योजनाओं (हॉस्टल एवं कल्याणकारी संस्थानों, किशोर कन्याओं के लिए योजना) के लिए 58 हजार टन गेहूं आवंटित किया गया।

इसके अलावा कोविड-19 महामारी की वजह से शुरू की गई प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के लिए मई 2021 से मार्च 2022 तक 202.05 लाख टन गेहूं दिया गया, ओपन मार्केट सेल्स स्कीम की दर पर 2.25 लाख टन गेहूं कोविड एलोकेशन के नाम पर दिया गया।

इस तरह एक साल में सरकार ने लगभग 464.70 लाख टन गेहूं का आवंटन केंद्रीय पूल से किया। जबकि साल 2021-22 रबी मार्केटिंग सीजन में सरकार ने रिकॉर्ड 433.3 लाख टन गेहूं की खरीद की थी।

यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीब कल्याण अन्न योजना को सितंबर तक के लिए बढ़ा दिया है। यानी कि इस योजना के तहत सरकार को लगभग 101 लाख टन गेहूं की जरूरत पड़ेगी। जबकि सरकार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत लगभग 260 लाख टन गेहूं का आवंटन 2022-23 में करना पड़ेगा।

चालू रबी सीजन में जो हालात बन रहे हैं और अगर लक्ष्य (444 लाख टन) के मुकाबले यदि आधी ही सरकारी खरीद होती है तो सरकार द्वारा गरीबों-जरूरतमंदों को उपलब्ध कराए जा रहे गेहूं का इंतजाम कहां से होगा?

खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 1 अप्रैल 2022 को केंद्रीय पूल में लगभग 189.90 लाख टन गेहूं था। पीडीएस सहित अन्य कल्याणकारी योजनाओं के साथ-साथ युद्ध जैसी परिस्थितियों के लिए सरकार की ओर से नियम बनाए गए हैं। इस नियम के मुताबिक केंद्रीय पूल में 1 अप्रैल को 74.60 लाख टन  का रिजर्व स्टॉक रहना चाहिए। 

अपने साक्षात्कार में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने कहा है कि अगर सरकार इस साल 200 लाख टन भी खरीद लेती है तो सरकार को दिक्कत नहीं होने वाली। जबकि डाउन टू अर्थ का विश्लेषण बताता है कि सरकार को लगभग 250 लाख टन पीडीएस के लिए चाहिए और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के लिए लगभग 100 लाख टन चाहिए। जबकि जुलाई में बफर स्टॉक 275.80 लाख टन होना चाहिए।

यानी कि जुलाई में सरकार के पास लगभग 575.80 लाख टन गेहूं होना चाहिए, लेकिन यदि रबी सीजन की सरकारी खरीद अगर 200 लाख टन रहती है और एक अप्रैल के स्टॉक को जोड़ दिया जाए जो कि 189.90 लाख टन था तो केंद्रीय पूल के पास लगभग 390 लाख टन गेहूं होगा। ऐसे में सरकार गरीबों तक सस्ता राशन कैसे पहुंचा पाएगी?

2006-07 जैसे हालात बने

चालू रबी मार्केटिंग सीजन में गेहूं की खरीद के चलते जो हालात बन रहे हैं। वह साल 2006-07 जैसे नजर आ रहे हैं। कृषि एवं खाद्य नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा ने डाउन टू अर्थ से कहा कि ये हालात बिल्कुल 2006-07 जैसे हो गए हैं। उस साल केंद्र सरकार सरकारी खरीद बहुत कम कर पाई थी और हालात यह बन गए कि सरकार को गेहूं आयात करके पीडीएस के तहत वितरित करना पड़ा था।

शर्मा कहते हैं कि 2022 में मौसम की वजह से गेहूं का उत्पादन घटा है, जबकि सरकार रूस-यूक्रेन युद्ध का फायदा उठाने के लिए गेहूं निर्यात पर जोर दे रही है, जिसके चलते प्राइवेट व्यापारी बड़ी मात्रा में गेहूं खरीद रहे हैं। अब अगर गेहूं की खरीद कम होती है, सरकार को पीडीएस के लिए गेहूं या तो बाजार खरीदना पड़ेगा या आयात करना पड़ेगा।

वह बताते हैं कि 2005-06 में तत्कालीन सरकार ने प्राइवेट सेक्टर के लिए किसानों से गेहूं खरीदने की छूट दे दी थी। व्यापारियों को मंडी शुल्क नहीं देना था, इसलिए उन्होंने किसानों को मंडी शुल्क का फायदा देते हुए अधिक दाम पर गेहूं खरीदा। किसानों ने सरकारी मंडियों  में गेहूं नहीं बेचा, जिसके चलते 2006-07 में केंद्रीय पूल में पीडीएस के तहत वितरण के लिए गेहूं नहीं था।

सरकार ने प्राइवेट व्यापारियों से उनकी स्टॉक की जानकारी के साथ-साथ पीडीएस वितरण के लिए गेहूं की मांग की, लेकिन प्राइवेट व्यापारी नहीं माने। आखिरकार सरकार को एमएसपी से लगभग दोगुने दाम पर 55 लाख गेहूं आयात करना पड़ा। इतना ही नहीं, प्राइवेट व्यापारियों की मनमानी के चलते बाजार में गेहूं भी काफी महंगा बिका। तब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी और उसने इस सारे प्रकरण की जांच सीबीआई से कराने की मांग की थी।

डाउन टू अर्थ ने भी 2006-07 में हुए गेहूं आयात के प्रकरण की छानबीन की तो पता चला कि 1999-2000 के बाद से लेकर अब तक केवल दो साल गेहूं का आयात किया गया। ये दो साल 2006-07 और 2007-08 था। भारतीय खाद्य निगम के आंकड़े बताते हैं कि 2006-07 में 53.79  लाख मीट्रिक टन गेहूं आयात किया गया। इसके बाद 2007-08 में 18.44 लाख मीट्रिक टन गेहूं आयात किया गया। यह गेहूं आस्ट्रेलिया, रूस, कनाडा, अर्जेंटीना, फ्रांस, यूक्रेन, ब्राजील और हंगरी से आयात किया गया था।

उस साल एमएसपी 850 रुपए क्विंटल था। जिसमें पिछले साल के मुकाबले 200 रुपए की वृद्धि की गई थी। अगले साल भी वृद्धि का सिलसिला जारी रहा और 1,000 रुपए क्विंटल कर दिया गया।

यह गेहूं किस कीमत पर खरीदा गया। डाउन टू अर्थ ने जब राज्यसभा में हुए प्रश्नोतरों की जांच की तो पाया कि 12 दिसंबर 2008 को गेहूं आयात के संदर्भ में राज्यसभा में तत्कालीन सदस्य हेमा मालिनी ने एक सवाल पूछा था कि क्या विदेशों से मंगाए गए गेहूं की कीमत किसानों को दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (8500 रुपए प्रति टन) से अधिक थी।

तब तत्कालीन खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के राज्य मंत्री अखिलेश प्रसाद सिंह ने जवाब दिया थ कि 2006-07 के दौरान 53.79 लाख टन गेहूं 205.35 यूएस डॉलर प्रति टन की दर से आयात किया गया था। उस समय के डॉलर के मूल्य के हिसाब ये यह 9300 रुपए प्रति टन था। जबकि अगले साल 14,800 रुपए प्रति टन की दर से 17.69 लाख मीट्रिक टन गेहूं आयात  किया गया था।

उस समय पीडीएस और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के लिए सरकार को 150 लाख टन गेहूं चाहिए था, लेकिन सरकार केवल 92.3 लाख टन ही खरीद पाई, जबकि अगले साल 111.3 लाख टन गेहूं खरीदा। यही वजह रही कि पीडीएस के तहत गेहूं बांटने के लिए सरकार को आयात करना पड़ा। हालांकि 2007-08 के तीसरे अग्रिम अनुमान के मुताबिक 227.32 लाख टन अनाज के उत्पादन का अनुमान लगाया गया था, जबकि उस समय की मांग 214.03 लाख टन थी। यह जानकारी भी 25 अप्रैल 2008 को राज्यसभा में दी गई थी।

सरकार ने यह भी तर्क दिया था कि फरवरी 2006 में गेहूं की कीमतें बढ़ने लगी थी। लेकिन जब सरकार ने गेहूं आयात का फैसला लिया तो गेहूं की कीमतों में गिरावट आई। सरकार के ही एक जवाब से पता चलता है कि उस समय गेहूं 11 रुपए किलो बिक रहा था, लेकिन जब सरकार ने गेहूं आयात करने का फैसला लिया तो गेहूं की कीमत 8 से 9 रुपए किलो पहुंच गई।

दिलचस्प बात यह है कि जब सरकार को आयात करने का फैसला लेना पड़ा, उस समय देश में गेहूं का उत्पादन ज्यादा हुआ था। सरकार के आंकड़े बताते हैं कि 2004-05 में गेहूं का उत्पादन 686 लाख टन, 2005-06 में 694 लाख टन और 2006-07 में 758 लाख टन गेहूं का उत्पादन हुआ था। 14 मार्च 2008 को पूछे गए एक सवाल के जवाब में सरकार ने माना था कि निजी व्यापारियों द्वारा की गई भारी खरीददारी के कारण सरकारी खरीद में कमी आई थी।

देविंदर शर्मा कहते हैं कि 2007-08 में जब हालात नहीं सुधरे तो सरकार ने निजी व्यापारियों द्वारा गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि इसका कोई अधिसूचना जारी नहीं की गई, बल्कि व्यापारियों को इसकी इतिला भर दे दी गई थी।

शर्मा कहते हैं कि यदि यही हाल रहे तो आने वाले दिनों में सरकार को अपनी कल्याणकारी योजनाओं के लिए आयात करना पड़ सकता है, बल्कि प्राइवेट सेक्टर के गोदामों में गेहूं पहुंचने के बाद कीमतें बढ़ सकती हैं। इसलिए सरकार को निर्यात की एक सीमा तय करनी चाहिए। जो 100 से 120 लाख टन तक हो सकती है। 

उनके मुताबिक, सरकार का अनुमान है कि साल 2022-23 में गेहूं का निर्यात 120 से 150 लाख टन होगा, जबकि भारतीय खाद्य निगम के बाद सबसे अधिक गेहूं खरीदने वाली कंपनी आईटीसी का कहना है कि देश से लगभग 210 लाख टन गेहूं निर्यात हो सकता है।

अब देखना यह है कि दुनिया का पेट भरने का दावा कर रही केंद्र सरकार आने वाले समय में पैदा होने वाली समस्या से कैसे निपटती है? 

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