उत्तराखंड: धान के बौने रहने की शिकायत, किसान चला रहे खड़ी फसल पर ट्रैक्टर

कृषि विभाग की सलाह पर अपना नुकसान कुछ कम करने के लिए किसान तोरिया की फसल लगा रहे हैं

On: Monday 19 September 2022
 
उत्तराखंड में धान के बौने रहने पर किसान खड़ी फसल पर ट्रैक्टर चला रहे हैं। फोटो: राजेश डोबरियाल

राजेश डोबरियाल

पंजाब और हरियाणा के बाद उत्तराखंड में भी धान की फसल पर वायरस के हमले की वजह से कई किसानों ने अपनी खड़ी फसल पर ट्रैक्टर चला दिया है। खास बात यह है कि देहरादून में धान की फसल बर्बाद होने का सीधा संबंध हरियाणा-पंजाब से है।

कृषि विभाग के अनुमान के अनुसार वायरस की वजह से इस साल धान की फसल में 30 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। हालांकि कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाली फसलों पर इसका असर होने की आशंका नहीं के बराबर है।

देहरादून के विकासनगर तहसील के प्रतीतपुर गांव में अपनी 18 बीघा धान की फसल पर ट्रैक्टर चलाने वाले किसान रमेश सैनी ने 26 बीघा में हाईब्रिड चावल की वैरायटी ‘8433’ लगाई थी, लेकिन सारी फसल वायरस का हमला होने से खराब हो गई। हालांकि आठ बीघा खेतों तक पहुंचने का रास्ता न मिलने की वजह से अभी वह फसल खड़ी है, लेकिन उससे सैनी को मिलने वाला कुछ नहीं है। 

अब वह तोरिया बोने की तैयारी कर रहे हैं, ताकि गेहूं की फसल से पहले मेहनत और निवेश के बदले कुछ तो मिल सके।

देहरादून में 8,000 हेक्टेयर में चावल की खेती होती है। इस बार इसमें से 345 हेक्टेयर जमीन पर खड़ी फसल प्रभावित हुई है। कृषि विभाग का अनुमान है कि इस वायरस की वजह से कुल धान उत्पादन में 30 फीसदी तक की कमी हो सकती है। 

देहरादून की जिला कृषि अधिकारी लतिका सिंह ने बताया कि चावल की किस्म ‘6444’ में सबसे पहले शिकायत आई थी। जुलाई महीने के बीच में ये शिकायतें मिलनी शुरू हुईं तो विभाग ने खेतों में जाकर फसलों को देखा और उन्हीं के अनुरूप दवा डालने के सुझाव दिए। जिन किसानों में सही मात्रा में जिंक-पोटाश आदि डाला उनकी फसल को बहुत हद तक रिकवर हो गई, लेकिन जहां भी थोड़ी चूक हुई वहां फसल बर्बाद हो गई।

लतिका बताती हैं कि धान की फसलों को नुकसान सदर्न ब्लैक स्ट्रीक वायरस की वजह से हुआ है। यह वायरस अपने नाम के अनुरूप दक्षिण भारत में 1963 में देखा गया था और अब अचानक वापस आ गया है।

खास बात यह भी है कि वायरस का शिकार हाईब्रिड चावल ही हुए हैं। विकासनगर के किसान जिनके बीज यमुनानगर, हरियाणा से लाए थे। पंजाब और हरियाणा में भी बड़ी मात्रा में चावल की फसल इसी वायरस के कारण बर्बाद हुई है।

इस वायरस से ज्यादातर वही फसल प्रभावित हुई है जिसकी रोपाई 15 जून तक की गई है। जुलाई में रोपी गई फसल ज्यादा प्रभावित नहीं हुई है। इसके अलावा बगल के खेतों में लगे बासमती और अन्य वैरायटी इस वायरस का शिकार नहीं हुईं। ऐसा भी हुआ कि मेड़ के इस तरफ खराब हो चुकी फसल है और दूसरी तरफ स्वस्थ फसल। 

बहुत लोगों ने फसल बीमा भी नहीं करवा रखा है। कृषि विभाग अभी यह आकलन करने में लगा है कि कितने लोगों ने फसल बीमा करवाया है और उनके कितने नुकसान की भरपाई हो सकती है। 

कृषि विभाग का कहना है कि जिनकी फसल पूरी तरह खराब हो गई है उन्हें तोरिया के बीज भी उपलब्ध करवाए गए हैं, ताकि वह गेहूं की खेती से पहले एक फसल ले सकें और उनके नुकसान की कुछ भरपाई हो सके। 

रमेश सैनी कृषि विभाग द्वारा बीज उपलब्ध करवाने की बात से इनकार करते हैं। वह कहते हैं कि कृषि विभाग 90 रुपये का जो बीज दे रहा है, वह बाजार में 60 रुपये में उपलब्ध है। 

लेकिन अब बड़ा सवाल यह है कि तो क्या आने वाली फसलों को इस वायरस से खतरा नहीं है?

लतिका सिंह इससे इनकार करते हुए कहती हैं कि यह वायरस धान की फसल पर लगता है और अब तक यह देखा गया है कि यह कुछ हाइब्रिड बीजों पर ही लगा है। इसलिए अन्य फसलों में इसके जाने की आशंका लगभग नहीं है।

पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति रहे डॉक्टर तेज प्रताप भी इस बात से सहमति जताते हैं। वह कहते हैं कि चावल पर लगने वाले वायरस अक्सर फसल बदलने के बाद निष्क्रिय हो जाते हैं।

वह यह भी बताते हैं कि सेब पर लगने वाला वायरस को जमीन में जिंदा रह जाता है और पेड़ को बदल देने के बावजूद सात-आठ साल तक सक्रिय रहता है। चावल पर लगने वाले वायरस में ऐसा नहीं होता।

इकोलॉजिकल बैकलैश

तेज प्रताप कहते हैं कि सच तो यह है कि हम वायरस के बारे में अभी बहुत ज्यादा नहीं जानते हैं।  बैक्टीरिया से होने वाली बीमारी, फंगस को तो हम कंट्रोल कर सकते हैं, लेकिन वायरस को पूरी तरह कंट्रोल करने में अब तक कोई बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई है। 

वह कहते हैं कि वायरस आता है, बीमारी फैलाता है और आप उसे किसी तरह कम करने में, कमजोर करने में कामयाब हो जाते हो, लेकिन वह खत्म नहीं हुआ है। जैसे ही उसे अनुकूल परिस्थितियां (खास किस्म का तामान और नमी) मिलती हैं वह फिर सक्रिय हो जाता है और तेजी से बढ़ने लगता है।

1963 में दक्षिण भारत में आए वायरस को उत्तर भारत में अनुकूल परिस्थितियां मिलीं वह सक्रिय हो गया। दरअसल अब मौसम अपना दूसरा रूप दिखा रहा है। इसे इकॉलॉजिकल बैकलैश बोलते हैं।  इसका मतलब प्रकृति ने अब रिएक्ट करना शुरू कर दिया है। 

राहत की बात यह है कि आमतौर पर फसलों के वायरस दूसरी फसल पर नहीं जाते हैं। एकबारगी यह तो हो सकता है कि यह धान की किसी दूसरी किस्म में लग जाए, लेकिन दाल या गेहूं पर नहीं लगेगा।

वह कहते हैं कि हाईब्रिड फसलों के शिकार होने की आशंका हमेशा से ज्यादा होती है, क्योंकि आपने उसके जीन्स से छेड़छाड़ कर एक खास चीज को बढ़ा दिया है, तो दूसरे जीन्स कमजोर हो जाते हैं। 

इसके विपरीत अपनी जो देसी फसलें होती हैं वह मौसम के उतार-चढ़ाव को ज्यादा मजबूती के साथ झेल पाती हैं, उन पर आसानी से वायरस अटैक नहीं होता।

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