भारत में बढ़ रहा है कृषि उत्पादन, पर साथ ही घट रही है फसलों की विविधता

एक अध्ययन में कहा गया है कि पिछले 50 वर्षों के दौरान कृषि में आ रहे बदलावों के चलते भारत के खाद्य उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, लेकिन फसलों की विविधता में कमी आई है

By Lalit Maurya

On: Monday 25 November 2019
 
एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत में कृषि उत्पादन बढ़ने के बावजूद फसलों की विविधता कम हो रही है। फोटो: विकास चौधरी

 

यह सच है कि पिछले 50 वर्षों के दौरान कृषि में आ रहे बदलावों के चलते भारत के खाद्य उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है। लेकिन इसके साथ ही फसलों की विविधता में भी कमी आ रही है। अंतराष्ट्रीय जर्नल प्रोसीडिंग ऑफ द नेशनल अकादमी ऑफ साइंसेज में छपे नए शोध से पता चला है कि फसलों में विविधता लाने से उनमें पोषण की मात्रा बढ़ जाती है। इसके साथ ही कृषि के लिए संसाधनों की मांग घट जाती है और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो जाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ऐसा करने से फसलें जलवायु परिवर्तन का सामना करने में सक्षम हो जाती हैं। इसके साथ ही उनमें पोषण भी बना रहता है, साथ ही भूमि पर पड़ने वाला दबाव भी कम हो जाता है।

वैश्विक स्तर पर हरित क्रांति की वजह से 1950 से 1960 के बीच कृषि क्षेत्र के विकास के लिए तकनीकों और ज्ञान का आदान प्रदान शुरू हो गया। जिसके परिणामस्वरूप दुनिया भर में और विशेष रूप से विकासशील देशों के कृषि उत्पादन में रिकॉर्ड वृद्धि हुई । उच्च-उपज वाले बीज की किस्मों, सिंचाई, उर्वरकों और मशीनरी के उपयोग को बढ़ावा दिया जाने लगा । पर इन सबके बीच सब कृषि उत्पादकता को बढ़ाने में इतना ज्यादा व्यस्त हो गए कि किसी का ध्यान पोषण और पर्यावरण पर पड़ने वाले इसके असर पर गया ही नहीं, या फिर उसे नजरअंदाज कर दिया गया । तब से लेकर आज तक फसलों की विविधता कम होती जा रही है। किसानों और उत्पादक भी फायदे को देखते हुए पौष्टिक अनाजों की तुलना में चावल जैसी अधिक उपज वाली फसलों को उगाना ही बेहतर समझ रहे हैं । जिसका परिणाम है कि देश-दुनिया में पोषण का स्तर लगातार गिरता जा रहा है । विश्व स्वस्थ्य संगठन के आंकड़े दर्शाते हैं कि आज लोग तीन तरह से कुपोषण की मार झेल रहे हैं। पहला, वैश्विक स्तर पर दुनिया के हर 9 लोगों में से एक कुपोषित है। आठ में से 1 वयस्क मोटापे से ग्रस्त है और पांच में से एक व्यक्ति में किसी न किसी माइक्रोन्यूट्रीशन की कमी से प्रभावित है।

सुधर सकती है भारत में कृषि और पोषण की स्थिति 

भारत और अमेरिका के कई संस्थानों के शोधकर्ताओं ने मिलकर यह अध्ययन किया है। जैसे कि हम जानते हैं कि भारत में हरित क्रांति के चलते कृषि में काफी बदलाव आया है। इस अध्ययन में कई उद्देश्यों को ध्यान में रख कर वैकल्पिक फसलों के उत्पादन सम्बन्धी निर्णयों और उनके परिणामों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया गया है। उदाहरण के लिए भारत में मानसून के दौरान उगाये जाने वाले धान के उत्पादन का अध्ययन। विभिन्न पहलुओं के अध्ययन के बाद शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि फसल उत्पादन में विविधता लाने से भारत में सिंचाई के लिए जल की मांग, ऊर्जा के उपयोग और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी आ जाएगी। साथ ही देश में उपलब्ध खाद्य पदार्थ और अधिक पौष्टिक हो जायेंगे।

शोधकर्ता विशेष रूप से धान की कुछ फसलों के स्थान पर मोटे अनाज जैसे बाजरा और सोरघम की खेती करने की सलाह देते हैं। जो कि पोषण से भरपूर होते हैं। और यह तर्क देते हैं कि इस तरह के विविधता लाने से फसले, जलवायु परिवर्तन के खतरे को झेल सकेंगी । साथ ही इससे पोषण में भी गिरावट नहीं आएगी और खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक भूमि की जरुरत नहीं पड़ेगी।  कृषि को अधिक फायदेमंद बनाने के लिए यह जरुरी है कि हम कृषि को केवल खाद्य आपूर्ति का जरिया न समझे । हमें ऐसे समाधान खोजने होंगे जो ने केवल अधिक पोषण दे, बल्कि किसानों और पर्यावरण को भी उनसे अधिकतम लाभ पहुंचा सकें। इस अध्ययन से पता चलता है कि ऐसा वास्तविक में किया जा सकता है, बस हमें सही दिशा में कार्य करना होगा । कोलंबिया विश्वविद्यालय के डेटा साइंस इंस्टीट्यूट में पोस्टडॉक्टरल रिसर्च फेलो और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक काइल डेविस ने बताया कि "अगर भारत में किसान चावल की खेती कम कर दें और उसके स्थान पर पर्यावरण और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अधिक पौष्टिक अनाज जैसे रागी, बाजरा और सोरघम लगाना शुरू कर दें, तो देश में खाद्य आपूर्ति की स्थिति में सुधर आ सकता है।

कृषि को पर्यावरण के दृष्टिकोण से भी है बनाया जा सकता है लाभदायक 

शोधकर्ताओं के अनुसार अधिक मात्रा में मोटे अनाज लगाने से औसतन उपलब्ध प्रोटीन की मात्रा में 1 से 5 फीसदी की वृद्धि हो सकती है। साथ ही उपलब्ध आयरन की मात्रा में 5 से 49 फीसदी की वृद्धि आ जाएगी। साथ ही इससे जलवायु में आ रहे बदलावों से निपटने की क्षमता में भी वृद्धि हो जाएगी । गौरतलब है कि देश में सूखे के चलते 1 से 13 फीसदी कैलोरी नष्ट हो जाती है, जिसे रोका जा सकता है। इन बदलावों को अपनाने से कृषि से होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2 से 13 फीसदी तक कम किया जा सकता है। फसलों में विविधता लाने से सिंचाई के लिए पानी की मांग 3 से 21 फीसदी  तक घट जाएगी और बिजली का उपयोग 2 से 12 फीसदी तक कम हो जायेगा । जबकि इससे कृषि उत्पादन और कैलोरी की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आएगा ।

इस अध्ययन के सह लेखक नरसिम्हा राव ने बताया कि "इस अध्ययन में एक प्रमुख बात यह सामने आयी कि हालांकि औसतन मोटे अनाजों की  पैदावार कम होती है, पर भारत में ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जहां यह बात लागु नहीं होती । इसलिए धान के स्थान पर मोटे अनाजों की खेती की जा सकती है, और इसका उत्पादन पर असर नहीं पड़ेगा ।" शोधकर्ताओं ने बताया कि भारत सरकार भी पोषण से भरपूर इन अनाजों की खेती और उपभोग पर जोर दे रही है। उसका मानना है कि इससे देश में किसानों की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है और सांस्कृतिक रूप से भी महत्वपूर्ण इन अनाजों को बचाया जा सकता है।

एफएओ द्वारा जारी 'द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड, 2019' रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 19.5 करोड़ लोग कुपोषित हैं। जोकि भारतीय आबादी का 14.5 फीसदी हिस्सा हैं । साथ ही, 15 से 49 वर्ष की 51.4 फीसदी महिलाएं एनीमिक हैं। ऐसे में आने वाली पीढ़ी में पोषण की कमी का होना स्वाभाविक ही है। भारत में कृषि के लिए भूजल पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है और वो देश के कई जिलों में तेजी से नीचे भी जा रहा है। इसके साथ ही जलवायु में आ रहे परिवर्तन के चलते देश में बाढ़ और सूखा जैसी आपदाओं की तीव्रता और विनाशता बढ़ती ही जा रही है। जिससे कृषि और पोषण पर लगातार खतरा बढ़ता ही जा रहा है। पर पोषक तत्वों से भरपूर इन मोटे अनाजों की मदद से देश में कृषि, खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति में सुधार किया जा सकता है।

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