प्रदूषण से कितनी राहत देगी कृत्रिम बारिश?

राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण को कम करने के लिए कृत्रिम बारिश का उपयोग किया जाएगा

By Rajat Ghai

On: Wednesday 21 November 2018
 

यदि दिल्ली में धुंध की स्थिति और खराब होती है तो केंद्र सरकार कृत्रिम वर्षा के लिए क्लाउड सीडिंग का सहारा लेगी। केंद्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री महेश शर्मा ने मंगलवार को न्यूज एजेंसी एएनआई को बताया, “अगर स्थिति और खराब होती है, तो कृत्रिम वर्षा के लिए क्लाउड सीडिंग का विकल्प तत्काल कदम के रूप में उठाया जा सकता है।”

लेकिन क्या ऐसा होगा? और यदि ऐसा होता है तो क्या यह कारगर साबित होगा?

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, दिल्ली में कृत्रिम बारिश के लिए आवश्यक क्लाउड सीडिंग के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सफदरजंग, आईजीआई या गाजियाबाद के हिंडन स्थित तीन हवाई अड्डों से विमान उड़ान भर सकते हैं। ऐसा तभी हो सकेगा जब मौसम संबंधी स्थितियां उपयुक्त होंगी। अधिकारियों ने इसके अलावा किसी अन्य जानकारी का खुलासा नहीं किया है। और यही समस्या है। राजधानी में इस काम के लिए उपयुक्त मौसम संबंधी स्थितियां कब होंगी?

केंद्रीय भू-विज्ञान मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त संस्थान, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटेरोलॉजी, पुणे के सेवानिवृत्त वैज्ञानिक जेआर कुलकर्णी बताते हैं, “क्लाउड सीडिंग के लिए आवश्यक बादल एक अलग प्रकार के बादल होते हैं। उन्हें कनेक्टिव बादल कहा जाता है और वे लंबवत बढ़ते हैं। केवल ऐसे ही बादल को सीड किया जा सकता है। एक और तरह का बादल होता है, जिसे स्ट्रैटिफाइड कहा जाता है और जो क्षैतिज रूप से बढ़ते हैं, उसे सीड नहीं किया जा सकता है।”

वह आगे कहते हैं, “बारिश के लिए, जल वाष्प युक्त हवा को नीचे से बादलों में प्रवेश करना होता है। बादलों में आमतौर पर सूक्ष्म आकार की बूंद और कण होते हैं। जब पानी का वाष्प बादल में प्रवेश करता है, तो यह कणों के साथ टकराकर बड़े कणों या बूंदों का निर्माण करता है। ये मिलीमीटर आकार के होते हैं। इस प्रक्रिया को टकराव और सहवास कहा जाता है। कृत्रिम बारिश में, सोडियम क्लोराइड, सिल्वर आयोडाइड या शुष्क बर्फ जैसे हाइग्रोस्कोपिक पदार्थ, जो पानी के साथ मधुर संबंध रखते हैं, को कनेक्टिव बादलों पर छिड़का जाता हैं। यह पदार्थ टकराव और सहवास प्रक्रिया में मदद करती है और इस प्रकार बारिश पैदा करती है।”

लेकिन ऐसी स्थिति जो वायु प्रदूषण बढ़ाती है, वह बहुत अलग होती हैं। कुलकर्णी कहते हैं, “वायु प्रदूषण निचले ट्रोपोस्फेयर में कणों की एकाग्रता या संचय के कारण होता है। संचय स्थिर वायुमंडलीय स्थितियों के कारण होता है। ऐसी स्थिति में, लंबवत संवहनी बादलों का गठन संभव नहीं है। यहां तक ​​कि यदि बादल बनते भी हैं तो वे क्षैतिज, स्ट्रटिफाइड किस्म के होते हैं, जिनका सीडिंग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।”

दुनिया में पहली बार क्लाउड सीडिंग का प्रयोग द्वितीय विश्वयुद्ध के तुरंत बाद 1946 में हुआ था। एयरक्राफ्ट आइसिंग की खोज करते समय जनरल इलेक्ट्रिक के विन्सेंट शेफेर ने जुलाई 1946 में क्लाउड सीडिंग की खोज की। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार, कम से कम 56 देशों ने इस प्रकार के क्लाउड सीडिंग का उपयोग किया है।

कुलकर्णी कहते हैं, “भारत में क्लाउड सीडिग का लंबा इतिहास है। यहां इसका पहला प्रयोग 1952 में हुआ था। हमने आज तक इसका उपयोग जारी रखा है, यानी 60 साल से हम इसका इसका इस्तेमाल करते आ रहे हैं। लेकिन इसका इस्तेमाल ज्यादातर सूखा और बांधों में पानी के स्तर में वृद्धि के लिए किया जाता है। दुनिया में कहीं भी यह प्रक्रिया वायु प्रदूषण को कम करने में सफल नहीं रही है।”  

यहां तक ​​कि अगर क्लाउड सीडिंग के लिए स्थिति अनुकूल भी होती है, तो इसके द्वारा पैदा बारिश का असली बारिश के मुकाबले, हवा सफाई पर असर बहुत ही कम होगा। क्लीन एयर एंड सस्टेनेबल मोबिलिटी यूनिट, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई), नई दिल्ली के सीनियर रिसर्च एसोसिएट पोलाश मुकर्जी कहते हैं, “क्लाउड सीडिंग तभी संभव है जब इसके लिए मौसम संबंधी स्थितियां उपयुक्त हों और स्थानीय वातावरण में नमी वाले कंटेंट आवश्यक मानदंडों को पूरा करते हैं। हालांकि, यह सिर्फ हवा में मौजूद प्रदूषकों को कम कर, तत्काल कुछ राहत प्रदान कर सकते हैं। अगर प्रदूषण के मुख्य स्रोत जैसे, वाहन, उद्योग और निर्माण गतिविधि को प्रदूषण फैलाने की अनुमति जब तक मिलती रहेगी, तब तक क्लाउड सीडिंग के जरिए कराए जाने वाली कृत्रिम बारिश केवल सीमित और अस्थायी प्रभाव ही डाल पाएगी।”

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