बेचारा किसान: किसानों को क्यों नहीं मिलती रियायतें

चौधरी छोटू राम के लेखों के संकलन "बेचारा किसान" में प्रकाशित एक लेख-

On: Monday 25 January 2021
 
चौधरी छोटू राम। स्कैच: रितिका बोहरा

कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम - 1938, गिरवी जमीनों की मुफ्त वापसी एक्ट - 1938 व साहूकार पंजीकरण एक्ट - १९३८ (1934) जैसे महत्वपूर्ण कानूनों को लागू कराने में अहम भूमिका निभाने वाले चौधरी छोटू राम अपने अखबार में जाट गजट में एक कॉलम लिखा करते थे, जिसके 17 लेखों का संकलन बाद में "बेचारा किसान" नामक किताब में प्रकाशित किया गया। ये लेख आज भी प्रासंगिक हैं। आज हम इनमें एक लेख ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं

किसान के दुःख बेशुमार हैं। ये दुःख बड़े गहरे हैं और इन दुःखों की कहानी भी बड़ी लम्बी है। इसलिए इस लेखमाला में दो-चार लेख और जोड़ देना कोई कठिन काम नहीं है फिर मेरे लिए तो यह बात बड़ी ही प्रसन्नता की है(1) कि आखिर किसान में दुखड़ों को सुनने का शौक तो पैदा हुआ, वरना इन्होंने तो ऐसी अनछनी पी (2) हुई है कि होश ही नहीं आता था।

किसान भी क्या इन्सान है। एक बहुत बड़ी त्रासदी का नायक है। परन्तु किसी को अपना दर्द सुना के राजी नहीं, इसे शिकवा-शिकायत की आदत नहीं और शोर मचाने का भी इसे शौक नहीं। इसीलिए हमारी सरकार समझती है कि किसान खुश है, आराम से हैं, और सुख-चैन की बंसी बजा रहा है। क्योंकि अगर इसे कोई तकलीफ होती तो जरूर चिल्लाता।

सरकार की रियाया में और वर्ग भी हैं, जो कि जरा-सा दुःख होते ही तुरन्त चिल्ला उठते हैं। सरकार उनकी सुनवाई करती है। ठीक भी है, जो चिल्लाता है, उसकी सुनी जाती है। परन्तु किसान तो दुःख दर्द में शिकायत करने के विषय में एक अनोखी चीज है।

वास्तव में देखा जाए तो किसान है ही क्या? चलता-फिरता दर्द है, सशरीर दर्द है, मुसीबत का सजा चित्र है और दुःखों की पोट है। इसका दिल दुनियां के दुःखों से छलनी बना हुआ है। परन्तु इसके इन घावों के मुंह नहीं और यदि मुंह है तो इसमें जुबान नहीं। जिस दिन इसके घावों के मुंह पैदा हो गया और मुंह में जुबान हो गई, उसी रोज किसान की आह से पृथ्वी गर्ज उठेगी, आसमान कांप जाएगा।

सब तरफ एक भयानक हलचल मच जाएगी। जो सरकार इस समय अपने अज्ञान के कारण सुख की नींद सोई है, उसकी नींद हराम हो जाएगी। और जो खुशामदी, चापलूस, नादान, अकर्तव्यता के पुजारी सरकारी कर्मकारी सरकार को झूठ सपनों के भुलावे में रखते हैं, वे गद्दारी, मक्कारी, अय्यारी और बदरूवाही की स्पष्ट तस्वीर बनकर उभर उठेगें।

किसान भाइयों! जरा कलेजा थाम कर सुनना तुम्हारे दुःखों की दास्तान शुरू करता हूं। साथ ही, किसानों में सहानुभूति रखने का दम भरने वाले सज्जन भी मेरी दर्द-भरी कहानी को शांति, प्रेम और ध्यान से सुनें। पर पहले यह बताएं, इस कहानी को कहां से शुरू करूं? यदि कहो तो उस चीज से शुरू करूं जिस के कारण किसान, किसान कहलाता है - अर्थात भूमि और भूमि के स्वामित्व से। बहुत से किसानों को भी नहीं पता कि सरकार के कानून के अनुसार इस प्रांत में किसानों का भूमि के साथ सही कानून संबंध क्या है?

हम अपने आपको स्वामी समझते हैं, भूपति कहते हैं, विस्वेदार की उपाधि धारण करते हैं, पर क्या किसानों ने कभी इन बात का खयाल किया है कि जब कभी वे शामलात देह से या खुद अपनी जमीन से कंकर निकालना चाहते हैं तो उन्हें माल विभाग के अफसरों को दरख्वास्त देकर इजाजत लेनी पड़ती है।

इसके अतिरिक्त यदि कोई ठेकेदार चाहे तजो हम में से किसाी की भी जमीन में से अफसर माल की इजाजत से कंकर निकाल सकता है। हमारी इजाजत की उसे जरूरत नहीं। यह क्यों? यह इसलिए कि सरकार इस बात की दावेदार है कि जमीन का असली स्वामी वह स्वयं है। और जो लोग जमींदार कहलाते हैं वे तो एक तरह के पक्के मुजारे हैं या एक बड़े स्वामी के अधीन एक छोटे स्वामी की हैसियत रखते वाले लोग हैं।

दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि जमींदारों को सरकार ने खास नियमों के अनुसार सीमित स्वामित्व के अधिकार दे रखे हैं और पूरे स्वामित्व के अधिकार अपने लिए सुरक्षित रखे हुए हैं। जमीन और जमीन से सम्बंध हमारी सब समस्याओं का मूल कारण यह हो बेहुदा मसला है, जिस की रूह से सरकार यह दावा करती है कि वह समस्त जमींन की वास्तविक एवं सबसे बड़ी मालिक है।

किसान जमीन पर अधिकार रखते हैं, और यह अधिकार वे तब रख सकते हैं जब तक कि वे खास-खास नियम, जैसे कर आदि देने का पालन, ठीक प्रकार से करते हैं। पर वे अपनी जमीन के पूरे और पक्के मालिक नहीं है। जमीन के अन्दर जो कंकर, पत्थर तथा अन्य खनिज पदार्थ हैं वे भी जमीन की तरह सरकार के स्वामित्व में है, क्योंकि जमीन के अधिकार के साथ इन चीजों का अधिकार सरकार ने नहीं छोड़ा।

वस्तुतः किसान एक प्रकार के पक्के मुजारे (भूमि को जोतने वाला, जो मालिक को लगान देता है) हैं, जिन्हें सरकार उस वक्त तक बेदखल नहीं कर सकती, जब तक कि वे बन्दोबस्त में मुकर्रर की हुई मालगुजारी देते रहें। सरकार ने अधिकार का हक तो किसान को दे दिया, पर चूंकि खनिज पदार्थों का स्वामित्व सरकार ने अपने लिए सुरक्षित रख छोड़ा है, इसलिए सरकार अथवा उसके ठेकेदार इस रूह से किसान में बिना उनकी इजाजत के दखल करने का हक रखते हैं।

भूमि के स्वामित्व की समस्या का उल्लेख जो ऊपर किया है, वह ही सही मायनों में किसान की ज्यादातर मुसीबतों की जड़ है। यह समस्या बिल्कुल गैर-कानूनी है। सरकार कहती है कि मुसलमान बादशाहों के समय भी स्थिति ऐसी ही थी, और हिन्दू राजाओं के समय भी सब काम इसी प्रकार चलते थे। और चूंकि मुसलमान बादशाहों ने हिन्दू राजाओं से राज्य प्राप्त कियाा, और अंग्रेजी सरकार को वे सब अधिकार मिल गए हैं जिनका उपयोग हिन्दू और मुसलमान शासक करते थे। परन्तु अंग्रेजी सरकार का यह कथन बिल्कुल गलत है कि हिन्दू राजा या मुसलमान बादशाहों ने कभी नहीं कहा कि वे भूमि के असली स्वामी है और किसानों को भूस्वामित्व के अधिकार उन द्वारा प्राप्त हुए हैं।

अतः सरकार का यह दावा सिद्धान्त और कानून की कसौटियों पर खरा नहीं उतरता। मैंने जिला रोहतक के सैंकड़ों गावों के इतिहास, जो कि स्वयं सरकारी अफसरों ने तैयार किए हैं, देखे हैं। हर गांव के इतिहास में लिखा हुआ है कि इस गांव में पहले अमुक जाति बसती थी, उसे मार-पीट कर अमुक जाति ने कब्जा कर लिया।

राजा और राज्य, बादशाह और बादशाहत, हाकिम और हकुमत, ये तो भूमि और किसान के अस्तित्व में आने के बहुत बाद अस्तित्व में आए हैं। हिन्दू परम्परा के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के लाखों वर्ष बाद, चौथे मनु के समय में राज्य की संख्या अस्तित्व में आई। इसलिए यह कहना कि किसान को भूमि के स्वामित्व का अधिकार राज्य द्वारा दिया गया है। बिल्कुल गलत है। और अगर इसे सही भी मान लें तो अंग्रेजी सरकार तो यह दावा करती है कि राजाओं और बादशाहों का युग असभ्यता और अंधकार का युग था, और अंग्रेजों ने यहां आकर सभ्यता और प्रकाश के युग का शुभारम्भ किया है। तो फिर क्या कारण है कि जहालत और अंधकार के युग की रस्में गरीब किसानों पर ये अब तक लादे जा रहे हैं जबकि सो पुरानी बातों को असभ्य युग की बातें मानल कर हटा दिया गया है। इसी प्रकार रीति को भी अब जुल्म और अन्याय की पुरानी यादगार समझ कर मिटा दिया जाना चाहिए। आखिर इस सभ्य समय में भला ऐसे बेहुदा भूमि कानून कौन सी राजनैतिक व न्यायिक सिद्धांत की बिना पर बनाए रखे जा सकते हैं?

अब जरा और आगे चलिए। गरीब किसान पर जो कर लगा रखे हैं वे उनकी सहनशक्ति से परे हैं। न ही वे किसी सिद्धांत पर आधारित हैं। यद्यपि यह सही बात है कि किसी भी सरकार का काम करों के बिना नहीं चल सकता, चाहे वह सरकार स्वदेशी हो या विदेशी, प्रजातन्त्रीय हो या व्यक्तिवादी, साथ ही नौकरशाही का कम भी बिना रुपयों के नहीं चल सकता, इसलिए हर सरकार को कर लगाने पड़ते हैं। परन्तु कर लगाने के दो बड़े सिद्धांत होतजे हैंः एक यह कि शासन को चलाने के लिए जितना रुपया चाहिए उसको ध्यान में रखते हुए कम से कम कर लगाए जाएं।

दूसरे, करों का बोझ बस बर्गों पर बराबर डाला जाए और इस बात का ध्यान रखा जाए कि कौन वर्ग कितना बोझ उठा सकता है। आज हर भारतवासी यह विश्वास रखता है कि अंग्रेजी सरकार ने उस पर अधिक कर लगा रखे हैं। उपर्युक्त पहला सिद्धान्त मेरे प्रकरण से बाहर है। दूसरे सिद्धान्त का सम्बन्ध मेरे लेख से है। अतः मैं उसके विषय में ही चर्चा करूंगा। करों का बंटवारा करते समय अंग्रेजी सरकार ने इस दूसरे सिद्धान्त का विरोध किया है। जिस का सबसे बुरा असर किसानों पर पड़ा है। वास्तव में कर लगाते समय सरकार ने किसानों के पूरे वर्ग के साथ अन्याय किया है।

यदि एक-एक किसान को अलग-अलग रख कर भी देखें तो भी उनके साथ अन्याय हुआ दृष्टिगोचर होगा। कोई भी धन्धा ऐसा नहीं है जिसमें आमदनी का कुछ न कुछ भाग कर से मुक्त न रखा गया हो। पिछले साल से पहले सभी धन्धों में दो हजार रुपये प्रतिवर्ष की सीमा से नीचे वाली आमदनी पर कर नहीं लगता था। अब माफी की सीमा एक हजार रुपये प्रतिवर्ष हो गई हैं यह आमदनी एक गृहस्थ परिवार के गुजारे के लिए अनिवार्य समझी गई है और इसे पेट की रोटी समझ कर कर-मुक्त कर दिया गया है।

यह बड़े अफसोस की बात है कि किसान को कोई आमदनी कर मुक्त नहीं, उसकी भूमि की एक-एक त्रिस्वांसी (एक बीघे का 20वां भाग) पर कर लगाया हुआ है। किसान की रोटी पर भी कर हैं सम्भवतः हमारी भोली-भाली सरकार यह समझती है कि किसान को भूख नहीं लगती और इसका परिवार हवा खा कर गुजारा कर सकता है। या सरकार का यह ख्याल है कि किसान उसकी रियाया का न बोलने वाला महत्वपूर्ण अंग है, इसलिए उसे माफ करना आवश्यक नहीं।

यदि उसका पेट भी काट दिया जाये तो भी उसे कोई शिकायत न होगी। परन्तु कारण चाहे कुछ भी हो, जो रियायतें साहूकार को हैं, कारखानेदार को हैं, वकील को हैं, डाक्टर को हैं, इंजीनियर को हैं, दुकानदार को हैं, सरकारी कर्मचारी को हैं, वे रियायतें किसान को नहीं।

आप यह जानना चाहेंगे कि कियसप के साथ ये अन्याय क्यों हो रहा है और सरकार इस अन्याय के विषय में क्या कहती है? वस्तुतः सरकार का इस विषय में उत्तर वही है जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, अर्थात जमीन की वास्तविक स्वामी तो सरकार है, किसान तो केवल मुजारा है। माल-गुजारी भूमि कर नहीं बल्कि एक तरह का लगान है, किराया है, भाड़ा है। जितनी जमीन किसान सरकार से लेता है उतना ही किराया देता है। किराया कभी माफ नहीं हुआ करता है। यदि कोई किसान समझता हे कि उपपर अधिक किराया हे तो उससे छुटकारा पाना उसके अपने हाथ में है - वह जमीन छोड़ दे, सरकार उससे किराया नहीं मांगेगी।

देखिए कितनी आश्चर्य की बात है जो भूमि राज्यों से पहले अस्तित्व में आई, उसका राज्य द्वारा किराया मांगा जाता है और जो किसान राज्य से हजारों लाखों वर्ष पहले अस्तित्व में आया उसको राज्य का किरायेदार बताया हैं जिस भूमि को हमारे बुजुर्गों ने अपने हाथ की शक्ति से अधिकृत किया उसको सरकार की मल्कियत बताया जाता है।

ऊपर से ढीठपन तो देखिए कि किसानों को कहा जाता है कि यदि किराया से छुटकारा पाना चाहते हैं तो भूमि को छोड़ दो। किसान कहते हैं कि भूमि हमारी है, हमारे बाप-दादा की है, न यह हमें किसी राजा ने दी है न किसी बादशाह ने और न ही अंग्रेजी सरकार ने। कर लगाने वाले आम सिद्धान्तों से हट कर हम पर जो भारी बोझ डाला गया है वह अन्याय है। हमें अन्याय से बचाया जाए। परन्तु किसान की सुनवाई नहीं होती।

किसान शायद यह सुन कर और भी हैरान होंगे कि जो बातें मैंने ऊपर कही है, वे केवल सरकार ही नहीं कहती, बल्कि हमारे वे भाई भी कहते हैं जो कि प्लेटफार्म और प्रैस से किसानों से सहानुभूति का दम भरते नहीं थकते। पंजाब की कौंसिल में यह प्रश्न कई बार चर्चा का विषय बन चुका है। हिन्दू सभा पार्टी के बड़े-बड़े सदस्यों ने भी इस विषय पर वही दलील पेश की हैं, जो सरकार द्वारा पेश की जाती हैं। वे कहते हैं कि भूमि का लगान भी वैसा ही है जैसा कि उनके हमपेशा भाइयों की दुकानों का किराया-बड़ी दुकान का बड़ा किराया, छोटी दुकान का छोटा किराया। यदि कोई दुकानदार किराया न दे, तो उससे दुकान ले ली जाती है।

वस्तुतः वहां कसूर न सरकार का है और न हमारे अकृषक भाईयों का। अकृषक भाई समझते हैं कि यदि किसानों का वजन हल्का किया जाएगा तो बचा हुआ बोझ अकृषकों पर आ जाएगा। इसलिए वे अपने कंधों को हल्का रखने के लिए सरकार की हां में हां मिलाते हैं। इस विषय में कसूर सारे का सारा किसानों का है। वे संगठन रहित हैं, वे कमजोर है और राजनीति की दुनियां में कमजोर होना अभिप्रायः है। दूर क्यों जाए हमारे हरियाणा में ही कहावत हैः हीणे की जोरू सब की भाभी अर्थात निर्बल व्यक्ति की पत्नी को हर आदमी अपनी भाभी समझता है और उसके साथ भाभी जैसा बर्ताव करता है।

ऐ किसान! तू शेर होते हुए भी अपने को गीदड़ समझता है। अपने असली गुणों और सिफत को न भूल, और अपनी वास्तविकता से दूर हो। जो वास्तव में है तू वह ही बन जा, फिर तुझे किसी से डरने की आवश्यकता नहींः

फारिंग आज अंदेशा अगियार शो।
कुव्वते ख्वाबीदा बेदार शो।।

अर्थात तू एक सोई हुई शक्ति है, जाग, आंख खोल, उठकर बैठ और देख कि तुझे दूसरों से कितने खतरें हैं।

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1. पहले चौधरी छोटूराम इस लेखमाला को चौथी किस्त के बाद समाप्त करना चाहते थे, पर अपने साथी-प्रशसकों के कहने पर उन्होंने इसे आगे बढ़ाया।

उनके अपने शब्दों मेंः जब मैंने यह सिलसिला शुरू किया तो इसे चार लेखों में ही समाप्त करने का विचार था। परन्तु मुझे बताया गया कि ये लेख इस क्षेत्र (हरियाणा) के किसानों को बहुत अच्छे लगे हैं। अतः मेरे साथियों ने कहा कि मैं इस सिलसिले में दो-तीन लेख और लिखूं। अपने साथियों के इस आदेश को पूरा करने के लिए इस दिशा में फिर चला हूं। बेचारा जमीदार

2. अनछनी भांग, इसका नशा अत्यधिक गहरा होता है। वह शिकायत शब्द को अपनी जुबान पर लाना अपनी शान के खिलाफ समझता है। पर इससे यह समझ लेना कि किसान को कोई दुःख नहीं है, बड़ी मूर्खता की बात है।

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