मरुस्थलीकरण को रोकने में विश्व का नेतृत्व कर सकता है भारत

बंजर हो चुकी भूमि किसी भी समुदाय के कारोबार पर पड़ने वाला बोझ है, लेकिन इस स्थिति को बदला भी जा सकता है

By Ibrahim Thiaw

On: Tuesday 03 September 2019
 
इलस्ट्रेशन: तारिक

हम उपजाऊ भूमि की अधिकता को हल्‍के में ले लेते हैं और इसका महत्‍व नहीं समझते। यह सोच लेते हैं कि खराब हो चुकी भूमि अपना इलाज खुद ही कर लेगी। लंबे समय तक खाली छोड़ देने से यह अपने आप ठीक हो जाएगी। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है।

हाल ही में किए गए चार स्‍वतंत्र अध्‍ययन बताते हैं कि खराब हो चुकी भूमि की उपजाऊ क्षमता उतनी तेजी से वापस नहीं आ रही जितने की उम्‍मीद की जा रही है। इसके कारण और प्रभाव अब स्‍थानीय स्‍तर तक सीमित नहीं रह गए हैं बल्कि वैश्विक रूप ले चुके हैं। अत: इसे ठीक करने की जिम्‍मेदारी उन सभी की है जो उन चीजों का उपभोग कर रहे हैं जो स्‍थानीय तौर पर उत्‍पादित नहीं होतीं। इससे निपटने के लिए इसमें निजी क्षेत्र को भी शामिल होना होगा, क्‍योंकि सरकार अकेले यह नहीं कर सकती। साथ ही समुदायों को भी लापरवाही से बचना चाहिए।

दुनिया भर में बढ़ती जागरुकता और पर्यावरण को बचाने के लिए कार्रवाई करने की मांग उठने के कारण यह भूमि संबंधी योजना और प्रबंधन में बदलाव का सही समय है। इसके लाभ दूरगामी और वैश्विक हैं।

मेरे दावे को समझने के लिए पहले यह समझने की जरूरत है कि विज्ञान क्‍या कहता है। दुनियाभर के 1.3 बिलियन के ज्‍यादा लोग भूमि हृास से सीधे तौर पर प्रभावित हुए हैं, लेकिन इसका असर 3.2 बिलियन से अधिक लोगों पर पड़ा है। यह दुनिया की आबादी का लगभग आधा है। इसके अलावा, दुनिया के 2 बिलियन से अधिक लोग शुष्‍क भूमि क्षेत्रों में रहते हैं। 25 वर्ष पहले समझौता वार्ता के समय शुष्‍क भूमि इस कन्‍वेंशन का मुख्‍य लक्ष्‍य थी। अन्‍य भूमि व्‍यवस्‍थाओं की तुलना में उनकी भूमि पर हृास (इसे मरुस्‍थलीकरण कहा गया है) का सबसे ज्‍यादा खतरा है।

फिर भी पिछले दो वर्षों के मूल्‍यांकन दर्शाते हैं कि 23 प्रतिशत भूमि खराब हो गई है जिसमें से ज्‍यादातर भूमि शुष्‍क क्षेत्रों से बाहर है। यह प्रति 4 से 5 हेक्‍टेयर भूमि में से एक हेक्‍टेयर के बराबर है। इसके अलावा 75 प्रतिशत भूमि की प्राकृतिक स्थिति में बदलाव आया है। यह प्रत्‍येक 4 हेक्‍टेयर उपजाऊ भूमि में से 3 हेक्‍टेयर के बराबर है। यह परिवर्तन पिछले 50 वर्षों में हुआ है और वह भी मुख्‍यत: कृषि क्षेत्र में।

इन परिवर्तनों ने भूमि के लचीलेपन को प्रभावित किया है। इससे हम पर बाढ़, अकाल और जंगलों में आग का खतरा बढ़ गया है। प्राकृतिक आवास के नुकसान का परिणाम जैव-विविधता, भू-जल और मिट्टी की उर्वरता की हानि के रूप में सामने आता है और इससे पौधों में मौजूद कार्बन डाई ऑक्‍साइड और मिट्टी वायुमंडल में घुल जाती है जिससे जलवायु परिवर्तन की स्थिति और गंभीर हो जाती है।लेकिन बदलाव के प्रति राजनीतिक माहौल परिपक्‍व हुआ है। यदि हम निजी क्षेत्र को कदम उठाने के लिए तैयार कर सके तो हमारे पास परिस्थिति सुधारने का अभूतपूर्व अवसर है। और निजी क्षेत्र के मेरा मतलब सूट-बूट पहने लोगों से नहीं है।

इनमें ऐसे किसान और किसान को-ऑपरेटिव शामिल हैं, जो अपने परिवार के पालन-पोषण, पैसा कमाने या अपने उत्‍पाद को बाजार तक पहुंचाने के लिए भूमि की उत्‍पादकता को बढ़ाने के वास्‍ते संगठित हुए हैं। इसमें वे सभी लोग शामिल हैं जो अपने बुढ़ापे के लिए निवेश निधि में पैसा जोड़ रहे हैं तथा ऐसा फायदा लेने के इच्‍छुक हैं जिससे उन्‍हें, उनके बच्‍चों को या बच्‍चों के बच्‍चों को भविष्‍य में कोई नुकसान न पहुंचे। और हां, इसमें वे कंपनियां भी शामिल हैं जो अब यह समझ चुकी हैं कि भूमि की सेहत की कीमत पर दीर्घकालीन विकास और लाभ प्राप्‍त नहीं किया जा सकता।

उत्‍पादक भूमि के उपयोग और प्रबंधन में निवेश केवल पर्यावरण के लिए अच्‍छा नहीं है।यह हमारे अपने हित में भी है। यह नौकरियां पैदा करने, बीजों को बचाने, ताजे पानी के स्रोतों को पुन: भरने,सुंदर और सुरक्षित घरों का निर्माण करने और बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य तथा जीवन की ओर ले जाने का बेहतर जरिया है। यह पर्यावरण नीति का आसानी से मिलने वाला लाभ है और दीर्घकालीन विकास लक्ष्‍य हासिल करने का सशक्‍त जरिया है।

खराब हो चुकी भूमि किसी भी समुदाय के कारोबार पर पड़ने वाला बोझ है, लेकिन इस स्थिति को बदला भी जा सकता है। ऐसी भूमि को पुनर्जीवित करके किसानों को फलने-फूलने, समुदायों को आगे बढ़ने, निजी क्षेत्र की वृद्धि और पर्यावरण व्‍यवस्‍था को सुधारने में मदद मिलेगी। प्‍लास्टिक को रोकने के अभियानों, स्‍कूली बच्‍चों द्वारा पर्यावरण को बचाने के लिए किए गए विरोध प्रदर्शनों और पर्यावरण के संरक्षण में लगे लोगों के प्रभाव ने नए युग का आरंभ किया है तथा यह दर्शाया है कि “सतत जीवन” के लिए प्रतिबद्ध निजी क्षेत्र को किसी भी व्‍यावसायिक मॉडल का हिस्‍सा होना चाहिए।

एक ठोस आधार के निर्माण के लिए भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में काफी प्रगति हो रही है। उदाहरण के लिए पेरिस समझौते का कार्यान्‍वयन वास्‍तव में वर्ष 2020 में शुरू होना है। जैव विविधता के संरक्षण संबंधी 2020 के बाद के समझौते को भी उसी दौरान स्‍प्‍ष्‍ट किया जाएगा। उसके बाद पारिस्थितिकी के पुनर्निर्माण का नया दशक शुरू होगा, जो 2021-2030 तक चलेगा और यह भूमि हृास निष्‍पक्षता (एलडीएन) दृष्टिकोण को आगे ले जाने का अच्‍छा मौका होगा। वह दृष्टिकोण घरेलू स्‍तर से लेकर वैश्विक स्‍तर तक फैला हुआ है, जिसके जरिए देश नई भूमि के हृास से बचते हैं, खराब हो चुके क्षेत्रों में हानि को कम करते हैं और खराब भूमि को पुन‍र्जीवित करने की कोशिश करते हैं तथा इसमें शामिल कारकों के लिए अनेक लाभ उपलब्‍ध कराते हैं।

अब बदलाव का समय आ गया है। युवाओं में सहनशीलता नहीं है और निजी क्षेत्र कदम नहीं उठा रहा है। तथापि, महत्‍वपूर्ण कार्रवाई करने, जैसे भूमि हृास को निष्‍पक्ष तरीके से हासिल करना और बॉन चैलेंज के लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता अभूतपूर्व है। वैश्विक पर्यावरण में अगुवाई और कार्रवाई के लिए जनता ने इतनी जोर-शोर से पहले कभी मांग नहीं की थी।

भारत सभी क्षेत्रों- नीति, प्रौद्योगिकी, अर्थव्‍यवस्‍था, उपभोक्‍ता आधार, खाद्य उत्‍पादन और सामाजिक कार्यों में दुनिया में सबसे आगे है। यूएनसीसीडी के भावी अध्‍यक्ष के तौर पर तीव्र बदलाव के समय अर्थात 2021 में सीओपी के लिए मुझे उम्‍मीद है कि भारत के लोग बड़े पैमाने पर भूमि के पुन: निर्माण की दिशा में व्‍यापक वैश्विक परिवर्तन की पहल और नेतृत्‍व करके इतिहास में अपना नाम दर्ज कराएंगे।

(लेखक संयुक्‍त राष्‍ट्र के अंडर सेक्रेटरी जनरल और युनाइटेड नेशन्‍स कन्‍वेंशन टू काम्‍बेट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) के एग्जिक्‍यूटिव सेक्रेटरी हैं)

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