खाद्य उत्पादन का बढ़ता दबाव, बड़े पैमाने पर धरती पर डाल रहा है प्रभाव

एक नए अध्ययन से पता चला है कि जिस तरह से खाद्य उत्पादन धरती पर प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव डाल रहा है उसके चलते पृथ्वी की प्राकृतिक प्रक्रियाएं और तंत्र प्रभावित हो रहे हैं

By Lalit Maurya

On: Monday 29 August 2022
 

इसमें कोई शक नहीं कि इंसानी सभ्यता ने अपने विकास के लिए प्रकृति का बड़े पैमाने पर दोहन किया है। बढ़ती इंसानी लालसा बड़ी तेजी से प्रकृति को उजाड़ रही है। खाद्य उत्पादन भी उससे अलग नहीं है। बढ़ती आबादी के साथ बढ़ती चाह बड़े स्तर पर खाद्य उत्पादन के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रही है। नतीजन तेजी से संसाधनों का उपलब्धता का दायरा सीमित होता जा रहा है। 

द ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी द्वारा इस पर किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि जिस तरह से खाद्य उत्पादन धरती पर प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव डाल रहा है उसके चलते पृथ्वी की प्राकृतिक प्रक्रियाएं और तंत्र प्रभावित हो रहें हैं जोकि खुद मानवता के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं। 

यहां यह समझना जरुरी है कि पृथ्वी की यह प्राकृतिक प्रक्रियाएं और प्रणाली क्या हैं। वैज्ञानिकों के मानें तो यह प्रक्रियाएं उन प्राकृतिक गतिविधियों को संदर्भित करती हैं जो धरती को रहने योग्य बनाती हैं और इंसान जैसे न जाने कितने जीवों के लिए अनुकूल माहौल तैयार करती हैं। इसमें जीवमंडल में होने वाली विभिन्न प्रक्रियाएं जैसे जंगलों द्वारा सोखा जा रहा कार्बन और ताजे पानी के जरिए पोषक तत्वों का फैलाव आदि शामिल हैं।

देखा जाए तो इन प्रक्रियाओं के बीच बढ़ता इंसानी हस्ताक्षेप इनकी सुरक्षित सीमाओं को चुनौती दे रहा है। साथ ही यह इन प्रक्रियायों के बेहतर कामकाज को प्रभावित कर रहा है। इस बारे में ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी और शोध से जुड़े शोधकर्ता डॉक्टर स्टीवन लेड का कहना है कि खाद्य उत्पादन, पर्यावरण पर बढ़ते तनाव, जैवविविधता को होते नुकसान के साथ जलवायु में आते बदलावों और समुद्री संसाधनों के बड़े पैमाने पर हो रहे दोहन का प्रमुख कारण है।

वनों के 80 फीसदी विनाश के लिए जिम्मेवार है कृषि

वैज्ञानिकों की मानें तो खाद्य उत्पादन बड़े स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की वजह है। अनुमान है कि दुनिया भर में वनों के 80 फीसदी विनाश के लिए कृषि ही जिम्मेवार है, जबकि साफ पानी का करीब 70 फीसदी हिस्सा बढ़ती खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए खर्च हो रहा है। ऐसे में इनकी वजह से प्राकृतिक प्रक्रियाओं पर असर पड़ना लाजिमी ही है।

ऐसे में डॉक्टर स्टीवन का कहना है कि हमें खाद्य उत्पादन के स्थाई और शाश्वत तरीकों को अपनाने की जरुरत है। धरती की प्राकृतिक प्रक्रियाओं पर खाद्य उत्पादन संबंधी गतिविधियों का कितना असर पड़ रहा है इसका आकलन करके हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि जब हम खाद्य उत्पादन और कृषि से जुड़ी नीतियों को निर्माण करें और उन्हें उपयोग में लाएं तो उस समय उन प्रक्रियाओं पर पड़ने वाले तनाव को भी ध्यान में रखें।

जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित इस अध्ययन में धरती की विभिन्न प्राकृतिक प्रक्रियाओं की जांच की गई है और उन्हें स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। साथ ही इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि खाद्य उत्पादन की शाश्वत और बेहतर तकनीकों की दिशा में काम करते समय इनका उपयोग कैसे किया जा सकता है।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने खाद्य उत्पादन और जैव विविधता पर 'ग्रीन वाटर' के पड़ते प्रभाव और उससे जुड़ी कई महत्वपूर्ण अंतःक्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है जिन्हें अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है।

क्या आप जानते हैं कि 'ग्रीन वाटर' का क्या अर्थ है। वास्तव में 'ग्रीन वाटर' मिट्टी में मौजूद पानी की वो मात्रा है जो पौधों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। साथ ही यह जल प्रवाह, जमीन और जैव विविधता जैसी अन्य सभी प्रक्रियाओं के साथ अन्तः क्रिया करने के साथ उन्हें विनियमित करने में केंद्रीय भूमिका निभाती है।

इस बारे में डॉक्टर स्टीवन का कहना है कि हमें इनकी आपसी प्रतिक्रियाओं के बीच आती गड़बड़ी को दूर कर के लिए जरुरी कदम उठाने की जरुरत है। यह तभी हो सकता है, जब कृषि, समुद्र जैसे क्षेत्रों की नीतियों के लिए जिम्मेवार अधिकारी आपस में इस पर बातचीत करें और उसके महत्व को समझें।

सभी देशों को मिलकर उठाने होंगे बड़े कदम

उनके अनुसार जब बात खाद्य उत्पादन के शाश्वत प्रबंधन की आती है तो हमें मिलकर उसपर काम करने की जरुरत है, जिससे यह हमारी प्राकृतिक प्रणालियों की सीमाओं को प्रभावित न कर सके। ऐसे में हमें भूमि और जल को खाद्य उत्पादन का एक साधन ही नहीं समझना चाहिए। यह हमारे लिए उससे कहीं ज्यादा मायने रखते हैं।

ऐसे में यह जरुरी है कि पृथ्वी की प्राकृतिक प्रणाली में स्थिरता और लचीलापन बनाए रखने के लिए हम इन अंतःक्रियाओं और सीमाओं को स्वीकार करें। डॉक्टर स्टीवन के मुताबिक कुछ मामलों में बढ़ते इंसानी दबाव ने पृथ्वी की प्राकृतिक प्रणाली को मानवता के लिए सुरक्षित दायरे के बाहर धकेल दिया है। ऐसे में यदि हमने इसपर अभी ध्यान न दिया तो आने वाले वक्त में हमारे पास पश्चाताप करने के अलावा कुछ शेष नहीं बचेगा।

गौरतलब है कि भारत सहित 26 अन्य देशों ने कॉप-26 सम्मलेन के दौरान कृषि को पर्यावरण अनुकूल बनाने और उससे पैदा हो रहे प्रदूषण को सीमित करने के लिए नीतियों में बदलाव पर नई प्रतिबद्धता जताई थी। वहीं 45 देशों ने प्रकृति की रक्षा के लिए तत्काल कार्रवाई और निवेश का वादा किया था, जिसे एक अच्छी पहल कहा जा सकता है, लेकिन साथ ही हमें इस दिशा में सार्थक कदम भी उठाने होंगें।

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