आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट के सबक: बाद में फायदेमंद होंगे आज महंगे लग रहे उत्सर्जन कम करने के तरीके

यह रिपोर्ट ऊर्जा, भवन, यातायात, भूमि और औद्योगिक क्षेत्रों में अपनाए जाने वाले उन उपायों की विस्तृत सूची पेश करती है, जिनसे उत्सर्जन में तेजी से और सस्ते तरीके से कटौती की जा सकती है

By Avantika Goswami

On: Tuesday 05 April 2022
 

संयुक्त राष्ट्र की जलवायु-विज्ञान संस्था, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति यानी आईपीसीसी ने चार अप्रैल, 2022 को अपनी छठी आकलन रिपोर्ट की तीसरी किस्त जारी की। इसे आईपीसीसी के वर्किंग ग्रुप-3 ने तैयार किया है, और इसका फोकस ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए, जलवायु परिवर्तन में कमी लाने पर है।
 
इस पूरी रिपोर्ट में दुनिया भर के ताजे वैज्ञानिक शोधों को शामिल किया गया है, जिसके चलते यह हजारों पेज में है। हालांकि ‘समरी ऑफ पॉलिसीमेकर्स’ शीर्षक वाले 63 पेज के अध्याय में इसके मुख्य बिंदुओं को शामिल किया गया है। नीचे इस अध्याय के वह छह बिंदु दिए जा रहे हैं -

1- 2019 में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन, 1990 की तुलना में 54 फीसदी ज्यादा था, हालांकि इसकी गति धीमी हो रही है:
 2019 में, कार्बन डाइऑक्साइड के समकक्ष, वैश्विक शुद्ध मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 59 गीगाटन था, जो 1990 की तुलना में 54 फीसदी अधिक था। शुद्ध उत्सर्जन से आशय, दुनिया के जंगलों और महासागरों द्वारा सोंके गए उत्सर्जन के बाद बचने वाले उत्सर्जन से है।
 
मानवजनित उत्सर्जन से तात्पर्य ऐसे उत्सर्जन से है, जो इंसान के द्वारा की चलाई जाने वाली गतिविधियों से होता है। जैसे ऊर्जा के लिए कोयले को जलाना या वनों को काटना। यह उत्सर्जन वृद्धि मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन के जलने से औद्योगिक क्षेत्र में होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन और उसके  साथ मीथेन के उत्सर्जन से होता है।

हालांकि इसकी सालाना औसत दर जो 2000 से 2009 के बीच 2.1 फीसदी होे र्थी, वह 2010 स 2019 के बीच 1.3 फीसदी रह गई। कम से कम 18 देशों ने अपनी ऊर्जा प्रणाली के डीकार्बोनाइजेशन, ऊर्जा दक्षता उपायों और कम ऊर्जा मांग के कारण लगातार 10 सालों से ज्यादा समय तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया है।

2- कम विकसित देशों ने 2019 में वैश्विक उत्सर्जन में केवल 3.1 फीसदी की भागीदारी की: हालांकि सारी खबरें सकारात्ममक नहीं हैं। कार्बन को लेकर असमानता व्यापक रूप से फैली हुई है। 2019 में कम विकसित देशों की वैश्विक उत्सर्जन में केवल 3.1 फीसदी की हिस्सेदारी थी। 1990-2019 की अवधि में उनका औसत प्रति व्यक्ति उत्सर्जन केवल 1.7 टन कार्बन डाइऑक्साइड के समकक्ष था, जबकि वैश्विक औसत 6.9 टन कार्बन डाइऑक्साइड के समकक्ष था।
 
1850-2019 की अवधि में कम विकसित देशों ने जीवाश्म ईंधन और उद्योग से कुल ऐतिहासिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 0.4 फीसदी से भी कम योगदान दिया। विश्व स्तर पर, दुनिया की 41 प्रतिशत आबादी 2019 में प्रति व्यक्ति 3 टन कार्बन डाइऑक्साइड से कम उत्सर्जन करने वाले देशों में रहती थी।

3- पेरिस समझौते के संकल्प काफी नहीं, 2019 की तुलना में 2030 तक उत्सर्जन में 43 फीसदी की गिरावट लानी होगी:
 पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देशों के संकल्पों को राष्ट्रीय निर्धारित योगदान यानी एनडीसी के तौर पर जाना जाता है। कई देशों ने एनडीसी में पिछले साल अक्टूबर तक जो संकल्प जोड़े हैं, उनके आधार पर आईपासीसी ने पाया है कि इस सदी के अंत तक दुनिया 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगी, जिससे पेरिस समझौता विफल हो जाएगा।
 
इस योजना के विफल होने में कोयला, तेल और गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों का योगदान ज्यादा होगा। सबसे बेहतर परिदृश्य के रूप में, जिसे सी-1 रास्ते के तौर पर जाना जाता है, दुनिया को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान की सीमा का  अतिक्रमण करने से बचना है। इसका मतलब यह है कि अस्थायी तौर पर दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से बढ़ सकता है लेकिन फिर तकनीक की मदद से हमें ऐसे रास्ते निकालने होंगे, जो वातावरण की कार्बन डाइऑक्साइड को सोंक सकें।
 
सी-1 रास्ते पर चलने के लिए वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2019 की तुलना में 2030 तक 43 फीसदी कम करना होगा यानी इसे कार्बन डाइऑक्साइड के समकक्ष 31 जीगाटन तक लाना होगा। इसके लिए 2019 की तुलना में 2050 तक कोयला, तेल और गैस के उपयोग में क्रमशः 95 फीसदी, साठ फीसदी और 45 फीसदी की कमी लानी होगी।

4. पर्याप्त और किफायती समाधान ऊर्जा, भवन और परिवहन सहित सभी क्षेत्रों में मौजूद, साथ व्यक्तिगत व्यवहार में परिवर्तन भी जरूरी:
 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ऊर्जा, भवन, परिवहन, भूमि और अन्य क्षेत्रों में पूरे तंत्र के व्यापक कायाकल्प की जरूरत है और इसमें प्रत्येक क्षेत्र में विकास के कम उत्सर्जन या शून्य कार्बन पथ को अपनाना शामिल होगा। ये समाधान किफायती कीमत पर उपलब्ध भी हैं।
 
कम उत्सर्जन वाली तकनीकों की कीमत 2010 से लगतार कम हो रही है। इकाई की लागत के आधार पर सौर ऊर्जा में 85 फीसद, पवन ऊर्जा में 55 फीसद और लिथियम आयन बैटरी में 85 फीसद की गिरावट आई है। उनका फैलाव या उपयोग, 2010 के बाद से कई गुना बढ़ गया है। जैसे कि सौर ऊर्जा के लिए यह बढ़त 10 गुना है तो इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए 100 गुना।

आईपीसीसी की रिपोर्ट इस बदलाव का श्रेय सार्वजनिक क्षेत्र की कामयाबी को देती है, जिसमें प्रदर्शन और पायलट परियोजनाओं के लिए वित्त-पोषण और तय पैमाने हासिल करने के लिए सब्सिडी जैसे उपाय शामिल हैं।
 
रिपोर्ट में पूरे विश्वास के साथ कहा गया है कि ‘कटौती के कई विकल्प, विशेष रूप से सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, शहरी प्रणालियों का विद्युतीकरण, शहरी हरित बुनियादी ढांचे, ऊर्जा दक्षता, मांग पक्ष प्रबंधन, बेहतर वन और फसल या घास के मैदानों का प्रबंधन और कम खाद्य अपशिष्ट और नुकसान, जैसे उपाय तकनीकी रूप से व्यवहार में लाने के काबिल हैं। ये तेजी से लागत के दायरे में आते जा रहे हैं और आम तौर पर इन्हें लोगों का समर्थन मिल रहा है।  

ऊर्जा क्षेत्र में जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करना, औद्योगिक क्षेत्र में मांग प्रबंधन और ऊर्जा दक्षता और इमारतों के निर्माण में ‘प्रचुरता’ और ‘दक्षता के सिद्धांतों को अपनाना, जैसे उपाय रिपोर्ट की रूपरेखा में सुझाए गए तमाम समाधान में शामिल हैं।

इसमें यह भी कहा गया कि लोगों के बर्ताव में स्वीकार किए जाने वाले बदलावों जैसे कि पौधों पर निर्भर खुराक को बढ़ावा देने, पैदल चलने और साइकिल चलाने जैसी आदतों से भी वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है।

रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि विकसित देशों के लोगों द्वारा ऐसी आदतों को अपनाया जाना ज्यादा जरूरी है।

5. सकल घरेलू उत्पाद पर इसका प्रभाव नाममात्र का  होगा और उत्सर्जन में कटौती के दीर्घकालिक लाभ इसकी आज की लागत से अधिक होंगे:
 आईपीसीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, कम कटौती वाले विकल्पों से भी 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में आधी कमी संभव है। वास्तव में ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में आज जो लागत लग रही हे, वह इसके दीर्घकालिक लाभों की तुलना में कम ही है। रिपोर्ट के मुताबिक, ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का वैश्विक आर्थिक लाभ, अधिकांश रिपोर्टों में इसमें लगने वाली लागत से कम है। डीकार्बोनाइजेशन में निवेश का वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर न्यूनतम प्रभाव पड़ेगा।
 
आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप-3  के सह-अध्यक्ष प्रियदर्शी शुक्ला ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा- ‘यदि हम ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस (3.6 डिग्री फारेनहाइट) या उससे नीचे तक सीमित करने के लिए आवश्यक कार्रवाई करते हैं, तो दुनिया का जीडापी केवल कुछ फीसदी अंक ही कम होगा।’

6. विकासशील देशों में पैसे की कमी पड़ेगी लेकिन विकसित देश कर सकते हैं इसकी भरपाई:
 उत्सर्जन में कटौती करने पर विकासशील देशों में आर्थिक दिक्कतें आ सकती हैं। इन देशों में खेती, कृषि-वानिकी और जमीन के उपयोग से जुड़े अन्य क्षेत्रों में यह अंतर और बड़ा हो जाता है। हालांकि आईपीसीसी के मुताबिक, वैश्विक वित्तीय प्रणाली काफी बड़ी है और इन अंतरालों को पाटने के लिए ‘पर्याप्त वैश्विक पूंजी और तरलता’ मौजूद है।
 
आईपीसीसी की रिपोर्ट, विकासशील देशों के लिए सार्वजनिक अनुदानों को बढ़ाने की सिफारिश करती है। साथ ही साथ 100 बिलियन डालर-एक-वर्ष के लक्ष्य के संदर्भ में विकसित से विकासशील देशों में सार्वजनिक वित्त और सार्वजनिक रूप से जुटाए गए निजी वित्त प्रवाह के स्तर में वृद्धि की जरूरत बताती है। रिपोर्ट के मुताबिक, इसके लिए विकासशील देशों में जोखिम को कम करने और कम लागत पर निजी प्रवाह का लाभ उठाने के लिए सार्वजनिक गारंटी के उपयोग में वृद्धि, स्थानीय पूंजी बाजार के विकास और अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्रक्रियाओं में अधिक विश्वास पैदा करने जैसे उपाय अपनाने होंगे।

‘समरी ऑफ पॉलिसीमेकर्स’ के लिए अनुमोदन प्रक्रिया दो सप्ताह तक चलने वाली अंतर-सरकारी प्रक्रिया है, जिसमें तकनीकी विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई हर लाइन की समीक्षा करने के लिए देशों की सरकारों के प्रतिनिधियों की जरूरत होती है।

अनुमोदन प्रक्रिया ने इस सप्ताह के अंत में अपनी समय सीमा बढ़ा दी थी। दरअसल प्रतिनिधियों ने ‘समरी ऑफ पॉलिसीमेकर्स’ के विभिन्न पहलुओं को चुनौती दी थी, जिससे ऐसा लगता है कि उनके हित, अपने राष्ट्रीय हितों से टकराते हैं।

द गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत खासतौर पर जलवायु-वित्त की मांग कर रहा था, जबकि सऊदी अरब तेल और गैस जैसे जीवाश्म ईंधन के क्षेत्रों में अपनी निरंतर भूमिका देख रहा था।

इस प्रकार ‘समरी ऑफ पॉलिसीमेकर्स’ दस्तावेज का स्वर पूरी तरह से तटस्थ और गैर-राजनीतिक है। वह इन सवालों से टकराने से बच रही है कि इस संकट के लिए कौन जिम्मेदार है। वह इस पर रोशनी नहीं डालती कि उच्चः उत्सर्जन से दुनिया को बचाने के लिए और कौन से धनी वैश्विक हित समूहों को विकासशील देशों की मदद करने में सबसे ज्यादा दिक्कत होगी।
 
देखना यह होगा कि इस लंबी-चौड़ी रिपोर्ट से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने और ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से निपटने में कैसे मदद मिलती है।

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