मेरी जुबानी: स्कूल से दूर वो किसान लड़की

लड़कियां सिर्फ छोटी उम्र में शादी के कारण ही स्कूल नहीं छोड़ती हैं। वे अपने खेतों के कारण भी स्कूल छोड़ती हैं

On: Monday 11 January 2021
 

“नहीं हुआ है अभी सवेरा पूरब की लाली पहचान, चिड़ियों के जगने से पहले खाट छोड़ उठ गया किसान...” इस कविता की पंक्तियां चंद दिनों पहले राहुल गांधी ने ट्वीटर पर साझा की थी।

आज जब सब किसानों के बारे में बात कर रहे हैं तो मैं अपने बचपन के बारे में सोच रही हूं। जब हम इस कविता की पंक्ति पढ़ते हैं तो महज एक मर्द किसान का चेहरा सामने देखते हैं। लेकिन उस किसान के साथ उसकी पत्नी और बच्चे भी खाट छोड़ के उठे हैं। उसकी बेटी स्कूल नहीं खेतों की तरफ कदम बढ़ा रही है।

हम सबने उस किसान को देखा है जो चिड़ियों के जगने के पहले खाट छोड़ कर उठ जाता है। मैं शहर से छुट्टियों में अपने गांव आती थी तो अपने खेतों पर काम कर रहे किसानों की हाड़-तोड़ मेहनत देख अक्सर अपनी मां से पूछ बैठती थी कि वे थोड़ा आराम क्यों नहीं करते? इस पर मां कहती कि वे आराम करने लगेंगे तो हम सबका पेट कौन भरेगा?

किसानों की दिनचर्या मैं बचपन से देखती आई हूं। मुंह अंधेरे उठते और अपने बैलों को चारा-पानी देना और दिन निकलते खेतों में पहुंच जाना और वहां भी दोपहर एक-डेढ़ बजे तक खेतों में काम करना और शाम ढले घर लौटना और निढाल हो सो जाना। यही है हमारे किसानों की रोजमर्रा की जिंदगी।

किसानों की एक क्विंटल फसल के मूल्य में उसकी पत्नी से लेकर और घर के अन्य सदस्यों का भी श्रम है। क्या हम एक किलो आलू खरीदते हुए सोचते हैं कि इसमें एक पूरे परिवार की मेहनत लगी है और उस परिवार के पास आलू के कितने पैसे गए? मेरी बचपन की एक दोस्त के पिता किसान थे।

वो अक्सर कहती रहती कि हम तो तुम्हारी तरह स्कूल भी नहीं जा पाते। जब मैं पूछती क्यों? इस पर वह कहती कि मां कहती है कि हर माह बनिए की दुकान में आठ से दस किलो अनाज देना पड़ेगा। तब जो रुपए आएंगे तब जाकर तेरी पढ़ाई होगी। वह बताती थी कि मां ने यह भी समझाया कि चलो अपना पेट काटकर तुझे स्कूल में दाखिला दिला भी दिया तो जरूरी नहीं है न कि हर साल हमारी फसल अच्छी ही हो। क्योंकि हमारे पास तो सिंचाई के साधन नहीं है कि हम बारिश नहीं होने पर सिंचाई कर खेती कर लेंगे। यह भी जरूरी नहीं है कि फसल हो भी जाए तो उसकी बेहतर कीमत भी मिल जाए। सोचिए जरा खेतों के आलू चिप्स के कारखाने तक पहुंच गए लेकिन आज भी बहुत से किसानों के बच्चे स्कूल तक भी नहीं पहुंच पाते हैं।

मैं सोचती हूं कि एक किसान जो देश की भूख मिटा रहा है उसी के बच्चे बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं। कुछ इलाकों में सरकारें लड़कियों की पढ़ाई को मुफ्त कर चुकी है और वजीफे भी दे रही है फिर भी वहां की किसान परिवार की लड़कियां स्कूल तक नहीं पहुंच पा रही हैं। क्योंकि अगर वो स्कूल चली जाएंगी तो खेतों में उनके मां-बाप अकेले हो जाएंगे। बिना पारिवारिक मदद के कोई भी छोटा किसान खेती नहीं कर पाता है। इसलिए स्कूल जाने के नाम पर मेरी दोस्त कहती थी-क्या बापू-मां अकेले खेत संभाल पाएंगे? हमें भी तो उनके साथ ही खटना पड़ता है। तू ही बता कि खेतों में अपने बाबू-मां की मदद करना जरूरी है कि स्कूल जाना।

मैं अपनी दोस्त की बेबसी को अंदर तक महसूस करती हूं और सोचती हूं कि जिन किसान से पूरा हिंदुस्तान है उनके बच्चे ही सरकार की आंखों से ओझल हैं। लड़कियां सिर्फ छोटी उम्र में शादी के कारण ही स्कूल नहीं छोड़ती हैं। वे अपने खेतों के कारण भी स्कूल छोड़ती हैं। क्या किसी ने ध्यान दिया है कि जब खेतों में फसल अच्छी होती है तो आस-पास के स्कूल में लड़कियों की संख्या बढ़ जाती है लेकिन सूखे और बाढ़ की हालत में स्कूल लड़कियों से सूना हो जाता है। क्या हम कभी सोचते हैं कि हमारी खाने की थाली में स्कूल छोड़ने वाली लड़की की मेहनत और निराशा के आंसू भी हैं।

Subscribe to our daily hindi newsletter