सूखता पंजाब : धान की जल्दी रोपाई से बढ़ सकता है संकट

पंजाब में चुनिंदा किसानों को ही धान की खेती छोड़ने के एवज में सरकारी मदद मिल रही है। वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि इससे धान की प्रमुख पैदावार वाले इलाकों में बदलाव लाया जा सकता है। 

By Vivek Mishra

On: Wednesday 22 May 2019
 

पंजाब में धान की जल्दी रोपाई वाली तारीख का ऐलान सूबे में गिरते भू-जल संकट की रफ्तार को और अधिक बढ़ा सकता है। पंजाब सरकार के नए ऐलान के मुताबिक 13 जून से ही राज्य में धान की रोपाई शुरु हो सकती है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंदर सिंह ने एक चुनावी रैली के दौरान यह घोषणा की थी। हालांकि, इस संबंध में अभी तक सरकार की तरफ से कोई अधिसूचना जारी नहीं की गई  है। पंजाब के कृषि विभाग के मुताबिक जल्द ही अधिसूचना जारी होगी। यदि रोपाई13 जून से शुरु हो जाती है तो यह बीते वर्ष 2018 के मुकाबले पूरे एक हफ्ते पहले धान के रोपाई की तारीख होगी। यदि इस बार भी पंजाब में अच्छी बरसात नहीं हुई तो धान रोपाई की जल्दबाजी भूमिगत जलसंकट को बढ़ा देगी। 

बीते वर्ष (2018 में) धान रोपाई की तारीख 20 जून थी। वहीं इससे पहले 2014 में धान रोपाई की तारीख 15 जून तय की गई थी। जबकि 2008 में पहली बार धान रोपाई की तारीख 10 जून तय की गई थी। धान की जल्दी रोपाई के ऐलान पर एक मिली-जुली राय पैदा हुई है। खेती-किसानी के जानकार यह मानते हैं कि धान रोपाई के लिए तारीख को जल्दी रखे जाने से निश्चित तौर पर भू-जल का संकट बढ़ेगा। वहीं, कुछ विशेषज्ञ इस निर्णय को संतुलित बता रहे हैं। जबकि कुछ जानकार हाल ही में किए गए इस ऐलान को राजनीतिक फायदे के लिए किए गए ऐलान से जोड़कर भी देख रहे हैं। 

पारंपरिक तौर पर पंजाब में गेहूं की फसल के बाद पशुओं के लिए चारे का इंतजाम होता था फिर गन्ना बोया जाता था। लेकिन हरित क्रांति के बाद से गन्ने की जगह धान की बोआई शुरू हो गई। गेहूं और फिर धान यही प्रवृत्ति पंजाब-हरियाणा समेत गंगा के मैदानी भागों वाले राज्यों में बढ़ गई।

पहले किसान अपने मन-मुताबिक तारीख पर धान की बुआई कर सकता था लेकिन तेजी से गिरते भू-जल स्तर को देखते हुए 2009 में पंजाब भूमिगत जल संरक्षण कानून बनाया गया, जिसके तहत पहली बार धान बोआई की तारीख तय की गई थी। इस कानून का मकसद था कि जितनी देरी में धान की बोआई शुरु होगी भू-जल पर संकट उतना कम होगा। क्योंकि वर्षा के कारण भू-जल इस्तेमाल करने की गुंजाइश कम हो जाएगी। आमतौर पर पंजाब में मई-जून में धान की खेती शुरु होती थी और अक्तूबर-नवंबर में फसल की कटाई की जाती थी। वहीं, 2009 में लागू हुए कानून के बाद पंजाब में धान की बोआई मई से खिसकर जून में पहुंच गई।

पंजाब में कृषि निदेशक स्वतंतर कुमार ऐरी ने डाउन टू अर्थ को बताया कि 2009 में भू-जल संरक्षण को लेकर लागू कानून का सकारात्मक असर राज्य पर पड़ा है। जहां राज्य में भू-जल का स्तर औसत 76 सेंटीमीटर प्रति वर्ष गिर रहा था वहीं, 2009 में कानून लागू होने के बाद भू-जल स्तर में गिरावट का औसत अब 49 सेंटीमीटर है। उन्होंने बताया कि धान बुआई की तारीख पहले खिसकने से भूमिगत जल पर दबाव बढ़ने की बात से  इनकार नहीं किया जा सकता। धान की फसल को हतोत्साहित करने के लिए प्रयास भी किए जा रहे हैं।

जलसंकट को देखते हुए ही हरियाणा सरकार ने धान की खेती को हतोत्साहित करने की ठानी है। किसानों को प्रति एकड़ 2 हजार रुपये की राशि और वैकल्पिक बीज की खरीद पर छूट जैसी योजना का ऐलान किया गया है। जबकि पंजाब में राज्य स्तरीय ऐसी किसी योजना पर अभी कोई विचार नहीं है। उल्टे चुनावी माहौल के दौरान संकटग्रस्त भू-जल को नजरअंदाज कर धान रोपाई की जल्दी अनुमति का ऐलान कर दिया गया है।

राज्य की तरफ से कृषि और भूजल के बीच तालमेल बनाने को लेकर किये जा रहे प्रयासों के बारे में कृषि निदेशक स्वतंतर कुमार ऐरी ने बताया कि हम पंजाब में केंद्र की योजना नेशनल एडॉप्टेशन फंड फॉर क्लाइमेट चेंज के तहत चुनिंदा किसानों को धान की फसल के बजाए मक्का आदि लगाने के लिए मदद दे रहे हैं। मदद के लिए यह देखा जाता है कि कौन से बड़े किसान हैं और प्रगतिशील हैं। यह योजना केंद्र ने 2015-16 में शुरु की थी। बीते वर्ष 1,091 किसानों को मदद के लिए चुना गया था। स्कीम के तहत इन किसानों को 2 करोड़ 35 लाख रुपए की मदद दी गई। जबकि इस वर्ष 400 करोड़ रुपए का फंड खर्च किया जाएगा। इसके तहत लाभार्थी किसानों की संख्या भी बढ़ाई जाएगी। किसानों के लिए लाभ की योग्यता कृषि विभाग ही तय करता है। कृषि विभाग के मुताबिक प्रति एकड़ 9,400 रुपए की मदद दी जा रही है। 

चुनिंदा किसानों को ही धान की पैदावार छोड़कर मक्का तैयार करने के लिए क्यों मदद दी जा रही है?  इस बारे में जब पूछा गया तो स्वतंतर कुमार ऐरी ने कहा कि मालवा जैसे क्षेत्र में यह राशि कुछ भी नहीं है। ऐसे ही किसानों को धान की फसल के बजाए दूसरे फसल को अपनाने में मदद दी जा रही है जो पूरे क्षेत्र में बदलाव का संदेश पैदा कर सकें। उन्होंने बताया कि धान की रोपाई को कम करने के लिए यह योजना सिर्फ चुनिंदा इलाके में ही काम कर रही है। मालवा क्षेत्र में ही धान प्रमुखता से पैदा किया जाता है। इनमें संगरूर, मोंगा, लुधियाना का एक ब्लॉक, बरनाल आदि जिले शामिल हैं। वहीं, पंजाब में अब भी भूजल दोहन को बढ़ावा देने वाले अन्य कारकों को नियंत्रित करने के लिए सिर्फ रणनीति ही बनायी जा रही है। 

पंजाब के भूमि और जल संरक्षण विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक कृषि के लिए पानी की जरूरत और मांग भी तेजी से बढ़ रही है।  इस समय कृषि के लिए पानी की जरूरत 43.7 लाख हेक्टेयर मीटर है। इसमें 12.4 लाख हेक्टेयर मीटर भू-जल से ही मिलता है। अमृतसर में ऑर्गेनिक फार्मिंग करने वाले और खेती-किसानी से जुड़े राजबीर सिंह ने बताया कि धान बुआई की तारीख वर्षा के दिनों से जितनी पहले होगी उतना ही पंजाब पर भू-जल का संकट बढ़ेगा। पंजाब में भू-जल का स्तर प्रतिवर्ष डेढ़ से दो फीट गिर रहा है।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी व पंजाब की कृषि व्यवस्था और भू-जल को लेकर शोध करने वाली रीता पांडेय तारीख के परिवर्तन पर जुदा राय रखती हैं। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया कि 13 जून से पंजाब में धान की बुआई का निर्णय मुझे संतुलित लगता है। इस बार मई में भयानक गर्मी नहीं पड़ी है। मिट्टी में नमी बनी हुई है। वहीं, मानसून भी पहले ही पहुंच सकता है। ऐसे में तारीख में बदलाव किया जा सकता है। बदली हुई तारीख कई वर्षों के लिए नहीं है। अगले वर्ष स्थितियों के हिसाब से फिर तारीख बदली जा सकती है। सिर्फ धान की फसल पर रोक से भू-जल का स्तर घटने या बढ़ने का अनुमान पूरी तरह से ठीक नहीं है। भू-जल का रिश्ता वर्षा से भी है। पंजाब में यदि अनुमान के मुताबिक अच्छी वर्षा हुई तो भू-जल स्तर में सुधार संभव है।

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