जलवायु परिवर्तन से 10 फीसदी तक गिर सकती है भारतीय अर्थव्यवस्था!

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अध्ययन में कहा गया है कि जहां वैश्विक अर्थव्यवस्था में 7 फीसदी की गिरावट आ सकती हैं, वहीं भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका व्यापक असर पड़ेगा

By Lalit Maurya

On: Tuesday 20 August 2019
 

जलवायु में आने वाले परिवर्तन से नित नए खतरे उभर रहे हैं, चाहे अमीर हो या गरीब दुनिया का कोई भी देश जलवायु में आने वाले परिवर्तन के खतरे से अनछुआ नहीं है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के नवीनतम अध्ययन में यह बात एक बार फिर साबित हो गयी है, जब शोधकर्ताओं ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि जलवायु में आ रहे परिवर्तनों के चलते इस सदी के अंत तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आ सकती है ।

शोधकर्ताओं के अनुसार जहां वैश्विक अर्थव्यवस्था में 7 फीसदी की गिरावट आ सकती हैं, वहीं भारत की अर्थव्यवस्था 10 फीसदी तक कम हो सकती है। वहीं क्लाइमेट चेंज को झुठलाने वाले अमेरिका को भी अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 10.5 फीसदी तक के घाटे को सहने के लिए तैयार रहना होगा ।

अमीर हो या गरीब सब पर पड़ेगा क्लाइमेट चेंज का बोझ

कनाडा, जो दावा करता है कि तापमान में हो रही वृद्धि से उसे आर्थिक लाभ होगा, वो भी इस सदी के अंत तक अपनी आय का 13 प्रतिशत से अधिक खो देगा। वहीं शोध से पता चलता है कि यदि दोनों उत्तरी अमेरिकी राष्ट्र पेरिस समझौते के अनुसार चलते हैं तो उनका यह घाटा केवल 2 प्रतिशत तक सीमित हो सकता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि जापान, भारत और न्यूजीलैंड जैसे देश अपनी आय का 10 फीसदी तक खो सकते हैं। वहीं स्विट्जरलैंड में सदी के अंत तक अर्थव्यवस्था में 12 फीसदी की कमी होने के आसार हैं, वहीं रूस का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 9 फीसदी तथा ब्रिटेन का 4 प्रतिशत नीचे आ जाएगा।

कुछ विद्वानों का मत है कि उत्तर की विकसित अर्थव्यवस्थाओं पर जलवायु परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और उन्हें तापमान के बढ़ने से लाभ ही होगा । पर नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि - औसतन अमीर और उत्तर के ठंडे देश भी अपनी उतनी ही आमदनी खो देंगे, जितनी कि दक्षिण के गरीब और गरम देश । लेकिन ऐसे हालत तब ही बनेंगे, जब ग्रीन हाउस गैसों का वैश्विक उत्सर्जन अपनी सामान्य स्थिति में ही बढ़ता रहता है, और यदि उसपर को लगाम नहीं लगाई जाएगी । वैज्ञानिकों का मत है की सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान में चार डिग्री सेल्सियस से अधिक का इजाफा होने की सम्भावना है।

गौरतलब है कि शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन के लिए 174 देशों के 1960 के बाद के आंकड़ों का उपयोग करते हुए, तापमान और आय के स्तर के बीच के सम्बन्ध और उसपर पड़ने वाले परिवर्तनों का अनुमान लगाया है । साथ ही उन्होंने अलग-अलग परिस्थितियों जैसे सामान्य स्थिति में उत्सर्जन तथा यदि वैश्विक रूप सभी देशों द्वारा पेरिस समझौते को अपना लिया जाता है तो उस परिस्थिति में उत्सर्जन, और उससे जलवायु में आने वाले परिवर्तन और आय पर उसके प्रभाव को विस्तार से अध्ययन किया है ।

कैम्ब्रिज के फैकल्टी ऑफ इकोनॉमिक्स और अध्ययन के सह-लेखक कमीआर मोहद्देस के अनुसार "चाहे शीत लहर हो या हीट वेव्स, बाढ़ सूखा या अन्य प्राकृतिक आपदाएं यदि उनकी संख्या और तीव्रता में यदि क्लाइमेट चेंज के कारण परिवर्तन आता है तो उसका बोझ, सीधे तौर पर आर्थिक क्षेत्र पर पड़ता है।"

भारतीय अर्थव्यवस्था भी नहीं है सुरक्षित

भारत में भी जलवायु परिवर्तन, आर्थिक विकास को अत्यधिक नुक्सान पहुंचा रहा है । संयुक्त राष्ट्र आपदा न्यूनीकरण कार्यालय (यूएनआईएसडीआर) द्वारा जारी एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत ने प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन के चलते 1998 से 2017 की 20 साल की अवधि के दौरान लगभग 8,000 करोड़ डॉलर का आर्थिक नुकसान उठाया है। दुनिया भर में प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले आर्थिक नुकसान में भी भारत को दुनिया के शीर्ष पांच देशों में स्थान दिया गया है। विश्व स्तर पर, इस अवधि के दौरान आपदाओं से लगभग 300,000 करोड़ डॉलर के नुकसान का अनुमान लगाया गया है। वहीं पिछले दो दशकों (1978-1997) की तुलना में पिछले 20 वर्षों में इस नुकसान में 120 फीसदी से अधिक का इजाफा हुआ है और अगर हम सिर्फ जलवायु से संबंधित आपदा के नुकसान को जोड़ें तो वे 151 फीसदी बढ़ गया है ।

अभी भी समय है, यदि हमें इन आपदाओं और जलवायु परिवर्तन से होने वाले खतरों से बचना है, तो हम सभी को मिलकर एक मंच पर आने की जरुरत है, और जरुरत है तैयार रहने की जिससे इन परिस्थितियों में हम मिलकर मुकाबला कर सके और अपने कल के लिए बेहतर भविष्य को सुरक्षित कर सकें । पेरिस समझौता उसी दिशा में उठाया गया एक कदम है, सभी देशों को चाहिए की वो उसका सम्मान करे और मिलकर अपने बढ़ते उत्सर्जन में कमी लाये और विकास की अंधी दौड़ से अलग हटकर अपने बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य बनाये, जिससे कल फिर किसी "ग्रेटा थुनबेर्ग" को अपने भविष्य के लिए जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई न लड़नी पड़े।

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