तीन साल में तीन सूअर, जिमीकंद और अदरक के बीज से तिगुनी हुई इन किसानों की आमदनी

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने अंडमान निकोबार द्वीप समूह के जनजातियों के साथ पारंपरिक खेती के जरिए आमदनी तिगुनी करने का मॉडल बनाया है। इससे किसानों की आमदनी तिगुनी हो गई

By Manish Chandra Mishra

On: Thursday 02 January 2020
 
पारंपरिक खेती से अंडमान के किसानों की आमदनी बढ़ रही है। फोटो: मनीष चंद्र मिश्र

चारों तरफ से समुद्र के पानी से घिरा अंडमान निकोबार द्वीप समूह का खेती का इतिहास महज 100 वर्ष पुराना है। यहां की मिट्टी में काफी भिन्नता है, भारी मिट्टी से दुमट मिट्टी, रेतीले दुमट से दुमट मिट्टी में बदलती है, फसलों की खेती या वृक्षारोपण फसलों के साथ-साथ बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए कम उपजाऊ है। ऐसी स्थिति में खेती कर गुजारा करना यहां के किसानों के लिए हमेशा से चुनौती रही है। यहां रहने वाली जनजातियों में एक प्रमुख जनजाति निकोबारीज की आजीविका का मुख्य स्रोत खेती, नारियल और मछली पकड़ने पर आधारित है।

वैज्ञानिकों ने पाया कि यहां के जनजाती पहले समूह में खेती करते थे। पारंपरिक तकनीक यहां का वातावरण के लिए काफी कारगर है और इसे फिर से शुरू किया जाए तो काफी फायदा हो सकता है। शोध में यह भी पाया गया कि निकोबारीज जब इस द्वीप पर आए थे तो साथ में सूअर लेकर आए थे और कंद की खेती और सूअर पालन का आपस में परस्पर संबंध है। सूअर को कंद के खेत से चारा भी मिलता है। इस पायलट प्रोजेक्ट के लिए वैज्ञानिकों ने वर्ष 2016 में हुए वी दामोदरम और अन्य पांच वैज्ञानिकों के शोध का सहारा लिया जिसमें उन्होंने निकोबारी जनजाति के खेती पद्धति को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझा था।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (सीआईएआरआई) ने कंद फसलों पर अखिल भारतीय समंवित अनुसंधान परियोजना के तहत जनजातियों के साथ मिलकर इस तकनीक का परिक्षण किया। इसके लिए जनजातीय गांव हरमिंदर खाड़ी में कंद फसल आधारित खेती तकनीक से एक पायलेट प्रोजेक्ट शुरू किया गया। तीन वर्ष बाद प्रयोग सफल होने के बाद कंद फसल आधारित कृषि प्रणाली को अपनी आजीविका विकल्प के रूप में अपनाने के लिए और अधिक जनजातीय युवा आगे आए हैं। लिटिल अंडमान के जनजातीय क्षेत्रों में रोजगार सृजन को 70% तक बढ़ाने के साथ-साथ जनजातीय किसानों की आय को तिगुना करने में मदद मिली।

 

समूह में खेती का नायाब तरीका, बिना खाद के होती है खेती

इस तकनीक के तहत पहले 10 जनजातीय किसानों को चुना गया। उन्हें गांव में मौजूद 15 ट्यूहेट (समूह खेती करने की जगह) दी गई। इसका औसत क्षेत्रफल 0.44 हेक्टेयर प्रति ट्यूहेट है। खेत को बाड़ लगातर घेर दिया गया। चयनित किसानों को प्रशिक्षण के माध्यम से कंद फसल आधारित कृषि प्रणालियों के बारे में जागरूक किया गया और जिमीकद (सूरन), अदरक, घुइयां या अरबी के बीज दिए गए। इसके साथ ही हर किसान को 3 से 4 महीने की उम्र के 3 सूअर के बच्चे दिए गए। फसलों को मई माह में लगाया गया था और रोपण के 8 महीने बाद दिसंबर में उसे काटा गया। वैज्ञानिकों ने फसल की बुआई का समय बारिश से कुछ पहले रखा जिससे फसल बढ़ने की रफ्तार तेज हुई। सूअरों के लिए फसल की छंटाई से निकला कचरा चारे से रूप में काम आया और फसल तैयार होने के बाद कटे हुए कंद भी सूअरों के काम आया। इस तरह उनका वजन भी लगातार बढ़ा।

ऐसे बढ़ी आमदनी

फसलें प्राकृतिक खेती के तरीकों के तहत बिना किसी अतिरिक्त खाद और उर्वरक के उगाई गईं। सूअरों के शरीर के वजन में वृद्धि की गणना 12 महीनों के लिए की गई थी। पहले साल पायलट प्रोजेक्ट के तहत सफलता के बाद आने वाले वर्षों में 15 किसानों के साथ 2015-16, 2016-17, 2017-18 और 2018-19 के दौरान जारी रखा गया। इस दौरान पहले साल की अपेक्षा में दूसरे साल प्रति ट्यूहेट आय 42,200 रुपए से बढ़कर 1.33 लाख रुपए हो गई। तीसरे वर्ष यह आय बढ़कर 2.08 लाख हो गई। आय में वृद्धि कंद फसलों और सूअर पालन साथ में करने की वजह से हुई।

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