इंजीनियरिंग शिक्षा जैसे न हो जाएं कृषि शिक्षा के हालात!

डाउन टू अर्थ ने देश की कृषि शिक्षा की अब तक की सबसे बड़ी पड़ताल की है। इसे चार भाग में पढ़ सकते हैं

By Anil Ashwani Sharma, Vivek Mishra, Raju Sajwan

On: Monday 26 August 2019
 

अब तक आपने पढ़ा: रीढ़विहीन कृषि शिक्षा -1: किसानी के लिए नहीं है पढ़ाई

एक तरफ देश के सरकारी रिकॉर्ड में महज 25 हजार कृषि स्नातक हर वर्ष दाखिला लेते हैं, वहीं दूसरी तरफ निजी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की बाढ़ ने मोटी फीस वसूलकर डिग्री बांटने का धंधा शुरू कर दिया है। इसकी बानगी 2017-18 में उच्च शिक्षा की सर्वे रिपोर्ट में दिखाई देती है (देखें, सूबों में कृषि शिक्षा का हाल,)। रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिवर्ष 1.16 लाख कृषि स्नातक दाखिला ले रहे हैं। सरकारी बनाम निजी शैक्षणिक संस्थानों का युद्ध शुरू हो गया है। मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान में सरकारी छात्र सड़कों पर हैं, वहीं निजी कॉलेजों की दलील है कि यदि वे बंद हुए तो हजारों छात्रों का भविष्य अधर में लटक जाएगा।

निजी कॉलेजों से िनकल रहे कृषि स्नातकों में न सिर्फ ज्ञान की बल्कि व्यवहारिक शिक्षा का घोर अभाव है। इसे देखते ही गुजरात और पंजाब में सख्त कदम उठाए जा रहे हैं। गुजरात उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के आदेश को संज्ञान में लेते हुए गुजरात में एक भी प्राइवेट कॉलेज को अब तक अनुमति नहीं दी गई है।

स्रोतः आईसीएआर और विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों से बातचीत पर आधारित

गुजरात में आनंद कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति एनसी पटेल ने बताया कि गुजरात उच्च न्यायालय का आदेश था कि आईसीएआर की ओर से जिन शर्तों और नियमों का पालन करना है, जब तक कोई संस्थान उस पर खरा नहीं उतरता, तब तक उन्हें अनुमति नहीं दी जाएगी। वहीं पंजाब में भी कृषि विज्ञान की स्नातक स्तरीय शिक्षा देने वाले निजी संस्थानों पर कार्रवाई की जा रही है। अब तक पांच निजी कृषि शिक्षा देने वाले कॉलेजों की मान्यता रद्द कर दी गई है। वहीं उन छात्रों का भी भविष्य चौपट हो गया है जो बीएससी (कृषि) की डिग्री ले चुके थे। अब गुजरात उच्च न्यायालय का आदेश आया है कि इन छात्रों को एमएससी में दाखिला नहीं दिया जा सकता।

मध्य प्रदेश में सरकारी कॉलेज के अलावा प्राइवेट कॉलेज की एक लंबी कतार है जो कम संसाधनों और बिना किसी निगरानी के ही डिग्री देने में सक्षम हैं। इन दिनों मध्य प्रदेश के सरकारी कॉलेज के छात्र इसी बात का विरोध कर प्रदेश में प्राइवेट कॉलेज को निगरानी के दायरे में लाने की मांग कर रहे हैं। आंदोलन में शामिल छात्र शुभम पटेल बताते हैं कि वे प्राइवेट कॉलेज को भी राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान परिषद के नियमों के अंतर्गत लाने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि हर साल तकरीबन 10 हजार स्टूडेंट्स कृषि संबंधित डिग्री लेकर निकल रहे हैं लेकिन प्राइवेट कॉलेज में संसाधनों की कमी और जरूरी लैब और खेती के लिए जमीन न होने की वजह है उनकी डिग्री बस नाम की होती है। ऐसे में कृषि के क्षेत्र में गंभीरता से पढ़ाई करने वाले लोगों का नुकसान होता है। इसी कॉलेज से मास्टर डिग्री कर रहे गोपी अंजना के मुताबिक सरकार कृषि संबंधित पांच हजार से अधिक खाली पदों को नहीं भर रही है जिससे इस क्षेत्र में नौकरी की संभावना भी लगतार कम ही हो रही है। हालांकि गोपी मानते हैं कि सरकारी कॉलेज में पढ़ने के बाद उनके कई सीनियर खेती कर रहे हैं और किसानों की सीधे तौर पर मदद भी कर रहे हैं। लेकिन प्राइवेट कॉलेज की गुणवत्ता पर शुभम पटेल की तरह वह भी सवाल उठाते हैं। गोपी कहते हैं कि अब प्राइवेट कॉलेज में कंपनियां कैंपस प्लेसमेंट के लिए जाती हैं और 10 हजार से 20 हजार वेतन पर ग्रेजुएट स्टूडेंट्स वहां मार्केटिंग से जुड़ा काम करने को भी तैयार हो जाते हैं। गोपी को आशंका है कि इस क्षेत्र की हालत इंजीनियरिंग जैसी न हो जाए, जहां भीड़ तो बढ़ती गई लेकिन गुणवत्ता कम होने की वजह से लोग नौकरी और काम के लिए भटक रहे हैं।

उदाहरण के लिए होशंगाबाद जिले के युवा किसान प्रतीक शर्मा को ही लीजिए जो पूर्व में एक राष्ट्रीय बैंक में सीनियर मैनेजर के तौर पर काम कर रहे थे। नौकरी छोड़कर खेती शुरू करने वाले प्रतीक बताते हैं कि उनका अनुभव भी कृषि शिक्षा को लेकर कुछ खराब ही रहा है। वह कहते हैं कि पिछले दिनों उन्हें अपनी खेती के काम में मदद करने के लिए कृषि संबंधी जानकारों की जरूरत थी और इसके लिए उन्होंने एक प्राइवेट कृषि कॉलेज में संपर्क किया। वहां के छात्रों से मिलने के बाद उन्हें आश्चर्य हुआ कि छात्रों को खेती में कोई खास दिलचस्पी नहीं है। वे पढ़ाई के बाद किसी खाद बनाने वाली कंपनी में नौकरी करना चाहते हैं। खेती को लेकर उनकी कोई खास समझ भी नहीं और खेत में जाकर काम करने का भी कोई अनुभव नहीं लेना चाहते।

क्या खेती से घर चलाना संभव है?

35 वर्षीय मुकेश मीणा भोपाल से सटे जिले सीहोर में रहते हैं। उनके परिवार में पत्नी-बच्चे और माता-पिता को मिलाकर 6 सदस्य हैं। दो एकड़ की जमीन पर हर साल वह खेती करते हैं। मुकेश ने कृषि विज्ञान से 12वीं की पढ़ाई की है और उनका मानना है कि खेती की पढ़ाई करने के बाद इस काम को करना काफी अच्छा रहता है। उन्हें पढ़ाई का काफी लाभ हुआ। हालांकि मुकेश ने कहा कि कई साल तक खेती करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि खेती से घर नहीं चलाया जा सकता। रात के समय मुकेश हर रोज भोपाल आकर टैक्सी चलाते हैं। इससे खेती में हुए नुकसान की भरपाई होती है। मुकेश ने आमदनी का हिसाब लगाते हुए कहा कि एक एकड़ में तीन चार महीनों की कड़ी मेहनत के बाद 10 से 12 हजार की आमदमी होती है, वह भी फसल अच्छी होने के बाद। इस तरह प्रत्येक माह खर्च चलाने के लिए अधिकतर पैसा बाहर से कमाकर ही लाना होता है। अपने बच्चों को खेती के क्षेत्र में लाने के सवाल पर मुकेश ने साफ मना करते हुए कहा कि वह अपनी भूल दोहराना नहीं चाहेंगे और उनके बच्चे भूलकर भी खेती को व्यवसाय के रूप में नहीं अपनाएंगे।

भोपाल के 26 साल के युवा किसान पर्व कपूर ने मणिपाल यूनिवर्सिटी से बायोटेक्नोलॉजी से ग्रेजुएशन करने के बाद खेती करना शुरू किया। वह भोपाल के शाहपुरा के ग्रामीण इलाके में 40 एकड़ की जमीन पर खेती करते हैं। वह बताते हैं कि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि आर्थिक रूप से मजबूत है और सिर्फ इसी वजह से वह हर साल होने वाले घाटे को सह पा रहे हैं। उनका कहना है कि कृषि का काम खतरों से भरा है और एक नुकसान किसान को कर्ज के बोझ से दबाने के लिए काफी है। उन्होंने बताया कि 2017 में 15 एकड़ भूमि पर 2.5 लाख रुपए की लागत से उड़द लगाई थी, लेकिन फसल खराब हो गई। नुकसान काफी अधिक हुआ।

छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में खेती का काम चौपट होने के बाद मछली पकड़कर गुजारा करने वाली आदिवासी महिला (फोटो: पुरुषोत्तम ठाकुर)

 

जारी... 

(साथ में उत्तराखंड से वर्षा सिंह, बिहार से उमेश कुमार राय, मध्य प्रदेश से मनीष चंद्र मिश्रा, छत्तीसगढ़ से अवधेश मलिक, उत्तर प्रदेश से महेंद्र सिंह) 

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