किस्सा आलू का: पादरियों ने लगा दिया था प्रतिबंध

आज हमारे घर-घर में पाए जाने वाले आलू का किस्सा बेहद रोचक है। इसे अंधेरे की फसल कहा जाता था और लोग खाने से डरते थे। आइए, जानते हैं, क्या है आलू की रोचक यात्रा

By Bhagirath Srivas

On: Wednesday 09 October 2019
 

आज आलू दुनियाभर के देशों में मुख्य खाद्य के रूप में शामिल हो चुका है लेकिन एक वक्त ऐसा भी था जब यूरोपीय देशों में आलू को शक की नजरों से देखा जाता था। इन देशों में आलू पर प्रतिबंध था लेकिन धीरे-धीरे उसने लोगों के दिलों में जगह बना ली। आलू की यह यात्रा बेहद दिलचस्प है। बात 1769 की है। फ्रांस में गेहूं की फसल को भारी नुकसान पहुंचा था और ब्रेड दुकानों से गायब हो चुकी थी। पेरिस की गलियों में दंगे हो रहे थे और बेकरियों में लूटपाट हो रही थी। फ्रेंच राजतंत्र का हाल ही में रूस, ऑस्ट्रिया और प्रूसिया से 7 साल तक चला युद्ध खत्म हुआ था। फ्रांस भुखमरी के कगार पर था। ऐसे में फ्रांस ने अकाल की विभीषिका से बचाने वाले भोजन पर सर्वक्षेष्ठ अध्ययन के लिए पुरस्कार देने की घोषणा की।

इस पुरस्कार का विजेता एक युवा फार्मेसी अप्रेंटिस एंट्यानो ऑगस्टीन पारमेंटियर था जिन्होंने कुछ साल प्रूसिया की जेल में बिताए थे। सात साल तक चले युद्ध में घायल होने पर उन्हें 1761 में हानोवर जेल में रखा गया था। यहां उन्होंने अपनी सेल के बाहर आलू के पौधों को देखते हुए वक्त काटा था। यहां उन्हें रोज तीन आलू खाने को मिलते थे। आलू के सेवन ने उन्हें दो साल जेल में रहने के दौरान स्वस्थ रखा।

युद्ध समाप्त होने पर अपने दिमाग में आलू की यादों को संजोकर वह पेरिस लौट आए। आलू की खूबियों को बताकर उन्होंने पुरस्कार जीत लिया। इस समय तक आलू को यूरोप में आए 150 से ज्यादा साल हो गए थे लेकिन अब तक उसे तवज्जो नहीं मिली थी। पादरियों ने आलू को उगाने में यह कहकर प्रतिबंध लगा दिया था कि यह इंसानी उपभोग के लिए ठीक नहीं है क्योंकि बाइबिल में इसका जिक्र नहीं है। इंग्लैंड के वनस्पति वैज्ञानिकों ने आलू को धूल और अंधेरे का उत्पाद बताया था। 1616 में फ्रांस के बरगंडी प्रांत में आलू की खेती पर प्रतिबंध था। पेरिस ने इसका अनुसरण किया। 1633 में अंग्रेज वनस्पति विज्ञानी जॉन गेराल्ड ने लिखा “बरंगडी के लोगों आलू को निषिद्ध कर दिया है क्योंकि उन्हें भरोसा है कि इसके सेवन से कुष्ठरोग होता है।” आलू को स्वीकार्यता 1740 के दशक में प्रूसिया में मिलनी शुरू हुई।

प्रूसिया के शासक फ्रेडरिक महान ने ऑस्ट्रिया से आठ साल तक चले युद्ध के दौरान महसूस किया था कि आलू में युद्ध के दौरान लोगों को जीवित रखने की क्षमता है क्योंकि शत्रु अनाज की फसल तबाह कर देते हैं। 1744 में उन्होंने आलू के बीज वितरित करने और उगाने का आदेश दिया। 1744 में जब आलू बाल्टिक के तटवर्ती नगर कोलबर्ग में आया तो किसानों से उसे स्वीकार नहीं किया। माना जाता है कि तब फ्रेडरिक ने चेतावनी दी कि जो आलू को स्वीकार नहीं करेंगे उनके नाक और कान काट दिए जाएंगे। 1745 से सैनिक बड़ी मात्रा में आलू रखने लगे। फ्रांस में फ्रेडरिक जैसा शासक आलू के समर्थन में नहीं आया था। लेकिन परमेंटियर के पुरस्कार जीतने पर वह शाही घराने के नजदीक पहुंच गया। 1785 में 23 अगस्त को राजा का जन्मदिन था। इस मौके पर परमेंटियर ने आलू के फूलों का गुलदस्ता भेंट किया। इससे राजा और उनकी पत्नी इतने प्रभावित हुए कि आलू को व्यंजन सूची में शामिल करने का आदेश दे दिया।

इसके बाद शाही परिवार को आलू परोसा जाने लगा। उधर, परमेंटियर अक्सर भोज का आयोजन करते थे जिसमें मेहमानों को केवल आलू ही परोसा जाता था। ऐसे ही भोज में एक बार वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ बैंजामिन फ्रेंकलिन और थॉमस जेफरसन शामिल हुए थे। परमेंटियर ने 1786 में आलू की खेती की खेती शुरू की और खेत में चौकीदार रख दिया। इसने लोगों का ध्यान खींचा और माना जाने लगा कि आलू बेशकीमती हैं। फिर बहुत से लोगों ने आलू चोरी कर लिए और खुद उगाना शुरू कर दिया। 19वीं शताब्दी में थॉमस माल्थस और चार्ल्स डार्विन ने आलू की वकालत की। इसके बाद आलू ने ऐसी गति पकड़ी कि कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

Subscribe to our daily hindi newsletter