जलवायु परिवर्तन: विनाश के लिए जिम्मेदार अदृश्य हाथ

एंथनी मैक माइकल नई किताब में बता रहे हैं कि कैसे मौसम में आए बदलाव ने प्राचीन सभ्यताओं का विनाश कर दिया। 

By Ishan Kukreti

On: Friday 29 September 2017
 

मशहूर महामारी वैज्ञानिक एंथनी जे मैक माइकल की किताब क्लाइमेट चेंज एंड हेल्थ ऑफ नेशंस जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी पहलुओं की पड़ताल करती है। किताब बताती है कि जलवायु परिवर्तन ने न केवल 18वीं शताब्दी के संगीतकार वोल्फगैंग मोजार्ट की जिंदगी खत्म की बल्कि फ्रेडरिक शोपेन और फेलिक्स मेडलसन को भी अपना ग्रास बना लिया। ये लोग अपने जीवन के तीसरे दशक में टीबी से जूझ रहे थे। 19वीं शताब्दी के दूसरे दशक में इनका शुरुआती जीवन ठंडे वातावरण में गुजरा था।

लेखक ने बेहद वैज्ञानिक तरीके से तथ्यों के आधार पर जलवायु परिवर्तन का विश्लेषण किया है। उन्होंने मोजार्ट, शोपेन और मेडलसन की मौत का जिम्मेदार तम्बोरा पर्वत पर फटे विशाल ज्वालामुखी और उसके बाद अचानक बढ़ी ठंड को बताया है। लेखक के मुताबिक, भूतकाल में जलवायु ने समाज को अपना शिकार बनाना शुरू किया था और 21वीं शताब्दी में आते-आते इसने अपना दायरा और फैला लिया।  

मैक माइकल की मौत किताब लिखते समय हो गई थी। उनकी किताब को कैनबरा स्थित ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले उनके साथी एलिस्टर वुडवार्ड और केमरन म्योर ने पूर्ण किया। 388 पृष्ठों की इस किताब में जलवायु परिवर्तन और सभ्यता के पतन व उत्थान के बीच संबंध स्थापित किया गया है। लेखक के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन के कारण संक्रामक बीमारियां बढ़ेंगी। उन्होंने नीपा वायरस के संवाहक चमगादड़ का उदाहरण देकर समझाया है कि कैसे जलवायु परिवर्तन इस वायरस के फलने फूलने में मददगार है। उन्होंने बताया है कि नीपा विषाणु का सबसे पहले पता मलेशिया में 1998 में अल नीनो की घटना के दौरान चला था। इस दौरान जंगलों में बड़े पैमाने पर आग लगी। गर्मी और धुएं से फलों की पैदावार को नुकसान पहुंचा। खाने की कमी से जूझ रहे चमगादड़ों फलों के बागानों में आ गए। यह बागान सुअरों के फार्म से सटे हुए थे। सुअरों ने चमगादड़ों के चखे हुए फल खा लिए और वे संक्रमित हो गए। इस संक्रमण का अगला शिकार मानव बने।

लेखक ने चेताया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हवा के स्वरूप में आया बदलाव कावासाकी बीमारी की भौगोलिक पहुंच को बढ़ा सकता है। यह बीमारी बच्चों में रक्त के बहाव को हृदय तक पहुंचाने में परेशानी पैदा करती है। जापान में यह बीमारी दूसरे देशों की तुलना में 20 गुणा अधिक है। इसका कारण यह है जापान की तरफ जाने वाली पश्चिमी हवाएं अपने साथ धूल मिट्टी के कण बहाकर ले जाती हैं।  इन मिट्टी के कणों में इस बीमारी के विषाणु मौजूद रहते हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण हवा के स्वरूप  में बदलाव आने पर इन बीमारियों के विषाणु दूसरी जगह भी फैल सकते हैं।

यह किताब जलवायु परिवर्तन और तमाम देशों के स्वास्थ्य के अंतरसंबंधों को विभिन्न नजरियों से देखती है, चाहे वह खाद्य उत्पादन हो या युद्ध। जलवायु परिवर्तन ने कभी मानवता का साथ दिया है तो कभी उसके खिलाफ रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण ही कांस्य युग की तीनों सभ्यताओं-मेसोपोटामिया, मिश्र की सभ्यता और हड़प्पा संस्कृति का पतन हुआ। ये सभ्यताएं 23°N और 33°N अक्षांश पर स्थित थीं। इनका जलवायु स्वरूप उपोष्णकटिबंधीय पर्वतश्रेणियों से प्रभावित था। यह उच्च दबाव क्षेत्र था। 3300 से 2300 ईसा पूर्व यह उत्तर की तरफ खिसक गया। इससे मेसोपोटामिया और हड़प्पा में मानसून प्रभावित हुआ। इसी के साथ वैश्विक ठंड बढ़ गई। इससे खाद्य का संकट पैदा हो गया और अंतत: इन सभ्यताओं का विनाश हो गया।

रोमन सभ्यता का अंत और दुखदायी था। रोमन साम्राज्य का उत्थान 300 ईसा पूर्व शुरू हुआ था। इस वक्त वैश्विक तापमान बढ़ गया जिसे “द रोमन वार्म” के नाम से जाना गया। 300वीं शताब्दी के आसपास इस साम्राज्य का अंत हो गया। इसी वक्त गर्म काल भी खत्म हो गया। इसी के साथ खाद्य संकट खड़ा हो गया जिसने राजनैतिक अस्थिरता पैदा कर दी। इस दौरान भयंकर महामारी शुरू हो गई। 166 ये 190वीं शताब्दी के बीच एंटोनिन प्लेग ने यहां विकराल रूप धारण कर लिया। इस महामारी ने 70 लाख से एक करोड़ लोगों की जिंदगी खत्म कर दी। मैक माइकल के अनुसार, ठंडा और गर्म माहौल इस बीमारी के फैलने में मददगार होता है।

जस्टिनियन प्लेग ने रोमन साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम किया। इसे बबोनिक प्लेग के नाम से भी जाना गया। 542 ईसा पूर्व फैली इस महामारी ने महज चार दिनों के अंदर कान्स्टेनटिनोपल की आधी आबादी खत्म कर दी। यहां भी जलवायु परिवर्तन ने महामारी के फैलने में मदद की। 536 से 545वीं सदी में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस वैश्विक तापमान में अचानक गिरावट आ गई। इससे चूहों और मक्खियों को प्लेग का विषाणु फैलाने में मदद की।  

रोमन साम्राज्य की तरह एक दिन हम भी अकाल, युद्ध और प्लेग में जूझ सकते हैं। भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि दुनिया जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कितने प्रगतिशील और सामूहिक प्रयास करती है।

इंडियाज क्लाइमेट चेंज आइडेंटिटी बिटवीन रिएलिटी एंड परसेप्शन:
समीर सरन और एलेड जोंस
पेलग्रेव मैकमिलन | 128 पृष्ठ | Rs 3390

यह पुस्तक भारतीय नजरिए से जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर प्रकाश डालती है और तथ्यों व आंकड़ों के माध्यम से भारत का पक्ष रखती है। यह भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था, उभरती औद्योगिक शक्ति, विकासशील देश और ब्रिक्स के हिस्सेदार के रूप में “जलवायु न्याय” पर जोर देती है। भारतीय पक्ष को मजबूती देने के लिए मौसम विशेषज्ञों से बात की गई है। साथ ही यह किताब आने वाली चुनौतियों का भी खाका खींचती है। यह जलवायु परिवर्तन, अंतरराष्ट्रीय विकास, राजनीति, अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय कानूनों पर शोध करने वालों के लिए उपयोगी साबित हो सकती है।

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