पशु चारे का संकट: राजस्थान में त्रिकाल जैसे हालात बने

राजस्थान के तकरीबन 10 जिलों में पशुओं के चारे का संकट बहुत ज्यादा है। इसके चलते चारे की कीमतें बढ़ती जा रही हैं

By Sandeep Meel

On: Friday 03 June 2022
 

राजस्थान में तीन तरह के अकाल माने जाते रहे हैं, पहला अकाल अनाज का, दूसरा चारे का और तीसरा पानी का। तीनों जब एक साथ होते हैं तो उसे ‘त्रिकाल’ कहा गया। यहां के लोग चारे के अकाल को भी बहुत भयावह मानते हैं, क्योंकि उनकी रोजी-रोटी का बहुत बड़ा हिस्सा पशुपालन पर निर्भर होता है।

इस बरस भी राजस्थान में ‘चारे के अकाल’ से पश्चिमी राजस्थान के करीब दस जिले प्रभावित हैं। इन जिलों में बीकानेर, बाड़मेर, जोधपुर, जैसलमेर, चुरू, नागौर, हनुमानगढ़, सीकर, झुंझुनू और जालोर शामिल हैं। यह इलाका राजस्थान के सर्वाधिक पशुधन वाला इलाका है, जहां गाय, भैंस, बकरी, ऊँट और भेड़ें पाली जाती रही हैं।

20वीं पशुगणना रिपोर्ट 2019 के अनुसार राज्य में कुल पशुधन 53.57 करोड़ है, जिसमें गायों की संख्या 13.9 करोड़, भैंसों की संख्या 13.7 करोड़, भेड़ों की संख्या 7.9 करोड़, बकरियों की संख्या 20.84 करोड़ और ऊंटों की संख्या 2.13 लाख है। चारे के संकट से जूझ रहे जिलों में  राजस्थान के सर्वाधिक पशुधन वाले दो जिले भी शामिल हैं, जिनमें बाड़मेर के 53.66 लाख और जोधपुर के 35.90 लाख पशु इस चुनौती का सामना कर रहे हैं।   

आसमान छूते चारे के भाव

सूखा भूसा जो पिछले तीन महीने पहले 500 रुपए क्विंटल था। पशुपालक ने सोचा कि गेहूं निकलते ही चारा सस्ता हो जाएगा। सीकर के राकेश बिरडा बताते हैं कि इस आस में उन्होंने अपने पशु बेचे नहीं, जबकि उस समय पशुओं की कीमत भी ठीकठाक मिल रही थी। लेकिन गेहूं कटते ही चारे के भाव 700 रुपए क्विंटल से शुरू हुए और आज चारा 1200 रुपए क्विंटल से लेकर 1500 रुपए क्विंटल तक हो गया है। ग्वार और मूंगफली का चारा 1000 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया तो चने का चारा 800 रुपए प्रति क्विंटल मिल भी नहीं रहा है।

चारे के मूल्य में यह बढ़ोतरी हर साल के मूल्य के हिसाब से चार गुना हो गई। गेहूं और चावल के चारे के बढे़ हुए मूल्य से गाय और भैसों के दूध का व्यापार करने वाले पशुपालकों की दूध उत्पादन की लागत को भी उसी अनुपात में चार गुना तक बढ़ा दी है।

इसी तरह से बकरी और भेड़ के लिए इस इलाके में काम में आना वाला चारा खेजड़ी के पत्ते जिन्हें ‘लूंग’ कहा जाता है, उसके भाव बढ़कर 1600 रुपए क्विंटल हो गए हैं। इस इलाके में बकरी और भेड़ को ‘एटीएम’ कहा जाता है। यानी, ऐसा पशुधन जिसे पशुपालक किसी भी जरूरत के समय बेच सकता है। बीकानेर के लाखुसर गांव के किसान जेठाराम का कहना है कि अब तो हमारे लिए बकरी पालना भी मुश्किल हो गया है। गाय को रोजाना लगभग 7 किलो चारे की जरूरत पड़ती है, जिसका पहले भाव 5 रुपए किलो था, लेकिन अब का भाव 15 रुपए किलो है और पशुपालक को रोजाना 70 रुपए का अतिरिक्त भार पड़ रहा है। इसी तरह भैंस लगभग 10 किलो चारा रोजाना खाती है, इसलिए पशुपालक को 100 रुपए रोजाना अतिरिक्त खर्च करना पड़ रहा है। बकरी रोजाना लगभग 1.5 लूंग खाती है, जिसके पहले भाव 6 रुपए किलो था, जो अब बढ़कर 16 रुपए किलो हो गया है। भेड़ को लूंग के साथ सूखा चारा भी खिलाया जाता है। भेड़ दो किलो चारा खाती है, जिसपर पहले 8 रुपए खर्च आता था, जो बढ़ कर 16 रुपए हो गया है। 

क्यों हुआ चारा महँगा

चारे के महंगे होने के कारणों को देखा जाए तो इस बार खरीफ की फसल के समय बरसात के अभाव से यह प्रक्रिया शुरू हो गई थी। ग्वार और बाजरे से होने वाले चारे का उत्पादन कम हुआ। साथ ही, फसल जब पककर तैयार हुई उस समय होने वाली अतिवृष्टि ने इस संकट को अधिक गहरा कर दिया। 

दूसरा कारण यह भी बताया जा रहा है कि यह श्रीगंगानगर, पंजाब और हरियाणा जैसे इलाकों से आने वाले चारे को ईंट-भट्टों में काम में लेने के कारण भावों में इतना उछाल आया है। भूसे को ईंट पकाने के काम में लिया जाने लगा है। सूखी लकड़ियों के अभाव के कारण ईंट भट्टों संचालकों ने भूसे का उपयोग बढ़ा दिया है। बीकानेर जिले के नौरंगदेसर गांव के किसान छोगाराम ने बताया कि हरियाणा में भूसे को दूसरे राज्यों में ले जाने पर प्रतिबंध लगा दिया है, इससे चारे का संकट खड़ा हो गया है। 

साथ ही, चुरू के किसान नेता छगन चौधरी का यह भी कहना है कि व्यापारियों ने सूखे चारे का स्टॉक करके भाव बढ़ने की स्थिति पैदा कर दी है क्योंकि चारे के स्टॉक पर कोई सरकारी नियंत्रण नहीं है। इसलिए यह स्थिति भविष्य में भी पशुपालकों को संकट में डालेगी।

इन कारणों के अलावा बदलती पारिस्थितिकी ने किसानों के फसल चक्र में भी बदलाव किया है। इस बार गेहूं और चने की बजाय सरसों और प्याज की फसल अधिक लगाई गई। इसके अलावा घटते चारागाहों के कारण चारे के अभाव के स्थिति लगातार बनती जा रही है। लाखुसर के किसान भंवरलाल मेघवाल ने बताया कि एक तरफ बढ़ते अतिक्रमण ने चरागाहों को कम किया वहीं दूसरी तरफ टूटे मकानों के मलबे और कंकरीट डालने से घास उगने की जगह कम होती जा रही है। गांवों से बाहर गोचर भूमि में फैल रहे प्लास्टिक ने स्थिति को अधिक चिंताजनक बनाया है। राष्ट्रीय ऊंट अनुसंधान केंद्र, बीकानेर ने भी अपनी एक रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया है कि ऊँटों की घटती संख्या का कारण चरागाहों के कमी होना है।

चारे के अभाव में रबारी समुदाय के लोगों ने भी अपना मेहनताना बढ़ा दिया है। ये वो समुदाय हैं, जो पशुओं को तो पालते ही हैं, बल्कि दूसरे पशुपालकों के पशुओं को चराने के लिए दूरदराज के इलाकों में ले जाते हैं। राजस्थान के रबारी समुदाय के लोग दूसरे पशुओं को पंजाब तब ले जाते हैं और इसके लिए 500 रुपए प्रति पशु लेते थे, लेकिन इस बार जब चारे का संकट खड़ा हुआ तो ये लोग 1,000 रुपए प्रति पशु देने पर भी ले जाने को तैयार नहीं है।  

चारा संकट ने पशुधन की पूरी अर्थव्यवस्था को ही घाटे की तरफ धकेल दिया। गर्मियों के समय अकसर दूध देने वाले पशुओं की कीमतों में दो से पांच हजार रुपए तक की वृद्धि होती थी, लेकिन चारे के भावों ने इसे पूरी तरह से उलट दिया। अब पशु सस्ते हो गए हैं। बीकानेर के किसान हीरालाल करड ने बताया कि दूध देने वाली गाय 30 से 35 हजार रुपए में खरीदी-बेची जा रही थी, वही अब 25 हजार रुपए में आसानी से मिल जाती है। इसी तरह से भैंस की कीमत को देखा जाए तो 70 हजार रुपए वाली भैंस 55 हजार रुपए तक मिल जा रही है।

चारे के संकट के समय हमेशा से प्रदेश में सरकारी चारा डिपो खोले जाते रहे हैं जिसमें पशुपालक को सस्ती दरों पर चारा उपलब्ध कराया जाता रहा है। किसान नेता गुरचरण सिंह मोड़ ने कहा कि चारा डिपो नहीं खोले गए और अन्य राज्यों से आने वाले चारे पर से प्रतिबंध नहीं हटाया गया तो चारे के लिए किसान सड़कों पर उतरेंगे।

इन चारा डिपोओं का संचालन सहकारी समितियों के माध्यम से किया जाता है जिन्हें राज्य सरकार चारे पर अनुदान देती है। अभी तक राज्य सरकार ने चारा डिपोओं के लिए आवेदन तो मांगे हैं लेकिन डिपो नहीं खोले। बीकानेर और जोधपुर जिले के किसान जिला प्रशासन से लागातार मांग कर रहे हैं कि ये डिपो जल्द से जल्द खोले जाएँ।

गोशालाओं में हमेशा सामुदायिक भागीदारी से चारा एकत्रित किया जाता था। श्री बालाजी गोशाला संस्थान, सालासर के बेगाराम का कहना है कि उनकी गायों के चारे पर खर्च होने वाला बजट तीन से चार गुना बढ़ गया है। इसी के साथ समय पर चारा भी नहीं मिल पाता है। एक सप्ताह में एक या दो ट्रोली का मुश्किल से इंतजाम हो पाता है।

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