तीन साल से पहाड़ी आलू हो रहा है 'झुलसा' का शिकार, लेकिन कौन करे फिक्र?

मैदानी इलाकों में आलू पर झुलसा रोग सामान्य बीमारी है, लेकिन पहाड़ों में यह कभी-कभार ही होती है, परंतु पौड़ी जिले में पिछले तीन साल से यह बीमारी लग रही है, जो चिंता करने वाली बात है

By Varsha Singh

On: Friday 04 March 2022
 
उत्तराखंड के पौड़ी जिले का आलू का खेत। फोटो: वर्षा सिंह

उत्तराखंड के पौड़ी के कल्जीखाल ब्लॉक के थनूल गांव के किसान एनएस नेगी ने आलू की तैयार फ़सल की खुदाई शुरू की तो माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं। लगातार तीसरे साल उन्हें आलू की पैदावार से ये निराशा मिली है। पौध की हालत देखकर उन्हें अंदाजा लग गया था कि इस बार भी उपज नहीं मिलने वाली।

ये लगातार तीसरे साल आलू की पैदावार में नुकसान हो रहा है। हमारी फ़सल को अज्ञात बीमारी लग रही है। इसकी पत्तियां झुलस जा रही हैं। आलू के दाने बहुत छोटे-छोटे निकल रहे हैं। 25 किलो आलू बोने पर एक क्विंटल तक उपज हो जाती है लेकिन हमें इतनी उपज भी नहीं मिल रही, जितना हम बीज डाल रहे हैं

किसान एनएस नेगी ग्राम प्रधान भी हैं। वह बताते हैं कि आसपास के कई गांवों में आलू की पैदावार में ये समस्या आ रही है। खेती में लगातार नुकसान देखकर हताशा हो रही है। हमारी 3-4 महीने की मेहनत खराब हो गई। हमारे गांव के परिवार पहले सामूहिक खेती करते थे। लेकिन अब सब धीरे-धीरे खेत बंजर छोड़ रहे हैं और पलाय़न कर रहे हैं

पौड़ी में ज्यादातर खेती असिंचित है। लेकिन थनूल, किसमोल्या समेत आसपास के कुछ गांव नदी किनारे पहाड़ की तलहटी में हैं, जहां सिंचाई की सुविधा है। यहां आलू की बुवाई नवंबर-दिसंबर में होती है और फरवरी-मार्च में फसल तैयार होती है।

नेगी बताते हैं हमने उद्यान विभाग को कई बार आलू की बीमारी के बारे में बताया। करीब डेढ़ साल पहले वे हमारे खेत की मिट्टी जांच के लिए ले गए थे। लेकिन जांच में क्या निकला ये नहीं बताया। हम अधिकारियों को कहते हैं कि आलू-प्याज की बुवाई के समय किसानों के साथ बैठक कर लें और हमें सही जानकारी दे दें तो वहां से कोई आता नहीं है

जगमोहन डांगी कल्जीखाल ब्लॉक के डांगी गांव में रहते हैं। वह बताते हैं कि कल्जीखाल समेत कोट, खिर्सू, पौड़ी विकासखंड के गांवों में भी आलू की फ़सल बीमारी के चलते प्रभावित हो रही है। थनुल समेत किसमोलिया, कुनकली, अलासू-पलासू, उजेडगांव भटकोटी, सरासू, सरोड़ा-मरोड़ा, बुंगा, सीला, बंघाट समेत कई गांवों में आलू की फ़सल चौपट होने की सूचना है।

क्या पहाड़ में होता है झुलसा रोग

किसानों को नहीं पता कि आलू को लगी इस बीमारी को क्या कहते हैं? जिला उद्यान विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों ने यहां का दौरा भी नहीं किया, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि जो लक्षण बताए जा रहे हैं, वे आलू के सामान्य रोग झुलसा के हैं। 

केंद्रीय आलू अनुसंधान केंद्र, मोदी पुरम के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ अनुज भटनागर लक्षण के आधार पर आशंका जताते हैं कि आलू में ये पछेती झुलसा रोग हो सकता है। इसमें पत्तियों पर सफेद रंग की फंफूद आती है और वो बढ़ती जाती है। रात में ठंड बढ़ने के साथ पत्तियां झुलसती जाती हैं। इसमें आलू के दाने कम और छोटे रह जाते हैं।

आलू में लगने वाले इस फंफूद की स्ट्रेन हिमाचल प्रदेश-उत्तर प्रदेश समेत अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग होती है। वह कहते हैं कि बीज बोने के बाद बीमारी जितनी जल्दी लगेगी फसल को उतना ही अधिक नुकसान होगा। वे किसानों को आलू के बीज को बदलने और आलू को काटे बिना बुवाई करने की सलाह देते हैं।

वह कहते हैं कि तापमान कम होने के साथ नमी बढ़ने पर इस रोग की आशंका होती है। हालांकि पौड़ी के जिला उद्यान अधिकारी डॉ पीके तिवारी कहते हैं कि पहाड़ में आलू की फ़सल में झुलसा रोग बहुत सामान्य नहीं है, लेकिन ये होता है। ये मौसम पर निर्भर करता है। मौसम में अचानक बदलाव, तापमान और नमी बढ़ने पर इसके बैक्टीरिया पनपते हैं। 24 से 48 घंटे में फ़सल खराब हो जाती है। 

वहीं, कृषि अनुसंधान केंद्र, भरसार, पौड़ी के प्रो सी. तिवारी भी कहते हैं कि पहाड़ में आलू में झुलसा रोग लगनना सामान्य बात नहीं है। यहां आमतौर पर ऐसा नहीं होता। लक्षणों के हिसाब से पछेती झुलसा रोग लग रहा है। जो कि फंगल बीमारी है और हवा के ज़रिये फैलती है। तापमान और नमी की इसमें बड़ी भूमिका है। पत्तियां झुलसने की वजह से ही आलू के आकार पर भी इसका असर पड़ता है। मेरे हिसाब से बीज बोने का समय बदलने पर भी ये मुश्किल हल हो सकती है। कीटनाशकों की भी जरूरत नहीं है। मुश्किल ये भी है कि पहाड़ के ज्यादातर क्षेत्रों में अब आलू की पारंपरिक किस्में नहीं उगाई जा रही हैं बल्कि हिमाचल प्रदेश की ‘कुफ्री ज्योति’ का प्रचलन बढ़ गया है।

यहां किसानों और कृषि विभाग-उद्यान विभाग के बीच तालमेल न होने पर कर्मचारियों की समस्या भी बतायी गई। दिसंबर तक पौड़ी के मुख्य कृषि अधिकारी रहे देवेंद्र राणा अब देहरादून में कृषि निदेशालय में तैनात हैं। वह बताते हैं कि दिसंबर तक कृषि विभाग के एक कर्मचारी के पास 3-4 न्याय पंचायत का ज़िम्मा होता है। एक न्याय पंचायत में 7-8 गांव होते हैं। ऐसी स्थिति में कर्मचारी दफ्तर के कागजी कार्य निपटाने में और किसान खेती की मुश्किलों के बीच फंसे रह जाते हैं।

पर्वतीय ज़िलों की तलहटी में होने वाले पहाड़ी आलू अपने स्वाद के लिए मशहूर हैं। देसी आलू की तुलना में पहाड़ी आलू की कीमत भी अधिक होती है। उद्यान विभाग के मुताबिक उत्तराखंड में  25889.76 हेक्टेअर क्षेत्र में तकरीबन 358244.23 मीट्रिक टन आलू उत्पादन होता है। पौड़ी में 1008.00 हेक्टेअर क्षेत्र में सालाना 13973.00 मीट्रिक टन तक आलू उत्पादन होता है।

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