मानवजनित कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन से बेहताशा बढ़ रहा है तापमान: अध्ययन

अध्ययन में सेनोजोइक युग के दौरान पिछले 6.6 करोड़ वर्षों के जलवायु के रिकॉर्ड की जांच से पता लगा कि इस दौरान जलवायु में कई उतार-चढ़ाव आए और तापमान बढ़ना शुरू हुआ।

By Dayanidhi

On: Thursday 12 August 2021
 
फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स

दुनिया भर में तापमान बढ़ने के चलते लंबे समय तक सूखा पड़ना, रिकॉर्ड तोड़ गर्मी, जंगलों की आग और हाल के वर्षों में भीषण तूफान आने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। बढ़ते तापमान के लिए काफी हद तक मानवजनित कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन जिम्मेवार हैं। पृथ्वी के प्राचीन इतिहास में चरम जलवायु की घटनाओं पर मेसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) द्वारा किए गए अध्ययन में कहा गया है कि आज धरती अधिक अस्थिर हो सकती है, क्योंकि यह गर्म हो रही है।

यह अध्ययन सेनोजोइक युग के दौरान पिछले 6.6 करोड़ वर्षों के पेलियोक्लाइमेट रिकॉर्ड की जांच करता है। यह युग डायनासोर के विलुप्त होने के तुरंत बाद शुरू हुआ था। वैज्ञानिकों ने पाया कि इस अवधि के दौरान, पृथ्वी की जलवायु में उतार-चढ़ाव ने आश्चर्यजनक तरीके से गर्मी का अहसास किया था। दूसरे शब्दों में, ठंडे की घटनाओं की तुलना में गर्मी की घटनाएं कहीं अधिक थीं- लंबे समय तक ग्लोबल वार्मिंग की अवधि, लाखों वर्षों तक चली। ठंडे की घटनाओं की तुलना में तापमान में अधिक बदलाव हुए और गर्मी की घटनाएं अधिक चरम होती गईं।  यहां बताते चलें कि पेलियोक्लाइमेट का आशय अतीत में एक विशेष समय पर भूगर्भीय जलवायु से है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इस गर्मी के पूर्वाग्रह के लिए एक संभावित स्पष्टीकरण अधिक प्रभावी हो सकती है। जिससे मामूली गर्मी उदाहरण के लिए ज्वालामुखी से कार्बन डाइऑक्साइड का वायुमंडल में निकलना स्वाभाविक रूप से कुछ जैविक और रासायनिक प्रक्रियाओं को गति देता है जो गर्मी के इन उतार-चढ़ावों को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं।  

दिलचस्प बात यह है कि टीम ने देखा कि यह गर्मी की पूर्वाग्रह लगभग 50 लाख वर्ष पहले गायब हो गई थी, उस समय के आसपास जब उत्तरी गोलार्ध में बर्फ की चादरें बनने लगी थीं। यह स्पष्ट नहीं है कि जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी की प्रतिक्रिया पर बर्फ का क्या प्रभाव पड़ा। लेकिन जैसा कि आज की आर्कटिक में बर्फ लगातार घट रही है, नए अध्ययन से पता चलता है कि गर्मी का बहुत बड़ा प्रभाव फिर से वापस आ सकता है। मानवजनित ग्लोबल वार्मिंग का एक और प्रभाव बड़ सकता है।

एमआईटी के मुख्य अध्ययनकर्ता कॉन्स्टेंटिन अर्नशेड ने कहा कि उत्तरी गोलार्ध की बर्फ की चादरें सिकुड़ रही हैं और संभावित रूप से मानवजनित कारणों की वजह से आने वाले समय में ये गायब हो सकती हैं। उन्होंने कहा कि हमारे शोध से पता चलता है कि यह भूगर्भीय अतीत में देखी गई चरम, दीर्घकालिक ग्लोबल वार्मिंग की घटनाएं पृथ्वी की जलवायु को अधिक संवेदनशील बना सकती है।

विश्लेषण के लिए टीम ने तलछट (सेडीमेंट) के बड़े डेटाबेस की मदद ली, जिसमें गहरे समुद्र में बेंटिक फोरामिनिफेरा- एकल कोशिका वाले जीव शामिल हैं। जो कि लाखों वर्षों से वहां रहते हैं और जिनके कठोर आवरण तलछट में संरक्षित हैं। जैसे-जैसे जीव बढ़ रहे होते हैं, इन आवणों की संरचना समुद्र के तापमान से प्रभावित होती है। इसलिए आवरण को पृथ्वी के प्राचीन तापमान के लिए एक विश्वसनीय सबूत के तौर पर देखा जाता है।

दशकों से, वैज्ञानिकों ने दुनिया भर से एकत्र किए गए इन आवरणों की संरचना का विश्लेषण किया और विभिन्न समय अवधि के लिए इनकी तिथि निर्धारित की है। ताकि यह पता लगाया जा सके कि पृथ्वी के तापमान में लाखों वर्षों में कैसे उतार-चढ़ाव आया था।

अध्ययनकर्ता अर्नशेड कहते हैं कि जलवायु की घटनाओं का अध्ययन करने के लिए इन आंकड़ों का उपयोग करते समय, अधिकांश अध्ययनों ने तापमान में व्यक्तिगत बड़े बदलाव पर गौर किया। यह आमतौर पर कुछ डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से ही बदल गया था। अध्ययनकर्ता ने कहा हमने बड़े आंकड़ों को चुनने के बजाय समग्र आंकड़ों को देखने और इसमें शामिल सभी उतार-चढ़ाव पर विचार करने की कोशिश की।

टीम ने पहले आंकड़ों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया और देखा कि, पिछले 6.6 करोड़ वर्षों में, वैश्विक तापमान में उतार-चढ़ाव का वितरण एक मानक वक्र जैसा नहीं था। जिसमें सभी भागों में अत्यधिक गर्म और अत्यधिक ठंड के उतार-चढ़ाव के आसार हो सकते हैं। इसके बजाय, वक्र काफ़ी एकतरफा था, ठंड की घटनाओं की तुलना में अधिक गर्म की ओर तिरछा था। वक्र ने एक अंतिम लंबे भाग को भी प्रदर्शित किया, जो सबसे चरम ठंड की घटनाओं की तुलना में अधिक चरम गर्मी, या उच्च तापमान वाली घटनाओं को दिखाती है।

टीम ने कहा कि क्या यह गर्मी की पूर्वाग्रह जलवायु-कार्बन चक्र में बहुत सारी चीजों का परिणाम हो सकता है। वैज्ञानिकों ने लंबे समय से यह समझा है कि उच्च तापमान, एक बिंदु तक, जैविक और रासायनिक प्रक्रियाओं को गति देता है। क्योंकि कार्बन चक्र, जो दीर्घकालिक जलवायु उतार-चढ़ाव का एक प्रमुख चालक है, स्वयं ऐसी प्रक्रियाओं से बना है, तापमान में वृद्धि से बड़े उतार-चढ़ाव हो सकते हैं, जिससे प्रणाली अत्यधिक गर्म होने की घटनाओं की ओर आगे बढ़ती है।

अंत में अध्ययकर्ता ने पाया कि आंकड़ों और गर्मी की ओर देखे गए पूर्वाग्रह के सिद्धांत द्वारा समझाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, यह बहुत संभावना है कि, पिछले 6.6 करोड़ वर्षों में, मामूली गर्मी की अवधि के बहुत सारे प्रभावों से औसतन तापमान बढ़ गया था। जैसे कि जैविक और रासायनिक प्रक्रियाओं की प्रतिक्रिया जिसने धरती को और गर्म कर दिया है।  

साइंस एडवांस में प्रकाशित अध्ययन के हिस्से के रूप में, शोधकर्ताओं ने पिछली तापमान बढ़ने की घटनाओं और पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन के बीच के संबंध को भी देखा। हजारों वर्षों में, सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा नियमित रूप से कमोबेश अण्डाकार हो जाती है। लेकिन वैज्ञानिकों ने सोचा है कि क्यों कई पिछली तापमान बढ़ने की घटनाएं इन परिवर्तनों के साथ मेल खाती हैं। क्यों इन घटनाओं में पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन की तुलना में बाहरी तापमान में बढ़ोतरी हुई।

इसलिए अध्ययनकर्ता अर्नशेड और रोथमैन ने पृथ्वी के कक्षीय परिवर्तनों को गुणक मॉडल में शामिल किया। पृथ्वी के तापमान में होने वाले परिवर्तनों के विश्लेषण को भी शामिल किया गया। उन्होंने पाया कि गुणक प्रभाव अनुमानित रूप से बढ़ सकता है, औसतन पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन के कारण तापमान में मामूली बढ़ोतरी हो जाती है।

रोथमैन कहते हैं कि जलवायु गर्म होती है और कक्षीय परिवर्तनों के साथ समकालिक रूप से ठंडी होती है, लेकिन कक्षीय चक्र स्वयं जलवायु में केवल मामूली परिवर्तन का अनुमान लगाते हैं। लेकिन अगर हम एक गुणक मॉडल पर विचार करते हैं, तो इस गुणक प्रभाव के साथ जोड़ी गई मामूली गर्मी से चरम घटनाएं तक बढ़ सकती हैं तब पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन होता है। अर्नशेड कहते हैं कि मनुष्य एक नए तरीके से प्रणाली को मजबूर कर रहे हैं। यह अध्ययन दिखा रहा है कि, जब हम तापमान बढ़ाते हैं, तो हम प्रकृति को नष्ट कर रहे होते हैं।

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