क्या भारत फिर कृषि प्रधान बनेगा?

खरीफ का मौजूदा रकबा उम्मीद जगाता है क्योंकि कोविड काल में अधिक से अधिक किसान खेती की ओर लौट रहे हैं

By Richard Mahapatra

On: Wednesday 08 July 2020
 
Photo: Pavan Maruvada/Pexels

समाज में किस्सागोई का अपना महत्व है। ये किस्से अक्सर दीर्घकालीन बदलावों का सशक्त संकेत देते हैं। कुछ दशकों पहले जब किसान अपने खेतों से कीटों के गायब होने और परागण न होने की चर्चा करते थे, तब कहानियां से ही पता चला था कि इन कीटों की विलुप्ति से खेती पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। 1918-19 में स्पेनिश फ्लू के तुरंत बाद बहुत से स्वास्थ्यकर्मियों ने पशुओं से उत्पन्न होने वाली बीमारियों के बारे में बात की थी। ये कहानियां घरों के ड्रॉइंग रूम में खूब सुनाई गईं। किसको पता था कि दशकों बाद वैज्ञानिक महामारी की भविष्यवाणी करेंगे और कोविड-19 उनमें से एक होगी।

वर्तमान में हम किसानों से कुछ कहानियां सुन रहे हैं। भारतीय गांव अप्रत्याशित रूप से जीवंत हो उठे हैं क्योंकि लाखों प्रवासी मजदूर लॉकडाउन के कारण आर्थिक गतिविधियों के थमने से लौट आए हैं। ये लोग गांव में किन मुद्दों पर बात कर रहे हैं? अधिकांश लोग जीवनयापन के भविष्य पर बात कर रहे हैं। चर्चा का एक बड़ा मुद्दा यह है कि वे दिहाड़ी मजदूरी के लिए शहरों में लौटे या नहीं। अगर वे नहीं लौटते तब क्या करेंगे?

देशभर में सर्वाधिक अनौपचारिक मजदूर वाले राज्यों में शामिल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार के मजदूर राज्य के बाहर काम करते हैं। अब ऐसी कहानियां छनकर आ रही हैं कि इनमें से अधिकांश लोग खेती करने लगेंगे। इसके अलावा ऐसी कहानियां भी हैं किसान परिवार अनिश्चित समय के लिए घर लौटे सदस्यों को देखते हुए कृषि गतिविधियों को बढ़ा रहे हैं, क्योंकि अब काम के लिए अतिरिक्त हाथ उनके पास हैं। ये कहानियां बदहाल कृषि क्षेत्र को देखते हुए सुकून देने वाली लगती हैं। पिछले एक दशक से हम इस तथ्य के साथ जी रहे हैं कि किसान खेती छोड़ रहे हैं। पिछली गनगणना के अनुसार प्रतिदिन 2,000 किसान खेती से मुंह मोड़ रहे हैं।

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के खरीफ के मौजूदा बुलेटिन की मानें तो कवरेज क्षेत्र यानी रकबा पिछले वर्ष के 23 मिलियन हेक्टेयर के मुकाबले अब 43.3 मिलियन हेक्टेयर यानी लगभग दोगुना हो गया है। धान का कवरेज भी पिछले साल के 4.9 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर इस साल 6.8 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में जहां बड़ी संख्या में लोग लौटें हैं, वहां यह कवरेज काफी बढ़ा है। आंकड़े यह नहीं बताते कि खेती से लोगों का जुड़ाव स्थायी है लेकिन यह संकेत जरूर देते हैं कि कुछ कारणों ने लोगों ने खेती का रकबा बढ़ा दिया है। हो सकता है कि यह अच्छी बारिश की वजह से हुआ हो। यह भी संभव है कि खेती के लिए मजदूरों की उपलब्धता को देखते हुए रकबा बढ़ा हो।

किसानों की बातचीत में एक अन्य स्टोरी पता चलती है। बहुत से लोग कह सकते हैं कि यह सिर्फ खतरे से बचने की प्रवृति हो सकती है। लेकिन यह तथ्य है कि किसान परिवार के जो लोग अतिरिक्त आय के लिए बाहर गए थे, वे लौट आए हैं। कृषि में वे अतिरिक्त मजदूर लगा रहे हैं। लेकिन क्या इससे फिर से कृषि से जुड़ने की प्रवृत्ति बढ़ेगी? यह काफी हद तक अतिरिक्त संसाधनों को खेती में लगाने के नतीजों पर निर्भर करेगा। इसका अर्थ है कि अगर उन्हें अच्छा मेहनताना मिलेगा तो वे इससे जुड़े रहेंगे।

अत: यह एक अवसर है। खासकर ऐसे समय में जब आर्थिक अवसरों और राष्ट्रीय आय में योगदान के कारण भारत को कृषि प्रधान नहीं माना जाता। इस अवसर के साथ बेशुमार चुनौतियां भी हैं और ये जानी पहचानी हैं। इन्हीं चुनौतियों ने कृषि क्षेत्र को पंगु बना रखा है। इनमें प्रमुख है- कृषि को आर्थिक रूप से लाभकारी कैसे बनाएं? उत्पादन अब किसानों के लिए समस्या नहीं है। अब वे हमें सालों से बंपर उत्पादन दे रहे हैं। समस्या है उनके लिए उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करना। मुक्त बाजार के विचार ने इसमें काफी मदद की है।

यह विचार एकमात्र समाधान यह देता है कि किसानों के लिए व्यापार की बेहतर स्थितियां बनाकर बाजार तक उनकी पहुंच बना दी जाए। इसके लिए सरकार को किसानों के लिए गारंटर का काम करना होगा। इसका अर्थ है कि सरकार को खरीद, उचित मूल्य और बाजार की व्यवस्था करनी होगी। अब तक इस दिशा में हुआ काम मददगार साबित नहीं हुआ है। किसानों को वापस खेती से जोड़ने के लिए 70 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को बेहतर जिंदगी देनी होगी। सरकार का पहला पैकेज इसी दिशा में होना चाहिए। किसानों को इस वक्त सरकार की सबसे ज्यादा जरूरत है।

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