बंजर होता भारत -5: राजस्थान ने दिखाई बंजर होने से बचने की राह

प्रदेश में 2003-05 से लेकर 2011-13 के बीच वायु क्षरण प्रभावित क्षेत्र में 1,34,180 हेक्टेयर की कमी आई है

By PC Moharana, O P Yadava

On: Tuesday 10 September 2019
 
तारिक अजीज / सीएसई

नैरोबी में संयुक्त राष्ट्र के मंच (यूएनसीओडी) पर मरुस्थलीकरण के मुद्दे पर 1977 में पहली बार चर्चा की गई। संयुक्त राष्ट्र की ओर से मरुस्थलीकरण की समस्या से निपटने के लिए लगातार कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। हाल ही में चीन में आयोजित सीओपी-13 में सभी 196 पक्षों में से 169 देशों ने मरुस्थलीकरण से प्रभावित होने की घोषणा की। इसमें कहा गया कि पृथ्वी शिखर सम्मेलन के 25 वर्षों के बावजूद मरुस्थलीकरण अब भी दुनिया भर के लिए एक बड़ी समस्या बना हुआ है। इसरो द्वारा 2016 में प्रकाशित एटलस के अनुसार, मरुस्थलीकरण के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार जल क्षरण है। 10.98 फीसदी क्षेत्र में मरुस्थलीकरण जल क्षरण की वजह से ही होता है। इसके बाद वनस्पति क्षरण का नंबर आता है, जिसके कारण 9.91 प्रतिशत क्षेत्र में मरुस्थलीकरण होता है, फिर वायु क्षरण (5.55 प्रतिशत क्षेत्र में), लवणता (1.12 प्रतिशत ), मानव निर्मित / बसावट (0.69 प्रतिशत) और अन्य कारणों जैसे जलभराव, अत्यधिक पाला, लोगों का दखल, बंजर और चट्टानी भूमि (2.07 प्रतिशत) आदि वजहें भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। देश के उत्तर पश्चिमी हिस्से में मरुस्थलीकरण की समस्या अधिक गंभीर है, जिसमें थार रेगिस्तान के भारतीय क्षेत्र के साथ ही देश का सबसे गर्म शुष्क जोन भी आता है।

राजस्थान में देश के कुल शुष्क क्षेत्र (32 मिलियन हेक्टेयर) में से सबसे अधिक हिस्सा (20.8 मिलियन हेक्टेयर या 62 प्रतिशत) आता है। राज्य में मरुस्थलीकरण को बढ़ावा देने में वायु क्षरण की भूमिका भी काफी अहम है, जिससे 1,51,97,874 हेक्टेयर (44.41 प्रतिशत) क्षेत्र प्रभावित है। वायु क्षरण व निक्षेपण के चलते उड़ती रेत और धूल भरे तूफान थार के रेगिस्तानी पर्यावरण की विशेषता हैं। गर्मियों के दौरान इस तरह की घटनाओं की तीव्रता अधिक महसूस की जा सकती है। यह तीव्रता गर्मी की तेज हवाओं, रेतीले इलाके, अपर्याप्त और विरल वनस्पति आच्छादन और मानव गतिविधियों का परिणाम है।

सकारात्मक नतीजे

क्षेत्र के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 72 प्रतिशत यानी लगभग 1.57 लाख हेक्टेयर हिस्सा वायु क्षरण/ निक्षेपण से प्रभावित है, जिसमें से 5,800 वर्ग किमी क्षेत्र बहुत खतरनाक ढंग से निम्नीकृत (डिग्रेडेड) हो चुका है, 25,540 वर्ग किमी क्षेत्र गंभीर रूप से प्रभावित है, 73,740 वर्ग किमी क्षेत्र मामूली रूप से और 52,690 वर्ग किमी क्षेत्र कम प्रभावित है। वायु अथवा रेत नियंत्रण उपायों के तहत 2 स्थितियों को लेकर लक्ष्य तय किए गए हैं, जिनमें ढके हुए बालू के टीले और रेतीले मैदान शामिल हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि 2003-05 से लेकर 2011-13 के बीच वायु क्षरण प्रभावित क्षेत्र में 1,34,180 हेक्टेयर की कमी आई है। हालांकि, रेतीले टीलों के स्थिरीकरण के लिए पहले से कुछ यांत्रिक या रासायनिक तरीके चलन में हैं, लेकिन केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (सीएजेडआरआई) की तरफ से डिजाइन किए गए वनीकरण कार्यक्रम और वनस्पति अवरोध की तकनीक थार रेगिस्तान के लिए प्रभावी पाई गई है। संस्थान ने इसके लिए पुराने (10 हजार साल पहले बने), बड़े (12 से 40 मीटर ऊंचे) और स्वाभाविक रूप से स्थिर टिब्बों पर ध्यान केंद्रित किया। इन टीलों की सालाना गतिशीलता बहुत कम (3 से 5 मीटर) है। सीएजेडआरआई की इस तकनीक में ये गतिविधियां शामिल हैं :

(i) खिसकते रेतीले टीलों वाले क्षेत्रों को जैविक हस्तक्षेप से बचाने के लिए बाड़ लगाना, (ii) स्थानीय रूप से उपलब्ध झाड़ियों और घास आदि का इस्तेमाल करके, समानांतर पट्टियों या फिर शतरंज की बिसात वाले पैटर्न में सूक्ष्म वायुरोधकों का निर्माण करना (iii) टिब्बों की ढलान पर वनीकरण के लिए घास के बीजों की सीधी बुवाई और देसी व विदेशी प्रजातियों के पौधों की रोपाई करना, (iv) सूक्ष्म वायु अवरोधकों की ओर घास की पट्टियों को लगाना या घास के बीज व फलियों वाली लताओं का बीजारोपण करना, (v) 10 से 15 वर्षों में पूरी लागत निकलने तक रेत के इन टीलों का नियमित और उचित प्रबंधन करना।

सूक्ष्म वायुरोधकों के लिए झाड़ियों के रूप में लेप्टेडेनिया पायरोटेक्निका (खींप), जिजिफस न्यूमुलेरिया (पाला), क्रोटालेरिया बुरहिया (साइनिया) और पैनिकम तुर्गिडम (मूरत), पेड़ के तौर पर अकेशिया टॉर्टिलिस, प्रोसोपिस एसपीपी, अकेशिया सेनेगल, पार्किंसोनिया आर्टिकुलेटा और तामरिस्क आर्टिकुलेटा और घास के तौर पर सेवण घास व बफेल घास की प्रजातियों को उपयुक्त माना गया है। वर्तमान में यह तकनीक जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर और चुरू जैसे सभी रेगिस्तानी जिलों में फैल गई है। इन जगहों पर राजस्थान के राज्य वन विभाग की मदद से 4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में रेत के टीले स्थिर किए जा चुके हैं।

वायुरोधी खेत पेड़, पौधों, अथवा झाड़ियों द्वारा बनाये गए वनस्पतिक अवरोध होते हैं और हवाओं के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने में सक्षम होते हैं। संस्थान ने इन तकनीकों का प्रयोग उन क्षेत्रों में किया जहां रेत के टीले नहीं थे। इजराइली बबूल (अकेशिया टॉर्टिलिस), नीलगिरि (यूकेलिप्टस कैमलडुलेंसिस), शीशम (डालबर्जिया सिसू) और रोहेड़ा (टेकोमेला अंडुलाटा) जैसे कई पेड़ों का लगभग 800 किमी लंबा बागान जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर, चूरू, झुंझुनूं, नागौर, अजमेर, और पाली जिले में लगाया गया। सीकर-लोहारू, सीकर-फतेहपुर, और पलसाना-देशनोक अनुभाग की रेल पटरियों के अगल-बगल लगभग 100 किमी के क्षेत्र में वृक्षारोपण किया गया, तो वहीं मोहनगढ़ के आईजीएनपी क्षेत्र में 250 किमी के भूभाग में पेड़ लगाए गए। जैसलमेर जैसे अत्यधिक शुष्क जिलों से मिले नतीजों के अनुसार, ऐसे बगीचों ने 2 से 10 घंटों की दूरी में वायुरोधकों की सीमा पर हवा के वेग को कम कर दिया।

इस तरह के वृक्षारोपण से मिट्टी की हानि में भी लगभग 76 प्रतिशत की कमी आई है। बिना वायुरोधी बगीचों वाले क्षेत्रों की अपेक्षा वायुरोधकों की सीमा के अंदर मिट्टी कम से कम 14 प्रतिशत ज्यादा नमी थी और बाजरे की पैदावार में 70 प्रतिशत का इजाफा दर्ज किया गया। इतने अच्छे परिणामों के बावजूद, कृषि योग्य जमीनों में वायुरोधक किसानों के बीच उतने लोकप्रिय नहीं हैं, क्योंकि कई बार पेड़ खेतों में कृषि कार्यों व अन्य गतिविधियों में बाधक होते हैं। आजकल खेतों की मेढ़ों पर हवा की दिशा में पेड़ लगाने को काफी बढ़ावा दिया जा रहा है। चौखानेदार या समानांतर धारियों में लगाए गए जंगल, टिब्बों की ढलानों पर रेत की आवाजाही को रोक सकने में काफी हद तक समर्थ रहे हैं। बढ़ते हुए वनस्पतिक आच्छादन के साथ, इंदिरा गांधी नहर परियोजना (आईजीएनपी) कमांड क्षेत्र में ऐसी प्रणालियों ने सूक्ष्म जलवायु को प्रभावित किया है।

वायु शक्ति में भारी गिरावट आई है और धूल भरी आंधी भी अब पिछले दिनों के 17 बार की तुलना में 5 से भी कम हो गई है। अकेले पश्चिमी राजस्थान में वायु अपरदन क्षेत्र वर्ष 2000 के दौरान 76 प्रतिशत की तुलना में 2013 में घटकर 73 प्रतिशत रह गया है। खेती पर इसके प्रभाव के मद्देनजर, वर्ष 2011 से 2013 के दौरान वर्षा-सिंचित कृषि भूमि पर वायु अपरदन 1,00,667 हेक्टेयर तक और किसानों द्वारा सिंचित कृषि भूमि पर 21,390 हेक्टेयर तक कम हो गया। इसी तरह, वायुरोधकों के साथ वाले खेतों में शीत लहर के कारण फसल उत्पादकता में औसत नुकसान महज 17 प्रतिशत पाया गया, जबकि वायुरोधकों के बिना खेतों में ये नुकसान 30 प्रतिशत तक हुआ। रोधकों के दोनों ओर वाष्पीकरण पटल मूल्य भी गिरावट के साथ 5-14 प्रतिशत तक आ गया था।

1957-58 और 2014-15 के तुलनात्मक आंकड़े पश्चिमी राजस्थान में कुछ बड़े बदलावों को दर्शाते हैं। ये बदलाव हैं, शुद्ध बोए गए क्षेत्र में 18.25 प्रतिशत, दोहरी फसल क्षेत्र में 14.75 प्रतिशत और वन क्षेत्र में 1.61 प्रतिशत की वृद्धि। खेती योग्य बंजर भूमि में 8.79 प्रतिशत, वर्तमान में परती जमीन में 1.64 प्रतिशत व पुरानी परती जमीन में 6.9 प्रतिशत की कमी आई है। ये आर्थिक लाभ के लिए फसल उगाने की इच्छा के सूचक हैं। किसानों की मानसिकता में इस प्रकार का आमूलचूल परिवर्तन संस्थागत समर्थन और अनुसंधानिक हस्तक्षेप की वजह से भी है। फसलों की उन्नत किस्मों का विकास, कई प्रकार की कृषि वानिकी की पहचान तथा उनका विकास, और कृषि-बागवानी, उद्यान वानिकी पशुपालन खेती प्रणालियों का विकास, किसानों को बेहतर आजीविका प्रदान कर उनकी काफी मदद कर रहा है।

(लेखक केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान से संबद्ध हैं)

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