तीन मिनट, एक मौत: वायु प्रदूषण से फेफड़े ही नहीं, दूसरे अंगों पर भी हो रहा असर

सरकार लगातार इस बात को खारिज करती हैं कि वायु प्रदूषण से मौतें नहीं होती हैं। शायद इसीलिए आपात स्थिति में भी सुधार के कदम नहीं उठाए जा रहे हैं

By Vivek Mishra

On: Monday 28 October 2019
 
Photo: Vikas Choudhary

तीन मिनट, एक मौत से आशय है कि देश में वायु प्रदूषण की वजह से भारत में औसतन तीन मिनट में एक बच्चे की मौत हो जाती है। डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है। इसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक आप पढ़ चुके हैं कि वायु प्रदूषण से बच्चों की मौत के मामले सबसे अधिक राजस्थान में हुए हैं। इसके बाद जहरीली हवा की वजह से बच्चों की सांस लेना हुआ मुश्किल में हमने बताया कि अनस जैसे कई बच्चे लगभग हर माह अस्पताल में भर्ती होना पड़ रहा है। तीसरी कड़ी में बताया गया कि तीन दशक के आंकड़ों के मुताबिक बच्चों की मौत की दूसरी बड़ी वजह निचले फेफडे़ के संक्रमण होना रहा है। चौथी कड़ी में बताया गया कि वायु प्रदूषण के कारण बच्चे अस्थमा का शिकार हो रहे हैं। पांचवी कड़ी में अपना पढ़ा कि बच्चे कैसे घर के भीतर हो रहे प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं। प्रस्तुत है छठी कड़ी - 

 

भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली में बच्चों के फेफड़ा रोग संबंधी विशेषज्ञ विजय हड्डा बताते हैं कि यह बात पहले अध्ययन में देखी जा चुकी है कि हवा में मौजूद खतरनाक पार्टिकुलेट मैटर किस तरह से फेफड़ों और अन्य ऑर्गन को नुकसान पहुंचाते हैं। उसी आधार पर यह कहा जा रहा है कि वायु प्रदूषण के कारण बच्चों के फेफड़ों और अन्य अंग (ऑर्गन) बीमार बन रहे हैं। आज भी श्वसन रोग और निमोनिया बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण है। खासतौर से बच्चों में फेफड़े छोटे होते हैं और इसी दौरान वे ज्यादा सांस लेते हैं लेकिन प्रदूषण की उतनी ही मात्रा उनके फेफड़ों में भी जाती है जितनी किसी वयस्क के। ऐसी स्थिति में न सिर्फ बच्चों के फेफड़े प्रदूषण की मार को झेलने में असमर्थ होते हैं बल्कि उनके अन्य ऑर्गन भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। 

डॉक्टर हड्डा ने कहा कि यह गौर करना चाहिए कि जिन्हें हम बीमारू राज्य कहते हैं उनमें ही बच्चों की मृत्यु दर सबसे ज्यादा है। ऐसी स्थिति इसलिए क्योंकि स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर नहीं हो पाई हैं। दूसरी बात यह है कि डायरिया, खसरा और अन्य कार्यक्रमों को लक्ष्य किया गया जिसमें जागरुकता के बाद सुधार हुआ है। यदि वायु प्रदूषण को लक्ष्य किया जाए तो श्वसन और फेफड़ों के रोग से बच्चों की मृत्यु पर रोकथाम लगाई जा सकती है। 

राजस्थान में यह सब वह नसीब वाले बच्चे हैं जो जेके लोन अस्पताल पहुंच गए और वहां उन्हें चिकित्सकीय नसीहत और इलाज मिल गया। हालांकि, एक अस्पताल की यह सेवा सभी वायु प्रदूषण के पीड़ित मासूमों के काम नहीं आती है। क्योंकि देश में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे हर तीन मिनट पर वायु प्रदूषण के कारण होने वाले निचले फेफड़े के संक्रमण (एलआरआई) से  दम तोड़ देते हैं।  

सरकार लगातार इस बात को खारिज करती हैं कि वायु प्रदूषण से मौतें नहीं होती हैं। शायद इसीलिए आपात स्थिति में भी सुधार के कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। हालांकि, वैश्विक अध्ययन में यह स्थापित किया जाने लगा है कि वायु प्रदूषण के कारण मौतें हो रही हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड ईवेल्युशन (आईएचएमई) के जरिए 2017 में किए गए संयुक्त अध्ययन के तहत ग्लोबल बर्डेन डिजीज (जीबीडी) में आंकड़े यह स्पष्ट तौर पर स्थापित करते हैं कि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में वायु प्रदूषण के कारण निचले फेफड़े का संक्रमण मौत का प्रबल कारक बन रहा है।

जीबीडी, 2017 के आंकड़ों के मुताबिक 0 से 5 वर्ष आयु वाले बच्चों के आयु समूह में सबसे ज्यादा मृत्यु नवजात विकार के कारण होती हैं। इसके बाद मौत के कारकों में दूसरे स्थान पर निचले फेफड़े का संक्रमण मौजूद है। नवजात विकार से होने वाली मौत की प्रमुख वजह अपरिपक्व अवस्था में समयपूर्व जन्म, किसी वायरस या एजेंट की उपस्थिति के कारण दिमाग का सही से काम न करना है। इसके बाद श्वसन संबंधी बीमारी में बच्चों में निचले फेफड़े का संक्रमण ही सबसे ज्यादा है। ऊपरी फेफड़े का संक्रमण बच्चों में बहुत ही कम है।

2017 में विभिन्न कारणों से 0 से 5 वर्ष आयु वाले मासूम बच्चों की  कुल 10.35 लाख मौतें हुई हैं। इनमें 17.9 फीसदी यानी वर्ष 2017 में 1.85 लाख मौतें निचले फेफड़े के संक्रमण (एलआरआई) से हुईं जबकि एलआरआई होने का प्रबल कारक वायु प्रदूषण ही है और उसके सबसे बड़े शिकार पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे ही हैं। घर के भीतर और बाहर का वायु प्रदूषण दोनों नवजात बच्चों के लिए घातक साबित हो रहा है।

जारी...

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