एक छोटी सी पहल ने बचाई लाखों की फसल

पश्चिम बंगाल में ब्लॉक स्तर पर हो रही मौसम की भविष्यवाणी किसानों के लिए मददगार साबित हो रही है, इसका तरीका भी बेहद रोचक है

By Gurvinder Singh

On: Thursday 23 January 2020
 

पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के रंजनडीह गांव में रहने वाली 55 वर्षीय साधमणि तुडु हर सुबह अपने खेत में जाने से पहले गांव में एक घर की दीवार पर लगा चाकबोर्ड देखना नहीं भूलतीं।

तुडु कहती हैं, “पिछले चार साल से चाकबोर्ड देखना गांव से अधिकांश लोगों की आदत में शुमार हो चुका है।” यह चाकबोर्ड 2015 में कोलकाता स्थित गैर लाभकारी संगठन डेवलपमेंट रिसर्च कम्युनिकेशन एंड सर्विस सेंटर (डीआरसीएससी) ने लगाया था। इसमें लिखे बुलेटिन में पांच दिन के मौसम के पूर्वानुमान से संबंधित जानकारी जैसे, तापमान, बारिश, हवा की गति प्रदर्शित की जाती है। तुडु बताती हैं, “इसमें संभावित मौसम की जानकारी और उससे बचने के प्राकृतिक तरीके भी बताए जाते हैं।”

डाउन टू अर्थ ने अक्टूबर 2019 में जब रंजनडीह गांव का दौरा किया तब चाकबोर्ड में मौसम से संबंधित आंकड़े साफ-साफ लिखे थे। सबसे आखिर में लिखा था, “बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट (जीवाणु पत्ती अंगमारी) धान को प्रभावित कर सकती है।” धान की फसल में लगने वाले इस रोग से बचने का तरीका भी बताया गया था। नोट में लिखा था, “तंबाकू की 500 ग्राम जड़ें लेकर उसे दो लीटर पानी में दो घंटे तक उबाल लें। यह पानी ठंडा होने के बाद उसमें 20 लीटर पानी मिला दें और साफ मौसम में इसे फसलों पर छिड़क दें।”

तुडु बताती हैं कि सही समय पर यह कदम उठाकर किसानों ने नुकसान को न्यूनतम कर दिया। वह याद करती हैं, “एक बार चाकबोर्ड के बुलेटिन में ओले पड़ने की जानकारी दी गई थी। उस मौसम में मैंने टमाटर और बैंगन की खेती की थी और फसल लगभग तैयार थी। चाकबोर्ड की जानकारी के बाद मैंने तुरंत फसल काट ली।” वह बताती हैं कि फसलों का नुकसान कम करके उनकी आमदनी चार साल में 25 हजार से बढ़कर 40 हजार रुपए हो गई है। पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और बांकुरा जिले में इस तरह की ढेरों कहानियां हैं। इन जिलों में डीआरसीएससी ने नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) के साथ मिलकर किसानों को जलवायु के प्रति सहनशील बनाने के लिए एक परियोजना शुरू की है। पुरुलिया में नाबार्ड के असिस्टेंट जनरल मैनेजर कंचन कुमार भट्टाचार्य बताते हैं, “इस परियोजना से किसानों को फायदा हो रहा है और हम दूसरे जिलों में इसे शुरू करने के लिए सरकार से बातचीत कर रहे हैं।”

भट्टाचार्य बताते हैं कि इस परियोजना के जरिए 20 हजार किसानों को किसी न किसी रूप में फायदा पहुंच रहा है। इससे बहुत से लोगों की खेती की लागत में 35 प्रतिशत की कमी आ गई है। बुलेटिन में प्रदर्शित उपायों को अपनाकर अधिकांश लोग प्राकृतिक खाद तैयार कर रहे हैं। इससे रासायनिक उर्वरकों पर खर्च होने वाले धन की बचत हो रही है। पुरुलिया के सूरा गांव के किसान अतुल चंद्र सरदार कहते हैं कि पूर्वानुमान के चलते उनका बिजली का बिल कम हुआ है। वह बताते हैं, “अगर बुलेटिन बोर्ड से हमें यह पता चल जाए कि अगले कुछ दिनों में बारिश होगी तो हम सिंचाई के लिए पंप का इस्तेमाल नहीं करते। इसी तरह अगर चक्रवात और तेज हवाओं की जानकारी मिलती है तो हम खेतों से हवा को बचाने का इंतजाम पहले से कर लेते हैं। रंजनडीह गांव के पशुपालक दिलीप प्रधान बताते हैं कि बुलेटिन बोर्ड में मौसम में अचानक बदलाव के कारण मवेशियों को होने वाली संभावित बीमारियों की जानकारी भी दी जाती है और इससे बचने के लिए दवा और भोजन भी सुझाया जाता है। सूरा गांव की गृहिणी रत्ना प्रधा बताती हैं, “अगर बुलेटिन बोर्ड में अगले पांच दिनों में भारी बारिश का भविष्यवाणी होती है तो हम जलावन की लकड़ी और खाद्य पदार्थों का भंडारण कर लेते हैं। इसी के हिसाब से हम अपनी या़त्राओं की भी योजना बनाते हैं।”

(फोटो: गुरविंदर सिंह) पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के रंजनडीह गांव में चाकबोर्ड के जरिए सूक्ष्म स्तर पर मौसम के पूर्वानुमान की जानकारी प्रदर्शित की जाती है । (दाएं) ऑटोमेटेड वेदर स्टेशन दस किलोमीटर के दायरे में मौसम की जानकारी एकत्रित करने में मददगार साबित होते हैं

प्रोजेक्ट के लोकप्रिय होने की बड़ी वजह इसका डिजाइन और ब्लॉक पर आधारित मौसम की एडवाइजरी है। डीआरसीएससी ने छह ऑटोमेटेड वेदर स्टेशन (एडब्ल्यूएस) और 12 मैन्युअल डाटा कलेक्शन सेंटर स्थापित किए हैं। एडब्ल्यूएस 10 किलोमीटर के दायरे में 5 दिनों के आंकड़े एकत्रित करने में सक्षम होता है। मैन्युअल डाटा कलेक्शन सेंटरों में स्वयंसेवक बने किसान वातावरण के तापमान को प्रतिदिन मापते हैं और उसके बाद आंकड़ों को दर्ज कर लेते हैं।

डीआरसीएससी के कार्यक्रम प्रमुख सुजीत कुमार मित्रा बताते हैं कि मैन्युअल डाटा से एडब्ल्यूएस की दक्षता को जांचने-परखने में भी मदद मिलती है। वह बताते हैं, “अगर मैन्युअल डाटा से 10 प्रतिशत का भी अंतर आता है तो हम एडब्ल्यूएस की मरम्मत करते हैं। माइक्रो स्तर से संपूर्ण आंकड़े गोरखपुर एनवायरमेंटल ग्रुप (जीईजी) के मौसम वैज्ञानिक कैलाश पांडे को भेजे जाते हैं। भेजे गए इन आंकड़ों, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों और मौसम की वैश्विक स्थितियों के विश्लेषण के बाद वह मौसम का पूर्वानुमान जारी करते हैं। गोरखपुर एनवायरमेंटल ग्रुप एक गैर लाभकारी संगठन है जो 2011 से माइक्रो स्तर पर मौसम का पूर्वानुमान जारी करता है। इसके पूर्वानुमान से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और बिहार के पश्चिमी चंपारन जिले में 90 हजार किसानों को फायदा पहुंचा है। कैलाश पांडे बताते हैं, “हम मौसम का पूर्वानुमान नेपाल के नवलपरासी जिले के किसानों से भी साझा करते हैं।”

आमतौर पर संदेशों का स्थानीय भाषा में अनुवाद किया जाता है। इसके बाद संदेशों को दीवारों पर लिखकर, हैंडआउट्स, लिखित संदेश व वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया के माध्यम से प्रेषित कर दिया जाता है। रंजनडीह में स्वयंसेवक ज्योत्स्ना तुडु कहती हैं, “हम मौसम का पूर्वानुमान बुलेटिन बोर्ड पर प्रदर्शित करते हैं। साथ ही हर रविवार को निरक्षर लोगों को जानकारी देने के लिए सामुदायिक बैठक भी आयोजित करते हैं।”

पुरुलिया के काशीपुर ब्लॉक में सहायक कृषि निदेशक ब्रजोगोपाल मोंडल बताते हैं, “इस मॉडल से प्रभावित होकर कृषि विज्ञान केंद्रों ने भी सप्ताह में दो बार किसानों को मौसम का पूर्वानुमान बताना शुरू कर दिया है।” उनका मानना है कि इस तरह के प्रोजेक्ट देशभर में शुरू करने चाहिए।

पश्चिम बंगाल में बिधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर प्रबीर भट्टाचार्य मोंडल से सहमति जताते हैं। उनका कहना है कि राज्य सरकारें रेडियो और टेलिविजन पर मौसम का पूर्वानुमान जारी करती हैं लेकिन एक ब्लॉक से दूसरे ब्लॉक में यह बदल जाती है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में जरूरी है कि पूर्वानुमान माइक्रो स्तर पर जारी किया जाए जिससे किसानों को वास्तव में फायदा पहुंचे। वह बताते हैं कि कृषि क्षेत्र में तकनीक का यह मेल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वैश्विक तापमान से भारत की खाद्य उत्पादकता को बड़ा खतरा है।

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