“असंवेदनशील शासन से नहीं निकलेगा समस्या का समाधान”

पीवी राजगोपाल उर्फ राजाजी आज देशभर के किसानों की एक सशक्त आवाज बन गए हैं

By Anil Ashwani Sharma

On: Saturday 15 July 2017
 

तारिक अजीज / सीएसई

गांधीजी ने ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देने के लिए डांडी मार्च किया था। उनके पदचिन्हों पर चलने वाले नवगांधीवादी पीवी राजगोपाल ने दो बार दिल्ली की ओर कूच कर राजधानी में सत्तासीन लोगों को चुनौती दी। अब वह तीसरी बार दिल्ली कूच करने की तैयारी में आदिवासियों, किसानों व मजदूरों को एकजुट करने में प्रयासरत हैं। यह मार्च पलवल से दिल्ली तक 2 अक्टूबर 2018 को होगा और इसमें लगभग डेढ़ लाख लोग शामिल होंगे। राजगोपाल अपनों के बीच “राजाजी” के नाम से जाने जाते हैं। कत्थककली नृत्य में माहिर राजाजी कभी इस नृत्य से आजीविका के साधन जुटाते थे। कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री फारुख शेख के सामने भी उन्होंने अपना नृत्य कौशल दिखाया था। लेकिन इसके बाद भू आंदोलन में विनोबा भावे के जुड़े और बाद में गांधीवादी सुब्बाराव के साथ चंबल के खूंखार डाकुओं का आत्मसमर्पण करवाने में प्रमुख भूमिका निभाई। राजाजी ने छत्तीसगढ, बुंदेलखंड, महाकौशल, बघेलखंड और मालवा जैसे इलाकों में दूर-दराज क्षेत्रों में बसे आदिवासियों व किसानों के अधिकारों की लड़ाई शुरू की। उनकी यह लड़ाई आज भी अनवरत जारी है। अिनल अश्विनी शर्मा ने हाल ही में उनसे जमीन से जुड़े मुद्दों पर बात की:

पिछले एक दशक में आपने कई बार आदिवासियों के साथ दिल्ली कूच किया। क्या इन आंदोलन के जरिए सत्ता को संदेश देने में कामयाब रहे?

सत्याग्रह में एक सत्य होता है। 2006 में चेतावनी यात्रा हुई। और 2007 में हमारे साथ 25,000 आदिवासी-किसान आए। इस यात्रा का एक लाभ हुआ है कि फॉरेस्ट राइट एक्ट लागू हुआ। और हम यह कह सकते हैं कि इसके लागू होने से लगभग 60 लाख लोगों को जमीन मिली है।

इस प्रकार के दिल्ली कूच से आदिवासियों व किसानों का कितना भला हो पाता है?

आदिवासियों को जीवन जीने का अधिकार, जल जंगल जमीन पर उनके अधिकार पहली बार साबित करने में वह यात्रा सफल साबित हुई। नेशनल लैंड रिफार्म काउंसिल (राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद) और लैंड रिफार्म टास्क फोर्स (भूमि सुधार दस्ता) गठन करने का केंद्र सरकार ने एलान किया। पर इसे मूर्त रूप नहीं दिया गया। तब हमने केंद्र सरकार को चेतावनी दी कि अगर आगामी पांच साल में जमीन से जुड़ी समस्या का हल नहीं किया तो हम 2012 में फिर आएंगे। लेकिन केंद्र ने पांच साल में कुछ भी नहीं किया। तब हमने एक लाख लोगों की यात्रा की तैयारी की।

इस यात्रा को रुकवाने के लिए तब केंद्र में मंत्री जयराम रमेश और ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर आए। हमने उनसे कहा कि आप दिल्ली में जाकर अपनी तैयारी करो, हम वहीं आ रहे हैं। जयराम रमेश को यह मालूम था कि दिल्ली में एक लाख लोगों का आना उनकी सरकार के लिए बुरा संदेश होगा। इसलिए उन्होंने प्रधानमंत्री से मिलकर इस पर सलाह ली। यात्रा जब आगरा पहुंची तो वे खुद वहां पहुंचे और दस सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किया। सत्याग्रहियों के साथ सरकार का यह समझौता ऐतिहासिक था। इसके पहले केंद्र ने कभी भी एक लाख लोगों के सामने किसी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किया था।

ब्रिटिश जमाने के भूमि अधिग्रहण कानून में अब तक कितना सुधार हुआ है?

इस आंदोलन का सबसे बड़ा प्रभाव देखने में यह आया कि ब्रिटिश जमाने के भूमि अधिग्रहण कानून में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। इस कानून में कुछ प्रगतिशील कायदा जोड़कर 2013 का कानून बना। इसमें प्रावधान रखे गए हैं कि केवल पर्यावरण से संबंधित अध्ययन नहीं होंगे, बल्कि सामाजिक प्रभावों से जुड़े अध्ययन भी होंगे। सत्तर फीसदी लोगों की अनुमति के बिना सरकार जमीन नहीं ले सकेगी। इतना ही नहीं भूमालिकों के साथ जमीन पर निर्भर रहने वाले लोगों को भी मुआवजा मिलेगा। साल भर फसलें देने वाली जमीन नहीं ली जाएगी। इसके साथ ही यदि सरकार द्वारा ली गई जमीन पांच सालों तक इस्तेमाल में नहीं लाई गई तो उसे वापस जमीन मालिक को लौटा दिया जाएगा। ये सभी सुधार हमारे 2012 के आंदोलन के बाद आए।

उसके बाद आई राजग सरकार का भूसत्याग्रहियों के साथ कैसा रिश्ता बना?

नई सरकार के 2014 में आते ही इन प्रावधानों को हटाने के लिए एक के बाद एक तीन आध्यादेश लाए गए। तब हमने पलवल से संसद तक देशभर के सभी जनआंदोलनों से जुड़े नेताओं के साथ मार्च किया। और, हम केंद्र सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश को समाप्त करवाने में सफल रहे।

यूपीए सरकार के साथ हुए दस सूत्रीय आगरा समझौते पर कितना अमल किया गया?

इस समझौते की कुछ ही बातों पर अमल किया गया। आवासीय जमीन देने के लिए जरूर केंद्र सरकार से इसके मद में पैसा बढ़ाने की बात हुई। हमारा अनुमान है कि पूरे देश में पांच करोड़ लोग सड़क किनारे,फुटपाथ पर या नाला किनारे तंबू लगा कर सोने के लिए मजबूर हैं। आवासीय अधिकार कानून बनाने की बात हुई। हमने इसका मसौदा जयराम रमेश के साथ तैयार किया है। इसे शहरी विकास और कानून मंत्रालय दोनों ने मान लिया है और इस संबंध में कानून बनाकर रखा हुआ है। बस इसे संसद में पेश करना बचा है। इसी तरह से नेशनल लैंड रिफार्म पॉलिसी (राष्ट्रीय भूमि सुधार योजना) की बात थी क्योंकि जब तक पॉलिसी फ्रेम वर्क नहीं है तब तक जमीन की समस्या हल कैसे होगी। जमीन समस्या के हल का मतलब है कि जितने लोगों की जमीन मजबूत तबके के लोगों ने छीन ली है उसे वापस करवाना है।

क्या आप अब भी मानते हैं कि समझौते की बातें केंद्र सरकार मानेगी?

हां। मैं पूरी तरह से आशावादी हूं और इस संबंध में मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिला और उनसे मैंने सीधे कहा कि समझौते की अपनी एक साख होती  है, अहमियत होती है। इसके लिए यह अहम नहीं होता है कि सरकार किसकी है।

तो क्या सरकार पर दबाव डालने के लिए फिर से दिल्ली की ओर कूच करेंगे?

जी हां। हमने सरकार से कहा है यदि आपने हमारी समस्या का हल जल्दी नहीं किया तो आगामी 2 अक्टूबर 2018 को डेढ़ लाख आदिवासी मजदूर किसान पलवल से दिल्ली की ओर कूच करेंगे।

तो क्या ऐसे हालात में देश भर के किसान और कामगार अपने हकों के संघर्ष के लिए एकजुट होंगे?

निश्चय ही देश भर में किसानों और मजदूरों का संघर्ष तेज होगा। हमारी कोशिश रहेगी कि यह संघर्ष अहिंसक रहे। हमारे देश में आंदोलन को अहिंसक रखने का प्रशिक्षण जरूरी है। देखा गया है कि पुलिस और सेना के उकसावे के कारण आंदोलन हिंसक हो जाता है।

मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र सहित कई और राज्यों में किसान आंदोलित हो रहे हैं, इसके क्या कारण हैं?

अब मध्य प्रदेश में तो किसान अपने वाजिब दाम मांग रहे हैं। वे कह रहे हैं कि सरकार विदेश से तेल और अन्य सामान मंगवाकर हमारे देश के बाजार को कमजोर कर रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प जैसा आदमी भी विदेशी बाजार से बचने की कोशिश कर रहा है। वैश्वीकरण के नाम पर तो आप ये नहीं कह सकते कि हर सामान चीन या अमेरिका से आएगा। वास्तव में यहां असंवेदनशील गवर्नेंस है। ऐसे में समस्या का हल भी नहीं निकलेगा और न ही हिंसा पर काबू पाया जा सकेगा।

गांधी के देश में उन्हीं को सबसे अधिक धिक्कारने वाले लोग हैं, इसे आप किस नजर से देखते हैं?

देश का दक्षिणपंथी हो वामपंथी, हम सबने गांधी की आलोचना करके उन्हें इस हालात में ला खड़ा किया है। आज गांधी को मिटाना इस देश की एक आवश्यकता बन गई है। आज की आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा गांधी है। आप दारू पीकर गांधी की बात नहीं कर सकते। हां मार्क्स की बात जरूर कर सकते हैं।

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