फलों के राजा आम पर पड़ी जलवायु परिवर्तन की मार : चक्रवाती तूफान और अनिश्चित मौसम से किसान त्रस्त

क्लाइमेट चेंज के चलते देश के कई राज्यों में आम उत्पादन प्रभावित है। वहीं, महंगे रेट पर बेचने के बावजूद किसान घाटे में हैं तो महंगाई के चलते आम आदमी फलों के राजा का स्वाद नहीं ले पा रहा है।

By Arvind Shukla

On: Monday 09 May 2022
 
Photo : आम उत्पादक किसानों पर मौसम और जलवायु की मार पड़ी है। द्वारा : अरविंद शुक्ला

अपने बाग के बेहतरीन क्वालिटी के अल्फांसो आम 1000 से 1200 रुपए दर्जन बेचने के बावजूद बाग मालिक रघुबीर चौघुले खुश नहीं थे। नाखुशी की वजह थी आम का बेहद कम उत्पादन। चौघुले के मुताबिक पिछले साल जिस बाग में 1000 पेटी आम निकला था, उसमें इस बार 200-300 पेटी ही आम निकले हैं।

रायगढ़, दुनियाभर में प्रसिद्ध अल्फांसो आम का गढ़ हैं, महाराष्ट्र के तटवर्ती तीन जिलों रत्नागिरी, रायगढ़ और सिंधुदुर्ग को जिसे जीआई टैग भी मिला है। लेकिन कोंकण इलाके के रायगढ़ जिले के आम का स्वाद अलग ही है, इसीलिए यहां का आम रायगढ़ हापुस नाम से हाथों हाथ बिकता है। दुनिया के कई देशों में एक्सपोर्ट किया जाता है। समुद्र के किनारे की नमकीन हवा, आद्रता और मौसम के चलते अपने खास स्वाद, रंग और खुशबू के लिए प्रसिद्ध यह आम किलो नहीं बल्कि दर्जन में बिकता है।

रघुवीर चौघुले 'डाउन टू अर्थ' को बताते हैं, “इस बार पेड़ में आम बहुत कम हैं। जिस पेड़ में 100 आम आते थे उसमें 20-25 आए हैं। पिछले 4-5 वर्षों से हवामान (मौसम) काफी बदल गया है। लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान पिछले साल (मई 2021) आए तूफान 'ताउते' से हुआ। फिर जब फ्लावरिंग (बौर) हुई तो बारिश हो गई। उससे भी नुकसान हुआ। बाकी समय की तुलना में इधर सर्दी अलग रही। इन सब का असर उत्पादन पर पड़ा है।” 

महाराष्ट्र के लोकप्रिय त्योहार गुढी पड़वा (2 अप्रैल) से पहले अल्फांसो का भाव 900-1400 रुपए प्रति दर्जन था, यानी बेतहरीन क्वालिटी का एक आम 117 रुपए तक था। जो दूसरे महत्वपूर्ण त्योहार अक्षय तृतीया (3 मई) तक 800-1000 रुपए दर्जन के बीच रहा, इसके बाद रेट गिरना शुरु हुए हैं। लेकिन करीब एक महीना तक अच्छी कीमत के बावजूद किसान खुश नहीं हैं, क्योंकि उनकी बागों में ज्यादा आम नहीं हैं, उत्पादन कम है।

कम उत्पादन के लिए किसान, कृषि जानकार और वैज्ञानिक क्लाइमेंट चेंज को कसूरवार ठहरा रहे हैं। कोंकण हापुस अंबा उत्पाद और उत्पादक विक्रेता संघ के चेयरमैन डॉ. विवेक वाई भिड़े बताते हैं, “क्लाइमेट चेंज के चलते कोंकण में इस बार 50 फीसदी तक कम आम का उत्पादन है। तूफान, क्लाउडी वेदर और बारिश के चलते कीट और फंगस ज्यादा लगे, ब्लैक स्पॉट की समस्या आप हर जगह देखेंगे।”

डॉ. भिड़े मौसम के असर को विस्तार से समझाते हैं, “पिछले आम के सीजन से इस सीजन तक कोंकण में तीन तूफान आए हैं। एक भी महीना ऐसा नहीं गया, जिसमें बारिश नहीं हुई। अमूमन नवंबर के बाद यहां बारिश नहीं होती है। लेकिन इस बार नवंबर, दिसंबर, जनवरी तीनों महीनों में बारिश हुई। बारिश के चलते फ्लावरिंग में देरी हो गई। ये मानिए कि जब-जब फ्रूट सेटिंग होने वाली थी बारिश हो गई। इसके अलावा यहां क्लाउडी वेदर (बादल छाए रहे) रहा, जिससे रोग ज्यादा लगे। किसान का कीटनाशक पर ज्यादा पैसा खर्च हुआ। ”

महाराष्ट्र के समुद्र तटीय इलाकों (कोंकण) से करीब 900 किलोमीटर दूर गुजरात के गिर सोमनाथ के तटीय इलाकों के किसानों का भी यही दर्द है। 40 एकड़ बाग के मालिक दिलीप भाई पटेल से जब 'डाउन टू अर्थ' की बात हुई वो अहमदाबाद के लिए आम लदवा कर भिजवा रहे थे। उत्पादन और भाव के बारे में पूछने पर वो कहते हैं, “अहमदाबाद में हमारा आम (केसर) 1600-1800 (प्रति 10 किलो) के भाव से जा रहा है। ये रेट पिछले साल से दोगुना है। आम आदमी खरीद नहीं पा रहा, लेकिन किसान को इस भाव में भी घाटा है क्योंकि माल नहीं है। डिमांड है तो रेट बढ़ गए हैं।” गुजरात के केसर आम को भी जीआई टैग मिला है।

कम उत्पादन के बारे में दिलीप भाई पटेल कहते हैं, “हमारे बाग में पिछले साल का सिर्फ 20 टका आम है। (पिछले साल 80-90 टन माल था, इस साल 20-25 टन) पिछले साल जो ताउते बौझड़ (तूफान) आया था, उससे बाग को बहुत नुकसान हुआ। 50 फीसदी पेड़ में बौर आया, लेकिन बदले तामपान के चलते फल मुश्किल से 20-30 फीसदी बन पाए।”

मौसम की मार का असर देश के सबसे बड़े आम उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में भी पड़ा है। लखनऊ की दशहरी मैंगो बेल्ट महिलाबाद के किसानों के मुताबिक, कम से कम 50 फीसदी उत्पादन कम होगा। लखनऊ के लतीफपुर गांव के प्रगतिशील किसान अतुल अवस्थी के पास करीब 8 एकड़ आम का बाग है। यूपी में लखनऊ, हरदोई, उन्नाव, सीतापुर समेत कई जिलों में बड़े पैमाने पर दशहरी की खेती है। यहां कई हजार किसानों की आजीविका सिर्फ आम पर निर्भर है, जिन्हें झटका लगा है।

अतुल अवस्थी 'डाउन टू अर्थ' को बताते हैं, “आम की फसल पूरी तरह मौसम पर निर्भर है, इस बार एकाएक तापमान बढ़ने से बौर आने के बावजूद परागण नहीं हो सका। फ्लावरिंग के बावजूद पेड़ों में बेजिटेटिव ग्रोथ (नए कल्ले निकल आए) और इसका असर ये हुआ कि फल नहीं बने। अगर हमारे गांव की ही अकेले बात करें तो यहां 250 एकड़ में आम के बाग हैं, लेकिन मुश्किल से 25-30 एकड़ बाग में आम होंगे।”

दशहरी बेल्ट में आम की तुड़ाई 1 जून के बाद सही तरीके से शुरु होती है, लेकिन गिनती के फल देखकर देखकर किसान परेशान हैं। इसकी एक वजह ये भी है कि पिछले साल लखनऊ की दशहरी बेल्ट में थिप्स का भीषण प्रकोप हुआ, जिससे किसानों का कीटनाशक पर काफी खर्च हुआ था और उत्पादन कम होने के साथ क्वालिटी का आम भी नहीं मिला था।

 अतुल कहते हैं, “पिछले साल रोग ने किसानों को कर्जदार बना दिया था, कई किसान को कीटनाशक का खर्च नहीं निकाल पाए थे, इस बार मौसम की मार पड़ी है। पिछले साल एक्सपोर्ट क्वालिटी का आम 40-45 रुपए किलो और घरेलू बाजार में रेट 18-22 रुपए था, इस बार का घेरलू रेट 30-35 रहने का अनुमान है, क्योंकि बाग में आम नहीं है।”

 महाराष्ट्र के अल्फासों और केसर, गुजरात के केसर, यूपी की दशहरी की तरह बिहार के जर्दालु आम किसान भी मौसम का शिकार हुए हैं। 

भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक, साल 2022 के दो महीने मार्च में 120 साल का रिकॉर्ड टूटा तो अप्रैल में कई जगह 100 साल से ज्यादा रिकॉर्ड दर्ज हुआ। अत्याधिक गर्मी, झुलसाने वाली हवाओं का प्रतिकूल असर फल उत्पादकों पर पड़ा है। अप्रैल का औसत अधिकतम तापमान 35.9 और 37.78 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। इंटरनेशनल सोसायटी ऑफ एग्रीकल्चर मेट्रोलॉजी के प्रेसीडेंट और भारत मौसम विभाग के पूर्व उप महानिदेशक मेट्रोलॉजी, कृषि मेट्रोलॉजी संभाग पुणे, डॉ. एन चट्टोपाध्याय कहते हैं, “इस साल का मौसम दूसरे सालों से बिल्कुल अलग रहा है। अभी गर्म दिनों की संख्या बढ़ती जा रही है और सर्द रातों की संख्या कम हो रहा है, गर्म और सर्द रातों की सेसेंविटी का अंतर जो है वो अनाज, बागवानी (फल-सब्जी) पर असर डालेगा। बागवानी फसलें ज्यादा संवेदनशील होती हैं, उन पर असर ज्यादा दिख सकता है। ”

 दुनिया के सबसे बड़े आम उत्पादक देश में सालाना करीब 2 करोड़ टन (20 मिलियन टन) आम का उत्पादन होता है। लेकिन क्लाइमेट चेंज, तूफान, बौर के समय बारिश, कहीं ज्यादा सर्दी और तो कहीं अधिक गर्मी के चलते पिछले साल के मुकाबले उत्पादन कम हो गया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में आम का उत्पादन पिछले साल की अपेक्षा कम हो सकता है। 28 मार्च को आए पहले कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के अग्रिम अनुमान के मुताबिक, देश में 2021-22 में 2,339 हजार हेक्टेयर में आम के बाग थे, जिनसे 20,336 हजार मीट्रिक टन आम उत्पादन का अनुमान है। साल 2020-21 में 2,317 हजार हेक्टेयर से 20,386 हजार मीट्रिक टन आम का उत्पादन हुआ था।

भारत सिर्फ दुनिया का सबसे बड़ा आम उत्पादक ही नहीं बल्कि सबसे बडा सप्लायर भी है। यूपी का दशहरी, चौसा, महाराष्ट्र का अल्फांसो और केसर, गुजरात का केसर, आंध्र प्रदेश का बंगनपल्ली (सफेदा), बिहार का जर्दालु समेत भारत के करीब डेढ़ दर्जन आम की किस्मों की दुनिया की दीवानी है। फरवरी 2022 में लोकसभा में दिए गए एक जवाब में सरकार ने कहा कि भारत से कम या ज्यादा सभी को मिलाकर 83 देशों में आम का निर्यात करता है। साल 2021 में 21,033.58 मीट्रिक टन आम का निर्यात हुआ था, जिससे 271.84 करोड़ रुपये की प्राप्ति हुई थी।

भारत सरकार के विदेश विभाग के मुताबिक, भारत का कृषि निर्यात 50 बिलियन डॉलर की ऊंचाई तक पहुंच गया है। इससे अनाज और दूसरे उत्पादों के अलावा बड़ी हिस्सेदारी ताजे फलों की भी है। अंगूर, केला, आम आदि विदेश जाने से किसानों को अच्छा पैसा मिलता है। कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) लगातार दूसरे देशों तक उत्पाद भेजने के लिए प्रयास और नई साझेदारियां करता है, लेकिन इसका फायदा तभी किसान को मिलेगा जब उसके खेत और बाग में माल हो।

देश में कई इलाके ऐसे हैं जहां की अर्थव्यव्स्था पूरी तरह आम पर निर्भर है, जैसे महाराष्ट्र का कोंकण इलाका, गुजरात में जूनागढ़ और गिरसोमना, यूपी में दशहरी आम की महिलाबाद बेल्ट। किसानों के पास सालभर घर चलाने की आमदनी आम से ही होती है। आम की फसल अच्छी तो साल खुशी में बीतता है वरना उधारी और कर्ज का सहारा बचता है।

कम आम का असर: नेपाल के लोगों को मिला कम रोजगार 

कम उत्पादन लोगों की आमदनी कम रहा है तो कुछ लोगों की आजीविका भी छीन रहा है। महाराष्ट्र के बागों में देखरेख से लेकर आम तोड़ना तक के लिए नेपाल के लोग आते हैं। आम सीजन में एक एक बाग मालिक 10-15 लोगों को नौकरी पर रखते हैं। जबकि ऑफ सीजन में 4-5 लोग रहते हैं, जिन्हें 10-18 हजार रुपए प्रति महीने तक की पगार मिलती है। रत्नागिरी में मांडवी बीच से कुछ आगे एक बाग में काम करने वाले नेपाल के कैलाली जिले के रहने वाले राजेश थापा बताते हैं, “हम लोग पिछले कई वर्षों से हर बार यहां आते हैं और मानसून में घर चले जाते हैं। 4-8 महीने की नौकरी होती है। लेकिन पिछले दो वर्षों से काम कम हो गया है, जहां पहले एक एक बाग में 10-12 लोग होते थे अब अब 5-6 ही हैं।”

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