स्टॉकहोम सिंड्रोम: 50 साल का जश्न मनाते वक्त विचार करना जरूरी

स्टॉकहोम सम्मेलन की 50वीं वर्षगांठ का उत्सव हमारे साझे भविष्य के बारे में होना चाहिए, अतीत के विभाजनों पर नहीं

By Sunita Narain

On: Thursday 02 June 2022
 

मानव-पर्यावरण पर 1972 में स्टॉकहोम में हुए सम्मेलन ने पहली बार स्थिरता पर वैश्विक चेतना की पहल को रेखांकित किया। यह सम्मेलन, विकास और पर्यावरण-प्रबंधन जैसे बड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए दुनिया को एक मंच पर लेकर आया था।

यही वह समय था, जब रैचेल कार्सन ने अपनी पहली किताब ‘साइलेंट स्प्रिंग’ के जरिये प्रकृति में जहर घुलने की कहानी बताई थी। यह वह समय भी था, जब औद्योगीकृत हो चुकी पश्चिमी दुनिया, प्रदूषण और जहरीलेपन से जूझ रही थी।
 
1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन में मौजूद रहने वाले हमारे सहयोगी अनिल अग्रवाल अक्सर याद किया करते थे कि तब स्टॉकहोम की झीलें, रसायनों से इतनी दूषित थीं कि आप पानी में फिल्म का निगेटिव तैयार कर सकते थे।

यह सम्मेलन औद्योगीकरण के नतीजों और इसके हानिकारक प्रभावों से निपटने और उन्हें कम करने के बारे में था।

अब जब हम, उसकी 50वीं वर्षगांठ की ओर बढ़ रहे हैं, हमें अपने देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शब्द याद करने होंगे। मेजबान देश स्वीडन के राष्ट-्र प्रमुख को छोड़कर वह दुनिया की इकलौती प्रधानमंत्री थी, जिन्होंने इस सम्मेलन में भाग लिया और इसकी बैठक में अपने विचार भी रखे। विस्तार से पढ़ें 

सम्मेलन के पूर्ण सत्र में इंदिरा गांधी ने कहा था कि औद्योगिक हो चुकी दुनिया, जिसने अपने अमीरों और उपनिवेश के मजदूरों की बदौलत तरक्की की, उसे बाकी दुनिया को यह उपदेश नहीं देना चाहिए कि जिस तरह से विकासशील चल रहे हैं, उसमें खामियां हैं।
 
उन्होंने कहा था - ‘ हम नहीं चाहते कि आने वाले समय में पर्यावरण को थोड़ा सा भी नुकसान पहुंचाया जाए, फिर भी हम एक पल के लिए भी अपने यहां बड़ी तादाद में मौजूद लोगों की भयंकर गरीबी को नहीं भूल सकते।’ उन्होंने यह तर्क भी दिया था कि गरीबी ही, सबसे बड़ा प्रदूषक है।

इंदिरा गांधी का यह बयान ऐतिहासिक बन गया। हालांकि इसे यह कहकर बड़े पैमाने पर गलत समझा गया कि गरीब देशों को कम नहीं, बल्कि ज्यादा विकास करना है और इसका मतलब यह है कि वे इसके लिए जरूरत से ज्यादा प्रदूषण करेंगे।

जबकि तथ्य यह है कि इंदिराजी ने कभी ऐसा कहा ही नहीं। उन्होंने कहा था कि उनकी गहरी रुचि केवल धरती में ही नहीं, बल्कि उसे ऐसी जगह बनाने में है, जो दुनिया के हर आदमी के रहने के लए उपयुक्त हो। उन्होंने कहा था कि आज केवल धरती ही नहीं, मानव-जाति भी संकट में डाल दी गई है।

उनके मुताबिक, आदमी अगर गरीबी में जीता है, तो उसे कुपोषण और बीमारियों का खतरा रहता है, जब युद्ध चल रहा होता है तो उसे कमजोरी का डर रहता है और जब वह अमीर बन जाता हैै तो उसे अपनी ही लाई हुई संपत्ति से प्रदूषण का खतरा रहता है।

किसी पैंगबर के कहे जैसे इन गंभीर शब्दों की दुनिया ने उपेक्षा की।

1992 में जब ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरियो में अगला सम्मेलन हुआ, तब तक दुनिया का पुनर्गठन हो चुका था और उसके सामने नई चुनौतियां थीं। अब, वैश्विक पर्यावरण की दूसरी चुनौतियां दुनिया के दिमाग में थीं - समृद्ध दुनिया ने ओजोन परत में एक छेद का उभार देखा था, जो इसके एयर-कंडीशनिंग और दूसरी प्रणालियों में उपयोग किए जाने वाले रसायनों के चलते हुआ था।

ओजोन परत में छेद से दुनिया को यह भी महसूस हुआ कि कोई देश अकेले इस समस्या को हल नहीं कर सकता। यह कीटनाशक के जहरीले होने के उस मुद्दे से अलग था जिसे कार्सन ने उजागर किया था। इस मामले में, छेद वातावरण में था और किसी भी देश द्वारा क्लोरोफ्लोरोकार्बन को छोड़ना सभी के हित को खतरे में डाल देता।

यही वह समय भी था, जब आज हमें परेशान करने वाले जलवायु-परिवर्तन के मुद्दे पर समझ बननी शुरू हुई। एक बार फिर, वैश्विक सहयोग की जरूरत थी, क्योंकि उत्सर्जन से लड़ाई भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी, जितना आर्थिक विकास। यह बात दुनिया आज की तरह तब भी जानती थी।

हालांकि दुनिया को एक साथ लाने की बजाय 1992 में हुए संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण और विकास पर हुए सम्मेलन ने एक बार फिर अमीर और गरीब देशों को उनके खेमों में बांट दिया। अमीर देश निरंतरता यानी ‘सस्टेनीबिलिटी’ का उपदेश दे रहे थे, जो इस सम्मेलन में एक नए शब्द की तरह सामने आया था। जबकि गरीब देशों की मांग थी कि उनके लिए विकास जरूरी है।

मैं रियो के सम्मेलन में मौजूद थी और इस छल-कपट की गवाह थी। तथ्य यह है कि भारत समेत बाकी विकासशील दुनिया पर्यावरण के क्षरण के खिलाफ इस लड़ाई में भागीदार बनने के लिए बहुत इच्छुक थी, लेकिन दुनिया को समानता की इस जरूरत को स्वाीकार करने की जरूरत थी। न केवल दो अलग- अलग पीढ़ियों के बीच की समानता का बल्कि एक ही पीढ़ी के बीच की समानता का भी सम्मान किया जाना चाहिए था।

जलवायु-परिवर्तन के मुद्दे पर यह समझ बननी चाहिए थी कि पहले से अमीर देश किस तरह से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन तेजी से कम करके, विकासशील देशों को बिना प्रदूषण फैलाए तरक्की करने का मौका देंगे। जबकि यह अमीर देशों के सरकोर में ही नहीं था।  

विकासशील देशों ने रियों में दलील दी थी कि वे दुनिया को आश्वस्त करना चाहते हैं कि हम प्रदूषण फैलाए बिना बिकास करेंगे लेकिन इसके लिए हमें अमीर देशों से आर्थिक मदद और तकनीक मिलनी चाहिए।  जैव-विविधता और वन-संरक्षण के मामले में भी यही स्थिति थी। विकासशील देशों के ऐसा सोचने के पीछे यह तर्क था कि गरीब समुदायों की जिन जमीनों पर अमीर तैयार हुए हैं, तो अमीरों को संरक्षण के जरिए गरीब देशों को उनका लाभ बांटना चाहिए।

ऐसा नहीं हुआ। इसके बजाय पिछले तीन दशकों में अमीर और छोटे देश आपस की छोटी-छोटी लड़ाईयों में उलझकर वैश्विक सहयोग के विचार को ही हराने में लगे हुए हैं। यही वजह है कि हम आज इस स्थिति में हैं, जिसमें जीवों की कई प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं और जलवायु-परिवर्तन तेजी से हो रहा है।

इसीलिए, जब दुनिया के नेता पांच दशकों के बाद 2022 में फिर से स्टॉकहोम में सम्मेलन में साथ आने जा रहे हैं तो उन्हें पुरानी गलतियां नहीं दोहरानी चाहिए। दुनिया को भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शब्द याद करने चाहिए और उन्हें भविष्य के एजेंडे में शामिल करना चाहिए। स्टॉकहोम सम्मेलन की 50वीं वर्षगांठ का उत्सव हमारे साझे भविष्य के बारे में होना चाहिए, अतीत के विभाजनों पर नहीं।

Subscribe to our daily hindi newsletter