रीढ़विहीन कृषि शिक्षा -3: रिसर्च संस्थानों में खाली पड़ी हैं सीटें

डाउन टू अर्थ ने देश की कृषि शिक्षा की अब तक की सबसे बड़ी पड़ताल की है। इसे चार भाग में पढ़ सकते हैं। प्रस्तुत है, तीसरा भाग...

By Anil Ashwani Sharma, Vivek Mishra, Raju Sajwan

On: Tuesday 27 August 2019
 
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अब तक आपने पढ़ा -

 रीढ़विहीन कृषि शिक्षा -1: किसानी के लिए नहीं है पढ़ाई

रीढ़विहीन कृषि शिक्षा -2: इंजीनियरिंग शिक्षा जैसे न हो जाएं हालात!

 

शोध और शिक्षा के लिए फंड की कमी झेलने वाले भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के ढांचे में ही बदलाव की कोशिशें तेज हैं। आईसीएआर के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक संभव है कि संपूर्ण आईसीएआर के ढांचे में बदलाव हो और कृषि एवं बागवानी विभाग अलग व पशुधन एवं मत्स्य विभाग को अलग कर दिया जाए। ढांचे में यह बदलाव शोध और अनुसंधान को कितनी रफ्तार देगा यह उत्तर भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सच्चाई यह है कि कृषि को रीढ़ माने जाने वाले देश में कृषि शिक्षा हाशिए पर है।

इस वक्त देश के कृषि विश्वविद्यालयों में पढ़ाई और रोजगार का क्या हाल है? देश के शीर्ष कृषि विश्वविद्यालयों की पहले बात होनी चाहिए। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईआरएआई) यह देश का माना जाना संस्थान है। 2016 से इस संस्थान के पास अपना निदेशक नहीं है। संस्थान की सबसे महत्वपूर्ण विभाग भू-विज्ञान में शोध और अनुसंधान का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण खराब है। मिट्टी में भारी धातु और माइक्रोब्स का पता लगाने वाला उपकरण आईसीपी-एमएस बीते दो वर्षों से काम नहीं कर रहा है। यह दावा है कि देश के शीर्ष वैज्ञानिक यहीं पर तैयार होते हैं। इस संस्थान में नाम न बताने की शर्त पर परास्नातक की पढ़ाई करने वाले एक छात्र का कहना है कि वह सिविल सेवा की तैयारी कर रहे हैं। यहां की पढ़ाई से वैज्ञानिक बनने से कोई लाभ नहीं है। संस्थान हमेशा बजट की कमी से ही परेशान रहता है। इसमें अनुसंधान कैसे होंगे?

देश की शीर्ष रैंकिंग में शामिल पंजाब कृषि विश्वविद्यालय से भी इस बारे में बात की गई। वहां के प्लेसटमेंट सेल के अधिकारी ने बताया कि यहां बायोटेक्नोलाजी में युवाओं की दिचलस्पी कम हो रही है। वहीं, कृषि और बागवानी विभाग युवाओं का सबसे पसंदीदा विषय है। प्लेसमेंट अधिकारी ने बताया कि पंजाब की सबसे बड़ी समस्या यहां की कृषि मेधाओं का पलायन (एग्रो ब्रेन ड्रेन) है। युवा विश्वविद्यालय से निकलकर उच्च शिक्षा के लिए 10 से 15 लाख रुपए खर्च कर विदेश चले जाते हैं लेकिन वहां से पढ़ाई भी कामयाबी की गारंटी नहीं है। इससे हमारा काफी नुकसान हो रहा है। अभी तक हमने ऐसे छात्रों का पीछा नहीं किया है जो पढ़ाई के बाद उद्यमी बन गए। इस वर्ष से इसका भी रिकॉर्ड रखा जाएगा। यूनिवर्सिटी के प्लेसमेंट सेल ने बताया कि 2018 में विभिन्न पाठ्यक्रमों से 900 बच्चे पास हुए थे। पढ़ाई के बाद खेती में जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या भी बहुत कम ही है।

इस वक्त युवाओं को गुणवत्तापूर्ण कृषि शिक्षा के लिए मौके नहीं दिए जा रहे हैं। न ही नए तैयार किए गए मुट्ठी भर वैज्ञानिकों को किसानों के साथ तालमेल बनाने का कोई अवसर दिया जा रहा है। उच्च कृषि शिक्षा हासिल करने के लिए हर वर्ष होने अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा (एईईए) आयोजित होती है। इसमें स्नातक (यूजी), परास्नातक (पीजी) और पीएचडी में हजारों विद्यार्थियों के आवेदन के बावजूद हर वर्ष 20 फीसदी सीटें खाली छोड़ दी जाती हैं। वहीं, छात्रों से प्रवेश परीक्षा के नाम पर वसूली जाने वाली फीस भी लौटाई नहीं जाती है। एक तरफ सरकारी सीटों के लिए मारामारी है तो दूसरी तरफ बेलगाम निजी विश्वविद्यालयों की कृषि शिक्षा सिर्फ बेहतर ग्रेड हासिल करने का साधन बनती जा रही है। कृषि स्नातकों में अंकों के ग्रेड का बड़ा महत्व होता है। सरकारी विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे छात्र मेहनत करते हैं लेकिन ग्रेड नहीं अर्जित कर पाते। इससे उनके प्लेसमेंट में चयन और नौकरी में भी मुश्किलें आती हैं। जहां भी ग्रेड आधारित चयन होता है, वहां निजी कॉलेजों से पढ़े हुए छात्र बाजी मार ले जाते हैं।

आईसीएआर की ओर से आयोजित होने वाली वार्षिक प्रवेश परीक्षा एआईईईए-2018 में महज 1,954 सीटें स्नातक की थीं, जिनमें से देश भर की सिर्फ 1,508 सीटों को भरा गया और 445 सीटें खाली रह गईं। वहीं, परास्नातक में कुल 2,354 सीटें थीं, जिसमें से सिर्फ 1,508 सीटों को भरा गया और 352 सीटें खाली छोड़ दी गईं। इसी तरह पीएचडी में 586 सीटें थीं, जिनमें से 391 सीटों को भरा गया जबकि 195 सीटों को खाली छोड़ दिया गया। इसका मतलब हुआ कि स्नातक (यूजी), परास्नातक (पीजी) और पीएचडी की कुल 4,893 सीटों में 993 सीटों से ज्यादा खाली रह गई। आईसीएआर की ओर से आयोजित होने वाली अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा (एआइईईए) के जरिए आईसीएआर का देशभर के कृषि विश्वविद्यालयों में स्नातक में 15 फीसदी, परास्नातक और शोध में 25 फीसदी सीटें रिजर्व हैं जिससे छात्रों को दाखिला दिया जाता है (देखें, दाखिले का चलन,)।

एआइईईए के जरिए आईसीएआर का देशभर के कृषि विश्वव विद्यालयों में स्नातक में 15 फीसदी, परास्ना तक और शोध में 25 फीसदी सीटें तय हैं जि ससे छात्रों को दाख िला दि या जाता है। 2018 में यूजी, पीजी और पीएचडी की कुल 994 सीटें खा ली रह गईं।

मध्य प्रदेश में नीमच के निवासी और सूचना अधिकार कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि बीते वर्ष सूचना के अधिकार से यह जाना गया कि आखिर आईसीएआर की ओर से आयोजित होने वाली सालाना प्रवेश परीक्षा में कितने छात्र आवेदन करते हैं और उनसे प्रवेश परीक्षा के बाद कॉलेज आवंटन के लिए कितनी फीस वसूली जाती है। इसके बाद जो जवाब मिला, वह बेहद चौंकाने वाला था। मसलन 2018 की अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा में कृषि स्नातक की 1954 सीटों के लिए कुल 25,246 आवेदन किए गए। यानी प्रवेश परीक्षा में 25,246 आवेदनकर्ताओं (100 फीसदी) के लिए दहाई अंक से भी कम करीब आठ फीसदी (1954) सीटें उपलब्ध थीं। इसी तरह परास्नातक में 2,354 सीटों के लिए 9,447 आवेदन किए गए। जबकि पीएचडी की 586 सीटों के लिए 1,985 आवेदन किए गए थे। प्रवेश परीक्षा के लिए प्रत्येक आवेदनकर्ता से 2,000 रुपए लिए जाते हैं। चंद्रशेखर गौर बताते हैं कि जो सीटें खाली रह गईं, उन रिजर्व सीटों को राज्य सरकार के विश्वविद्यालयों में भरा गया या नहीं, यह राज्य सरकारों के जरिए स्पष्ट नहीं किया गया।

देश भर में निजी और सरकारी कृषि शिक्षा को लेकर विद्यार्थी आमने-सामने हैं। मध्य प्रदेश की तरह पंजाब में एक और बड़ी समस्या पैदा हो गई है। यहां निजी कृषि विश्वविद्यालय में बिना गुणवत्ता और आईएएआर मानकों के चल रहे 107 कृषि कॉलेजों की मान्यता पर तलवार लटक रही है। पंजाब स्टेट काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल एजुकेशन ने हाल ही में एक नोटिस जारी कर युवाओं को चेतावनी दी है कि वे जालंधर में इंद्र कुमार गुजराल टेक्निकल यूनिवर्सिटी के बीएससी कृषि स्नातक कोर्स में दाखिला न लें। वहीं, निजी कॉलेजों के संगठन इस चेतावनी का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि प्राइवेट कॉलेजों में करीब 15 हजार से अधिक छात्र हैं, उनका भविष्य खराब हो जाएगा। साथ ही आवेदन करने वाले तीन से चार हजार छात्र भी संदेह में हैं। इसी तरह मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी सरकारी कॉलेजों के कृषि छात्र निजी कृषि शिक्षा का विरोध कर रहे हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में निजी कृषि कॉलेजों में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हो रही है।

अखिल भारतीय कृषि छात्र संघ ने डाउन टू अर्थ से बताया कि देश में कई कृषि कॉलेज बिना आईसीएआर के नियमों के संचालित हो रहे हैं। इनका मकसद मोटी फीस वसूलकर सिर्फ छात्रों को डिग्री देना है। मेडिकल हो या फार्मा, सभी जगह शिक्षा को नियंत्रित करने के लिए काउंसिल है। जबकि कृषि शिक्षा को नियंत्रित और गुणवत्तापूर्ण बनाने के लिए कोई काउंसिल नहीं है।

आज गुजरात में कोई निजी कॉलेज नहीं है। जबकि पंजाब की राज्य परिषद ने अब निजी कॉलेजों पर कार्रवाई शुरू की है। समूचे देश में एक-दो राज्यों को छोड़कर कहीं भी निजी कृषि शिक्षा को नियंत्रित करने के लिए राज्य स्तरीय परिषद नहीं है। इसका नतीजा है कि सामान्य विश्वविद्यालयों से कृषि शिक्षा देने के नाम पर मान्यता ली जी रही है। यह नियमों के विरुद्ध है। यहां तक कि आईसीएआर भी एक पंजीकृत सोसाइटी है। वह कैसे कृषि शिक्षा को संचालित कर रही है? संघ के पदाधिकारियों ने कहा कि इसके अलावा देश में कृषि शिक्षा को चलाने के लिए अफसरों को नियुक्त किया जा रहा है जबकि पहले कृषि वैज्ञानिक इसकी कमान संभालते थे। कृषि शिक्षा विभाग के अध्यक्ष की जगह पहले कृषि वैज्ञानिकों को तरजीह दी जाती थी। अब यहां फेरबदल कर भारतीय प्रशासनिक सेवा के लोगों को बिठाया जा रहा है।

1958 में नालागर कमेटी की रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट में कृषि के तकनीकी संस्थानों के औसत प्रदर्शन को ठीक करने के लिए कृषि प्रशासनिक सेवा की बात कही गई थी। कमेटी की रिपोर्ट में राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों को कृषि विकास कार्यक्रमों से जोड़ने की भी बात कही गई थी। हालांकि, ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है।

जारी...

(साथ में उत्तराखंड से वर्षा सिंह, बिहार से उमेश कुमार राय, मध्य प्रदेश से मनीष चंद्र मिश्रा, छत्तीसगढ़ से अवधेश मलिक, उत्तर प्रदेश से महेंद्र सिंह)

 

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