सरसों तेल में 20 फीसदी मिश्रण बंद : 30 वर्षों में लोगों को न मिली अच्छी सेहत और न हुआ किसानों को फायदा

दिल्ली में सरसो तेल खाने से 1998 में महामारी फैली थी। सरकार ने बचाव की रणनीति बनाई और प्रचार किया कि सरसो तेल का उपभोग न करें, उसमें बीमारी फैलाने वाली मिलावट है। 

By Vivek Mishra

On: Wednesday 09 June 2021
 

सरसो तेल में 20 फीसदी तक ब्लेडिंग (मिश्रण) होने वाले अन्य तेल (पॉम ऑयल, राइस ब्रान, आदि) पर 8 जून, 2021 से सरकार ने रोक लगा दिया है। फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) ने इसके लिए मार्च, 2021 में अधिसूचना जारी की थी। लेकिन सवाल उठता है कि सरसों तेल में 80 फीसदी सरसो और 20 फीसदी अन्य तेल के ब्लेडिंग की वजह क्या थी और क्या वाकई इसकी जरूरत थी। डाउन टू अर्थ ने इसकी पड़ताल की है।  

वर्ष 1998 की बात है, दिल्ली समेत उत्तर भारत के राज्यों में ड्रॉप्सी नाम की महामारी फैली थी। इसमें 60 लोगों ने जान गंवाई थी और करीब 3000 लोग अस्पताल में भर्ती हुए थे। इस महामारी में पूरे शरीर में सूजन आ जाती थी। इस बीमारी के स्रोत का पता लगाया गया तो सामने आया कि इसका मुख्य कारण सरसो तेल का उपभोग है। जांच हुई तो पता चला कि सरसो के तेल में सत्यानाशी (एरगीमोन मैक्सिआना) के तेल की मिलावट थी। यह मिलावट कैसे हुई, किसी को नहीं पता। 

एरगीमोन मैक्सिआना यानी सत्यानाशी का पौधा, जिसमें पीले फूल होते हैं। गांवों में इसे भरकटईया भी कहते हैं। यह जंगली प्रजाति है। खुद से ही अप्रैल-मई महीने में कहीं-कहीं पैदा हो जाती है, इसकी खेती नहीं होती है जबकि सरसो मुख्य रूप से रबी सीजन की फसल है जो कम तापमान यानी सर्दियो में बोई जाती है और फरवरी से मार्च तक इसकी कटाई हो जाती है। वैज्ञानिकों ने अंदाजा लगाया कि इसका मतलब है कि सरसों के बीज में इस एरगीमोन मैक्सिआना के मिलने का खतरा न के बराबर था। 

करीब 23 बरस पहले सरसों में एरगीमोन मैक्सीआना की संदिग्ध तरीके से मिलावट ने देश के एक बड़े तबके में यह डर पैदा कर दिया कि सरसों का तेल खाना नुकसानदेह है। वहीं, ड्रॉप्सी को महामारी घोषित करने वाली सरकार ने बीमारी से बचने के लिए यह रास्ता अपनाया कि वह लोगों के बीच जाकर यह प्रचार करने लगी कि सरसों का तेल न खाएं।

कुछ शोध भी सरसो तेल को घातक बताते रहते हैं। यूएस फूड एंड ड्रग की वेबसाइट पर मौजूद शोध बताता है कि सरसो तेल में ईरियूसिक एसिड मौजूद होता है जिसकी ज्यादा मात्रा में सेवन करने से दिल की बीमारी हो सकती है। 

राजस्थान में स्थित रेपसीड सरसों अनुसंधान के आईसीएआर-निदेशालय के निदेशक प्रमोद कुमार राय सरसों से जुड़ी इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखते।

वह डाउन टू अर्थ से बताते हैं " मुझे याद है कि ड्रॉप्सी के वक्त बहुत सारे चिकित्सकों और वैज्ञानिकों ने सरसों के तेल को न खाने की सलाह दी थी, जबकि सरसो के तेल का तब भी प्रमुखता से इस्तेमाल होता था और अब भी। विदेशों में इससे दिल की बीमारी, मधुमेह आदि के लिए खतरा बताया गया लेकिन अब इसकी प्रमुख वजह रिफाइंड को बताई जा रही है। इन सब बातों ने सरसों उत्पादन करने वाले किसानों को काफी पीछे ढ़केला है।" 

सरकार की आधिकारिक जानकारी के मुताबिक देश में एरगीमोन मैक्सीआना मिश्रित सरसों तेल के कारण होने वाली बीमारी ड्रॉप्सी का पहला मामला वर्ष 1877 पश्चिम बंगाल के कोलकाता में आया था। यह भी देखा गया कि पूर्वी भारत और उत्तरी भारत में ही ड्रॉप्सी के मामले आए जहां सरसों तेल का उपभोग ज्यादा है। दक्षिणी राज्यों में जहां नारियल और मूंगफली के तेल का उपभोग होता है वहां यह मामला सामने नहीं आया। 

बहरहाल 1998 में ड्रॉप्सी मामले के बाद खुले में बिक रहे सरसों तेल की शामत आ गई। एक प्रचार चल निकला खुले में बिकने वाले तेल में जबरदस्त मिलावट होती है, इससे स्वास्थ्य को खतरा है। खुले तेल के नमूनों की यदा-कदा पोल भी खुलती रही। पैकिंग वाले सरसो तेल की वकालत भी शुरू हो गई।

बहरहाल पूर्वी और उत्तरी भारत में बड़े पैमाने पर गांव और समाज में सरसों तेल लोगों की पहली पसंद रही है। इसके बावजूद 1998 की महामारी (ड्रॉप्सी) ने इस देशी और प्रचलित तेल पर सवालिया निशान लगा दिए। सरसो तेल से बीमारी के भय के बीच कई अन्य तेलों ने अपनी जगह बीते दो दशकों में बनाई। इनमें रिफाइंड प्रमुख हैं। 

1990 में लिया गया था ब्लेंडिग का निर्णय

अब सरकार ने सरसों तेल में ब्लेंडिंग यानी मिश्रण को खत्म करके रिफाईंड में ब्लेंडिंग की इजाजत दे दी है। लेकिन विशेषज्ञों की राय में नतीजा यह निकला है कि सरसो के तेल में ब्लेंडिग ने न सिर्फ लोगों की स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर दिया बल्कि सरसो पैदा करने वाले किसानों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा है। वहीं, कुछ संगठन रिफाइंड में भी ब्लेंडिंग की खिलाफत कर रहे हैं।

वर्ष 1990 में खाद्य वनस्पति तेलों में  ब्लेंडिंग यानी मिश्रण को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने इजाजत दिया था। 23 अप्रैल, 1990 को जारी अधिसूचना (जीएसआर 457 (ई)) के जरिए इसे वैधता दे दी गई थी। वर्ष 2006 में एफएसएसआई ने इसके लिए रेग्युलेशन बनाए।

ब्लेंडिंग करने वाली और निर्माता कंपनियों के लिए एग्रीकल्चर प्रोड्यूस (ग्रेडिंग एंड मार्किंग) एक्ट (एगमार्क) सर्टिफिकेशन को लागू किया गया। यह भी कहा गया कि किस प्रकृति का तेल मिश्रित किया गया है पैक के पीछे और सामने उसे लिखना होगा।

ब्लेंडिंग करने वाली कंपनियां इसकी खूब वकालत करती हैं। हालांकि, इसके अनियंत्रित इस्तेमाल के आरोपों पर सरकारें लंबे समय तक चुप रही हैं। 

जब भारत था खाद्य तेल में आत्मनिर्भर तब लिया गया था ब्लेंडिंग का निर्णय 

सरसों में ब्लेडिंग का निर्णय न्यूट्रिशनल प्रोफाइल, टेस्ट और तेल को ज्यादा गर्म कर देने पर भी गुणवत्ता बनी रहने के लिए लिया गया था। ऐसा दावा था कि सीमित ब्लेंडिंग से तेल की गुणवत्ता बढ़ जाएगी। 

डॉ प्रमोद इस ब्लेंडिग के दुष्परिणाम सामने रखते हैं,  वह बताते हैं कि प्रोसेसिंग करने वालों ने ब्लेंडिंग का खूब गलत फायदा उठाया। ब्लेंडिंग के दौरान सरसो तेल में कहीं-कहीं सस्ते आयात होने वाले पॉम ऑयल का मिश्रण 80 फीसदी तक रहा। इसकी वजह से किसानों के लिए सरसों की लाभकारी कीमत खत्म हो गई।

शायद इसीलिए आयात पर हम निर्भर होते चले गए। लेकिन यह तथ्य काफी रोचक है कि एक समय ऐसा भी आया कि देश सरसों तेल के उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1990-91 में भारत जरूरत का 98 फीसदी खाद्य तेल उत्पादन कर रहा था। 

इसकी एक वजह टीएमओ योजना भी थी। वर्ष 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने टेक्नोलॉजी मिशन ऑन ऑयलसीड्स (टीएमओ) की शुरुआत की थी। इसकी अध्यक्षता सैम पित्रोदा कर रहे थे। इसका मकसद खाद्य तेलों के घरेलू उत्पादन को बढ़ाना था। टेक्नोलॉजी की वजह से न सिर्फ तिलहन का क्षेत्र बढ़ा था बल्कि उत्पादन भी बढ़ा था।  

डॉ प्रमोद बताते हैं कि सरसों के बारे में सबसे चिंताजनक बात यह है कि पिछले 25 वर्षों में सरसों का क्षेत्र बढ़ा ही नहीं। यह 5.5 से 6 मिलियन हेक्टेयर के बीच में ही बना हुआ है। किसानों को न ही सपोर्ट दिया गया और न ही नीतियां कारगर रहीं। खाद्य तेलों खासतौर से पॉम आयल के आयात को खूब प्रोत्साहित किया गया, यहां तक कि आयात ड्यूटी शून्य तक पहुंचा दिया गया। 

बीते कुछ वर्षों से आयात ड्यूटी बढ़ाई गई है, इसके अलावा मिनिमम सपोर्ट प्राइस मिला है, किसानों ने तकनीकी अपनाया है, जिसकी वजह से कुछ लाभ मिलना शुरू हुआ है। हालांकि एरिया नहीं बढ़ा। बीते दस वर्षों में एरिया में कंपाउंड एनुअल ग्रोथ  -2 फीसदी है। हालांकि प्रति यूनिट उत्पादन 1.5 टन औसत आ गई है। 

ब्लेंडिंग खत्म करने का निर्णय किसानों को प्रोत्साहित करेगा। 

वहीं बाजारों में बिना मिश्रण वाला सरसो तेल 8 जून से लाया गया है। इसकी कीमत 150 से 160 रुपए के आस-पास है। 

अगली कड़ी में जानिए क्यों सरसों तेल की कीमतें आसमान पर पहुंची?

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