महासागरों पर महासंकट

महासागर ही हैं जो कार्बन डाईऑक्साइड और दूसरे खतरनाक अपशिष्टों को आसानी से अपने अंदर समाहित कर लेते हैं। अब इनका अस्तित्व खतरे में है। 

By Vibha Varshney

On: Saturday 15 July 2017
 
पिछली दो शताब्दियों में 525 अरब टन कचरा महासागरों में गया है। इसके अलावा मानवीय गतिविधियों के कारण निकले कार्बन डाईऑक्साइड का करीब आधा हिस्सा भी समुद्र में समा गया (थिंकस्टॉक फोटो)

महासागरों को बचाने के मकसद से संयुक्त राष्ट्र का पहला सम्मेलन हाल ही में अमेरिका में हुआ। इसमें विभिन्न देशों, संस्थाओं और व्यापार समूहों ने समुद्र को बचाने का संकल्प लिया। लेकिन क्या ये लोग इन पर अडिग रहेंगे? न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय से विभा वार्ष्णेय की रिपोर्ट

ब्रिटेन के प्रतिष्ठित व्यवसायी व वर्जिन ग्रुप के संस्थापक रिचर्ड ब्रैन्सन से जब पूछा गया कि समुद्र को क्यों बचाना चाहिए तो उन्होंने मजाकिया अंदाज में अपने घर के पास स्थित कैरेबियन सागर की पोर्टो रिको खाई का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि इस 8.8 किलोमीटर गहरी खाई में अब भी सोने से भरे स्पैनिश, पुर्तगाली और ब्रिटिश जहाज मौजूद हो सकते हैं। समुद्र को बचाने का दूसरा कारण उन्होंने यहां पाई जाने वाली जैव विविधता को बताया। अब तक इस खाई की 60 मीटर की गहराई तक ही अध्ययन किया गया है।

ब्रैंसन यूएन के समुद्र को बचाने के लिए आयोजित सम्मेलन में 10 लाख से अधिक हस्ताक्षर की गई याचिका लेकर आए थे। इस याचिका के जरिए उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष पीटर थॉमसन से यह आग्रह किया कि 2030 तक कम से कम 30 प्रतिशत महासागरों को बचाया जाए।

यह पहली बार है कि संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देश, शैक्षिक, वैज्ञानिक, सिविल सोसायटी के कार्यकर्ता और व्यवसायिक अधिकारी इसमें मौजूद थे। सबने तरीके सुझाने की पहल की कि समुद्र में पैसों का कारोबार करने के साथ-साथ महासागर को स्वस्थ और जीवंत कैसे रखा जाये।

अमेरिका के पेरिस जलवायु समझौते से बाहर जाने की घोषणा को देखते हुए सम्मेलन की अहमियत और बढ़ गई है। हमारे महासागर धरती के लगभग तीन-चौथाई हिस्से में फैले हैं। प्रशांत, अटलांटिक, भारतीय, आर्कटिक और दक्षिणी महासागर जलवायु और मौसम प्रणालियों को संचालित करते हैं। ये कार्बन उत्सर्जन को अवशोषित करके जलवायु परिवर्तन के प्रतिरोधक के रूप में भी कार्य करते हैं।

पिछली दो शताब्दियों में 525 अरब टन कचरा महासागरों में गया है। इसके अलावा मानवीय गतिविधियों के कारण निकले कार्बन का करीब आधा हिस्सा भी समुद्र में समा गया। अगर समुद्र नहीं होते, तो धरती का औसत तापमान और बढ़ता। दशकों से कचरा, कॉर्बन डाईऑक्‍साइड और अपशिष्ट पदार्थ समुद्र को प्रदूषित कर रहे हैं।

स्वीडन के उप प्रधानमंत्री इसाबेला लॉविन ने कहा, यह सम्मेलन परिवर्तक हो सकता है। वह फिजी के प्रधानमंत्री फ्रैंक बैनीमारमा के साथ इस सम्मेलन की सह-अध्यक्ष हैं। बैनिमारमा जलवायु परिवर्तन पर इस साल के अंत में होने वाले संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी 23) की अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने कहा “जलवायु परिवर्तन इस समय दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। समुद्रों की स्थिति भी बहुत जल्दी खराब हो रही है। इन दोनों को बचाने के लिए समय काफी कम है।”
लॉविन ने कहा कि “अगर अभी कदम नहीं उठाए गए तो हमारे समुद्र जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े शिकार होंगे।”

एक देश की समस्या नहीं

यह सम्मेलन उस वक्त हो रहा है जब भूमि पर उत्पन्न सभी तरह का कचरा महासागरों में जा रहा है। इस सम्मेलन में जारी ग्लोबल इंटीग्रेटेड मरीन आकलन में कहा गया है कि महासागरों में प्रदूषण को समाने की क्षमता पूरी हो गई है। यद्यपि ये रिपोर्ट ये जानकारी प्रदान नहीं करती कि कौन सा सागर साफ है या कौन सा देश सबसे अधिक प्रदूषण फैला रहा है, लेकिन इसमें यह बात साफ है कि महासागर जिस स्तर पर दबाव झेल रहे हैं, उसे दूर करने के लिए वैश्विक स्तर पर तत्काल कार्रवाई की जरूरत है। लेकिन दुर्भाग्य से, हम हमारे चारों ओर फैले महासागरों के बारे में बहुत कम जानते हैं। हिंद महासागर का अध्ययन तो बहुत ही कम किया गया है। इसके पीछे एक कारण हो सकता है कि हिंद महासागर जिन देशों की सीमाओं से जुड़ा है वे बहुत गरीब हैं और शोध के लिए वे बहुत अधिक रुपये खर्च नहीं कर सकते। अब तक, महासागर के अध्ययन के लिए दो अंतरराष्ट्रीय अभियान भेजे जा चुके हैं। एक अभियान 2015 में भेजा गया था। लेकिन इस अभियान का उद्देश्य मुख्य रूप से मछली पकड़ने के लिए नये मैदान की खोज तक ही सीमित है।



उद्योग और देश मौके तलाशें

समुद्र से हमें बहुत से आर्थिक लाभ मिलते हैं मसलन, मछलियां, पर्यटन, खनिज, दवाइयां, नवीन ऊर्जा, व्यापार और यातायात। अनुमान के मुताबिक, समुद्र से हासिल होने वाले समस्त उत्पादों की कीमत 2.5 ट्रिलियन डालर है। इन सब चीजों का लाभ लेने के दौरान समुद्रों को बचाने के लिए सतत विकास लक्ष्य14 (एसडीजी 14) तय किया गया है।  एसडीजी 14 में दस लक्ष्य हैं जो समुद्र में पाई जाने वाली जैव विविधता और संसाधनों को बचाए रखेंगे। इनमें से कुछ लक्ष्य ऐसे हैं जो 2020 तक हमें हासिल करने हैं। सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने नीति, शोध, व्यापार, मानवाधिकार के बारे में भी बात की।

सम्मेलन में आए विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने पांच दिन के सम्मेलन के अंत तक महासागरों को स्वस्थ और सुरक्षित रखने के लिए 1328 स्वैच्छिक संकल्प लिए। व्यापारी वर्ग ने इसमें ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया। उनके केवल छह प्रतिशत संकल्प थे। यूएन ग्लोबल कॉम्पैक्ट (व्यापार समूहों के साथ काम करने वाली यूएन की संस्था) की मुख्य कार्यक्रम अधिकारी लीला करबासी ने कहा कि कंपनियों से एसडीजी 14 पर स्वैच्छिक संकल्प लेना काफी कठिन रहा।

भारत ने पुराने वादे ही सम्मेलन में दोहराये
 
एसडीजी के प्रति भारत का रवैया चिंताजनक है

आईआईएसडी

विश्व महासागर दिवस पर भारत ने भी सम्मेलन में स्वेच्छा से 17 वादे किए। इन वादों में आर्कटिक महासागर में वैश्विक शोध में योगदान देने से लेकर भारतीय मछुआरों की सहायता करना शामिल है। भारत ने यह भी संकल्प लिया कि वह छोटे द्वीपों व विकासशील राज्यों (एसआईडीएस) की मदद भी करेगा।
लेकिन समस्या यह है कि किये गये इन वादों में कुछ नया नहीं है। उदाहरण के लिए, भारत ने 2007 में अपने आर्कटिक अनुसंधान कार्यक्रम की शुरुआत पहले ही कर दी है। इसी तरह, देश पहले से ही मॉरीशस और सेशेल्स को हाइड्रोग्राफी में सहायता कर रहा है। 7 मार्च, 2017 को जकार्ता में हुए शिखर सम्मेलन के दौरान भारत हिंद महासागर रिम एसोसिएशन (आईओरा) के सभी सदस्य राज्यों को समर्थन दे चुका है।
भारत ने उन परियोजनाओं पर भी वादे किये हैं जिनका विरोध देश में हो रहा है। इनमें से एक है राष्ट्रीय समुद्री मत्स्यिकी नीति 2017। इस नीति के तहत छोटे मछुआरों की सहायता का उल्लेख किया गया है। 28 अप्रैल को केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित नीति में, मछली पकड़ने में निजी निवेश की सिफारिश की गई थी। छोटे मछुआरों को इससे नुकसान पहुंच सकता है। गैर-लाभकारी संस्था इनफोर्सिएबल ओशियन के सिद्धार्थ चक्रवर्ती कहते हैं, “यह नीति बड़े पैमाने पर निगमों द्वारा महासागर हथियाने को बढ़ावा देती है। यह नीति आर्थिक लाभ को अधिक महत्व दे रही है सामाजिक न्याय को नहीं।” इन वादों में सागरमाला परियोजना भी शामिल है, जिसका लक्ष्य 20 तटीय जिलों में 20,000 छोटे मछुआरों को 2.5 मिलियन अमेरिकन डॉलर देकर लाभान्वित भी करना है। परंतु यह परियोजना, मूल रूप से समुद्र तटों के साथ बड़े बंदरगाहों के निर्माण को बढ़ावा देती है।
 एसडीजी 14 के लक्ष्यों को पूरा करने के प्रति भारत का प्रदर्शन चिंताजनक है। 8 मार्च, 2017 को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) ने सशक्त विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सार्वजनिक मसौदा तैयार किया। इस मसौदे में एसडीजी 14 के तहत 10 में से पांच लक्ष्यों का आकलन करने के तरीके नहीं सुझाये गये हैं।
गैर सरकारी संस्था रिचर्स एंड इन्फर्मेशन सिस्टम फॉर डेवलपिंग कंट्रीज के एसके मोहंती का कहना है कि इससे क्रियान्वयन में देरी होगी।
एक अन्य समस्या यह भी है कि भारत को उसके महासागरों के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। भारत रिमोट सेंसिंग का उपयोग करके अपने अधिकांश समुद्री आंकड़ों को एकत्र करता है, जिसके जरिये केवल ऊपरी परतों की ही जानकारी मिलती है। पृथ्वी विज्ञान केंद्र मंत्रालय लगभग दो दशकों से तटीय जल की प्रकृति का मूल्यांकन करने के लिए एक कार्यक्रम चला रहा है, लेकिन यह आंकड़े 20 स्थानों और 25 मापदंडों तक ही सीमित है। इसके अलावा कुछ जरूरी मानदंडों जैसे-समुद्री अम्लीकरण, समुद्री कचरा और सूक्ष्म प्लास्टिक के आंकड़ों नहीं हैं।
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि देश का वर्तमान रुख केवल बंदरगाहों के विकास को ही बढ़ावा देता है, जो देश के 3,288 समुद्री मछली पकड़ने वाले गांवों के लिए बुरी खबर है। लगभग 40 लाख लोग समुद्री मछली पकड़ने और इससे संबंधित आजीविका चलाने वाले व्यवसायों पर निर्भर हैं। फ्रैंड्स ऑफ मरीन लाइफ, केरल की एक गैर लाभकारी संस्था है। इसके संस्थापक सचिव रॉबर्ट पानीपिल्ला का कहना है, “सरकार उन इलाकों में बंदरगाहों को विकसित करने की योजना बना रही है जो स्थानीय समुदायों द्वारा मछली पकड़ने के लिए उपयोग किये जाते हैं। इस कदम से न केवल स्थानीय समुदायों की आजीविका प्रभावित होगी, बल्कि यह महासागरों के लिए भी हानिकारक होगा”। उन्होंने कहा, “हालांकि, समुद्री जैव विविधता के नुकसान के लिए आमतौर पर पारंपरिक मछुआरों को दोषी ठहराया जाता है, जबकि मानवों द्वारा किये जाने वाले हस्तक्षेप जैसे- बंदरगाहों का निर्माण, रेत का खनन, पानी का रुख मोड़ने वाला निर्माण कार्य और समुद्र के अंदर की जाने वाली गतिविधियों का असर अधिक पड़ता है।’’
चक्रवर्ती कहते हैं, कि जिस तरह से भारत एसडीजी 14 हासिल करने की कोशिश कर रहा है, वह पूरी तरह से दोषपूर्ण है। एसडीजी 14 पर नीति आयोग संयुक्त राष्ट्र के लक्ष्यों को लागू करने के लिए जिम्मेदार है। आयोग की रिपोर्ट बताती है कि नेशनल प्लान फॉर कंजरवेशन ऑफ एक्वेटिक इकोसिस्टम्स और सागरमाला प्रोजेक्ट के द्वारा एसडीजी 14 को हासिल किया जाएगा। लेकिन यह नेशनल प्लान झीलों और दलदली जमीन के संरक्षण के बारे में है न कि समुद्र के। इसी तरह सागरमाला प्रोजेक्ट बंदरगाहों को ही बढ़ावे की बात करता है।
केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सलाहकार के. सोमसुंदर एक और मुद्दे की बात कहते हैं। उनके मुताबिक “एसडीजी 14 के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आपसी सहयोग की जरूरत है, क्योंकि इसमें निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों की दर्जनों एजेंसियां शामिल हैं। इस लक्ष्य के लिए कम से कम तीन केन्द्रीय मंत्रालय- कृषि, पृथ्वी विज्ञान और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन शामिल हैं। इसकी वजह से समन्वय बनाना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के तौर पर केंद्रीय कृषि मंत्रालय मछली पकड़ने को बढ़ावा देता है, वहीं केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय इसके संरक्षण की बात करता है।”
तो भारत के लिए इसका क्या मतलब है? विशेषज्ञों का कहना है कि अभी भारत एसडीजी 14 को हासिल करने के लिए तैयार नहीं है। वह प्रयास करे तो भविष्य में तैयार हो सकता है। मोहंती कहते हैं कि एसडीजी 10 लागू करने के लिए एक से दस के बीच अंक देने हों तो भारत को सात अंक दिए जा सकते हैं। ये लक्ष्य अहम हैं क्योंकि देश की समुद्री सीमा 8,118 किमी़  है।  

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