जलवायु परिवर्तन के चलते भारतीय मानसून हो रहा है अधिक अस्थिर, इस साल हो सकती है भारी बारिश

शोधकर्ताओं ने बताया है कि तापमान के हर डिग्री सेल्सियस बढ़ने से मानसूनी बारिश में लगभग 5 फीसदी की वृद्धि होगी।

By Dayanidhi

On: Thursday 15 April 2021
 
Photo : Wikimedia Commons

भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून दुनिया भर की जलवायु प्रणाली का एक अभिन्न अंग है। मानसूनी बारिश भारत की कृषि में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन  जलवायु परिवर्तन के चलते भारत के मानसून में गड़बड़ी पैदा हो रही है, वैज्ञानिकों ने कहा कि इसकी वजह से भोजन, खेती और अर्थव्यवस्था प्रभावित होने की आशंका है।   

दुनिया भर के 30 से अधिक जलवायु मॉडल की तुलना करने के बाद एक नए विश्लेषण में अनुमान लगाया गया है कि भारत में मानसून के दौरान भारी बारिश हो सकती है। भारत में मानसून का मौसम हर साल लगभग जून से सितंबर तक होता है।   

पॉट्सडैम-इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पीआईके) के शोधकर्ताओं को इस बात के पुख्ता सबूत मिले है कि तापमान के हर डिग्री सेल्सियस बढ़ने से मानसून की बारिश में लगभग पांच प्रतिशत की वृद्धि होगी।

लुडविग मैक्सिमिलियन यूनिवर्सिटी के मुख्य शोधकर्ताओं ने बताया कि अध्ययन में न केवल पिछले शोध में देखे गए रुझानों की पुष्टि की गई, बल्कि यह भी पाया गया कि ग्लोबल वार्मिंग भारत में मानसून की बारिश को पहले से भी ज्यादा बढ़ा रही है।  

शोधकर्ताओं ने बताया कि यह 21वीं सदी के मानसून में बारिश काफी हावी होगी। यह इस बात की आशंका को जन्म देती है कि धान सहित प्रमुख महत्वपूर्ण फसलें पानी में डूब कर बर्बाद हो सकती हैं। अर्थ सिस्टम डायनामिक्स जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार तापमान बढ़ने के कारण मानसून के अधिक अनिश्चित होने के आसार दिख रहे हैं।  

कोलंबिया विश्वविद्यालय के एंडर्स लीवरमैन ने कहा भारतीय समाज मॉनसून से बहुत प्रभावित होता है, ऐसे में बदलता मानसूनी मौसम कृषि के लिए अनेक समस्याएं पैदा करता ही है, सार्वजनिक जीवन भी इससे अछूता नहीं रहता।

अगर पानी से सड़कें भर जाती हैं, ट्रेन की पटरियों पर पानी भर जाता है तो यह आर्थिक तौर पर नुकसान पहुंचाता है। उन्होंने कहा कि साल-दर-साल होने वाला बदलाव भी बारिश के मौसम की बढ़ती ताकत तथा इसका सामना करने की रणनीतियों को और कठिन बना देता है। भारतीय मानसून की बारिश में अधिक गड़बड़ी से निजात पाना बहुत कठिन होता जाएगा।

इस शोध में 20वीं शताब्दी के मध्य से मानसून में हो रहे बदलावों पर नजर रखी गई, जब वर्षों में प्राकृतिक तौर पर धीरे-धीरे होने वाले बदलाव अचानक मानवजनित बदलावों के कारण तेजी से होते हैं तो इससे काफी नुकसान होने की आशंका होती है।

शुरू में एयरोसोल से होने वाला वायु प्रदूषण जो काफी हद तक सूर्य के प्रकाश को प्रतिबिंबित करता है और तापमान को कम करने का काम करता है जिससे मानसूनी वर्षा कम हो जाती है। लेकिन फिर 1980 के दशक से, ग्रीनहाउस गैसों के गर्म होने के प्रभाव हावी होने लगे, जिससे बारिश और अधिक अस्थिर हो गई।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध की तुलना में आज पृथ्वी के सतह का औसत तापमान, औसत से 1.1 डिग्री सेल्सियस अधिक हो गया है, पिछली आधी शताब्दी में तापमान में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। 2015 के पेरिस समझौते ने दुनिया के देशों को तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस, यहां तक कि 1.5 डिग्री सेल्सियस बनाए रखने की बात कही थी, हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि यह लक्ष्य तेजी से पहुंच से बाहर हो रहा है।

चैरिटी क्रिश्चियन एड के अनुसार पिछले साल दुनिया में पांच सबसे महंगी चरम मौसम की घटनाओं में से एक एशिया की मानसून में असामान्य रूप से होने वाली बारिश से संबंधित थी। हर साल चीन और भारत में मानसून के मौसम के दौरान भयंकर बाढ़ आती है, जो हर साल बढ़ती जा रही है, असामान्य मात्रा में वर्षा होती है। जलवायु का वर्षा पर किस तरह प्रभाव पड़ेगा यह अनुमानों के अनुरूप होते हैं।

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