नई सरकार के सामने न्यू इंडिया में भारत को बचाने की चुनौती

मोदी सरकार के सामने चुनौती होगी कि वह किसानों को फसल का उचित दाम दिलाए और ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार के पर्याप्त इंतजाम करने होंगे

By Richard Mahapatra

On: Wednesday 29 May 2019
 

तारिक अजीज / सीएसई

इस समय तक, हममें से ज्यादातर लोग सुनैना रावत को जान चुके हैं। एक 12 साल की लड़की, जो उत्तर प्रदेश के एक गांव में रहती है। चुनाव कवरेज के दौरान एनडीटीवी न्यूज चैनल के प्रमुख प्रणय रॉय ने जब उससे उसकी जिंदगी और उसकी आकांक्षाओं के बारे में बात की तो वह देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में व्याप्त संकट और ग्रामीणों की आंकाक्षाओं का प्रतीक बन गई। याद रखिएगा, वह 2024 में पहली बार मतदान करने जाएगी और उस समय उसकी जैसी लाखों होंगी।

सुनैना भारत के कृषि संकट और इस संकट को कम करने में हमारी आपराधिक विफलता का चलता फिरता बयान है। एनडीटीवी के साथ उसकी बातचीत का सार है कि वह एक डॉक्टर बनना चाहती है, लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है। उसका परिवार जो थोड़ा बहुत कमाता था, आवारा पशुओं की वजह से गंवा चुका है और उनके पास आजीविका का कोई वैकल्पिक स्रोत नहीं है। क्या वह डॉक्टर बन सकती है?

उसके जवाब से ग्रामीण व शहरी भारतीयों के बीच बन चुकी गहरी खाई के बारे में पता चलता है। “शहरी लोगों के पास पैसा है।” साक्षात्कार के दौरान वह कई बार यह बात दोहराती है। आधे घंटे में, उसने भारत के कृषि संकट के साथ-साथ यह भी बता दिया कि एक ग्रामीण भारतीय कैसे कमाता है या नहीं कमाता है। उसने इंडिया या शहरी भारतीयों के प्रति सरकार के पक्षपात पूर्ण रवैये की ओर भी इशारा किया, उसके अनुसार जो विशेषाधिकार का आनंद लेते हैं।

ऐसे में, नई सरकार का एजेंडा होना चाहिए कि वह सुनैना जैसे लोगों की अर्थव्यवस्था में सुधार लाए, उनकी आकांक्षाओं को पूरा करे।

भारत का ग्रामीण और कृषि संकट विस्फोटक स्थिति में पहुंच चुका है। किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, हालांकि हमने गिनना बंद कर दिया है। बेरोजगारी उच्च स्तर पर पहुंच चुकी है। तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था के दावे के बीच ग्रामीण अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है।

सकल घरेलू उत्पाद के साथ-साथ निजी खपत में भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी आधी से अधिक है। इस निजी खपत का कुल 40 फीसदी हिस्सा कृषि क्षेत्र से आता है। यदि अगला मानसून सामान्य स्तर से नीचे रहा तो लगभग 250 जिलों को पांचवीं बार सामान्य से कम बारिश का सामना करना पड़ेगा और उनके लिए यह वर्ष भी सूखा वर्ष होगा। इनमें ज्यादातर जिले ऐसे हैं, जो पूरी तरह से बारिश पर निर्भर रहते हैं और इन जिलों में सबसे गरीब आबादी रहती है। वर्तमान में, लगभग 300 जिले पहले से ही सूखे की चपेट में हैं। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में सूखे का तीसरा और आंध्र प्रदेश के रायलसीमा में लगातार पांचवा साल है। चुनाव अभियान के दौरान 6 अप्रैल, 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार “गरीबी” शब्द का उल्लेख देश के सबसे गरीब जिलों में से एक ओडिशा के सोनपुर में किया। जिसका मकसद प्रतीकात्मक संदेश देना था।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। लगातार सूखे की वजह से ग्रामीण फसल और आमदनी गंवा रहे हैं, तो उन्हें आजीविका के लिए दूसरे विकल्प भी नहीं िमल रहे हैं। इस वजह से उनकी आर्थिक दशा बद से बदतर होती जा रही है।

कृषि क्षेत्र में मजदूरी की औसत वृद्धि दर 2016-17 के मुकाबले 2018-19 में लगभग आधी रह गई। ऐसे में, जो लोग मजदूरी को विकल्प बनाना चाहते थे, वे ऐसा नहीं कर पाए। उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत 2018-19 में औसतन एक घर को 38 दिन का रोजगार ही मिल पाया। जबकि 2017-18 में यह औसत 45.8 दिन था। इसी तरह, गैर-कृषि मजदूरी वृद्धि में भी लगभग 4 प्रतिशत (दिसंबर 2018) की गिरावट दर्ज की गई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, सामान्य ग्रामीण मजदूरी वृद्धि में 20-30 प्रतिशत की गिरावट है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में संकट के संकेत 2011 में मिलने लगे थे। नवंबर 2011 में ग्रामीण मजदूरी दर में 20 प्रतिशत से अधिक की ऐतिहासिक गिरावट हुई थी। नवबंर 2014 में इसमें केवल 3.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। लेकिन इस साल दो गंभीर सूखे की शुरुआत भी हुई। 2014-15 में कृषि विकास केवल 0.2 प्रतिशत था। हालांकि आधिकारिक तौर पर मानसून सामान्य रहा और किसानों को नुकसान नहीं हुआ। लेकिन किसानों को उनकी उपज के लिए पर्याप्त लाभ नहीं मिला। मजदूरी दर में गिरावट का मतलब है कि लगभग 50 करोड़ (500 मिलियन) दैनिक वेतनभोगी ग्रामीणों की आय में गिरावट। यह एक अतिरिक्त नुकसान है, क्योंकि खेती से उनकी कथित आय भी डूब चुकी थी। सुनैना ने भी इसका उल्लेख किया कि कैसे उसके पिता को दैनिक मजदूरी नहीं मिल रही है।

जो भी इस साल सत्ता में आएगा, उसके सामने ये समस्याएं और अधिक गंभीर हो चुकी होंगी। इसलिए, अगली सरकार की अपनी प्राथमिकता में पर्यावरणीय मुद्दों को शामिल करना ही पड़ेगा, जिससे निस्संदेह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फायदा होगा। जलवायु परिवर्तन के इस युग में अनियमित मौसम को देखते हुए नई सरकार को नए तरीके खोजने होंगे। इस समय किसानों को 1960 के दशक की हरित क्रांति की तरह एक नए कदम की जरूरत है। लेकिन यह एक पर्यावरणीय एजेंडा होना चाहिए: मिट्टी, पानी, उत्पादन और उत्पादों के वितरण के मुद्दों पर ध्यान देना होगा, जो किसानों को एक अच्छी आमदनी सुनिश्चित करेंगे।

मनरेगा ऐसी योजना है, जो न केवल सूखे के असर को कम करेगी, बल्कि लोगों की आमदनी भी बढ़ाएगी। लेकिन एक विश्लेषण बताता है कि 2018-19 में 18 लाख से अधिक जल संरक्षण और सिंचाई से संबंधित कार्यों को अधूरा छोड़ दिया गया या शुरू ही नहीं किया गया, जो सूखे से बचा सकते थे। बड़ी संख्या में जॉब कार्ड भी किसानों के काम ही नहीं आए। सरकार ने लगभग 16,615 करोड़ रुपए निर्माण पर खर्च किए, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ।

इसलिए, नई सरकार को कुछ जरूरी कदम तुरंत उठाने होंगे। किसानों को खराब मौसम की घटनाओं से बचाने और मुआवजे की व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी। उन्हें उनके उत्पादों के सही दाम देने की व्यवस्था की जाए। मनरेगा के तहत उन्हें मिलने वाली अतिरिक्त आमदनी की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। साथ ही, यह भी सुनिश्चित किया जाए कि इस योजना के कार्यों के तहत जल संरक्षण ढांचे न केवल पूरी तरह से बनाए जाए, बल्कि इनका इस्तेमाल भविष्य में सूखे से निपटने के लिए भी किया जा सके।

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