क्या ग्लेशियरों के गायब होने की आशंका भ्रामक है? क्या कहता कैटो इंस्टीट्यूट का अध्ययन

अध्ययन में कहा गया है कि गंगोत्री ग्लेशियर का पीछे हटना हाल के दशकों में घटकर 10 मीटर प्रति वर्ष हो गया है

By Dayanidhi

On: Thursday 05 May 2022
 
फोटो : विकिमीडिया कॉमन्स, गंगोत्री ग्लेशियर

अमेरिका के कैटो इंस्टीट्यूट द्वारा किए गए एक विश्लेषण के मुताबिक, बढ़ते तापमान से हिमालय के ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने वाली बात निराधार है। भारत के लिए हिमालयी ग्लेशियर महत्वपूर्ण है, इसकी प्रमुख नदी घाटियां इन पर निर्भर रहती हैं।

यह अध्ययन स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर और विजय के. रैना की अगुवाई में किया गया है। अध्ययन में कहा गया है कि नदी के प्रवाह को लेकर ग्लेशियरों के पिघलने को अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है।

रैना भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के महानिदेशक रह चुके हैं, उन्होंने 2009 में हिमालयन ग्लेशियर: ए स्टेट-ऑफ-आर्ट रिव्यू ऑफ़ ग्लेशियल स्टडीज़, ग्लेशियल रिट्रीट एंड क्लाइमेट चेंज नामक एक रिपोर्ट लिखी थी।

कैटो इंस्टीट्यूट का नया पेपर बताता है कि रैना की रिपोर्ट में ग्लेशियरों के बनने और उनके पिघलने पर प्रकाश डाला गया है। 20वीं शताब्दी में 1950 के दशक के अंत तक ग्लेशियरों के औसत वार्षिक पीछे हटने की दर लगभग 5 मीटर थी, लेकिन फिर यह 1980 के दशक के अंत तक तेजी से बढ़ी, गंगोत्री ग्लेशियर के लिए कुछ वर्षों में 30 मीटर तक पहुंच गई। कुछ छोटे ग्लेशियरों के लिए यह और भी अधिक देखा गया। 1990 के दशक के बाद से ग्लेशियरों का पीछे हटना कम हो गया, यह वह अवधि है जब वैश्विक तापमान बढ़ रहा था

रैना की रिपोर्ट में यह भी तर्क दिया गया है कि ग्लेशियरों के पिघलने का मुख्य कारण स्थानीय घटनाओं का होना है। इसने एक विशेष ग्लेशियर को दो भुजाओं वाला बताया, जिनमें से एक आगे बढ़ने पर भी पीछे हट रहा था। रिपोर्ट में कहा गया कि स्पष्ट रूप से यह बहुत स्थानीय माइक्रॉक्लाइमेट प्रभावों के कारण ऐसा हुआ है, वैश्विक प्रभावों का कोई लेना-देना नहीं है।

इस बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने जिन उदाहरणों का हवाला दिया, उनमें से एक सियाचिन ग्लेशियर एक था, जो हिमालय में सबसे बड़ा और 70 किमी से अधिक लंबा था। यह 1862 और 1909 के बीच 700 मीटर आगे बढ़ा, 1929 और 1958 के बीच 400 मीटर पीछे हट गया और फिर अगले 50 वर्षों में शायद ही पीछे हटा हो।

रैना द्वारा किए गए अध्ययन में 2007-2009 तक गंगोत्री ग्लेशियर के हर साल पीछे हटने का अनुमान लगया। कैटो इंस्टीट्यूट के अध्ययनकर्ता ध्रुव सेन सिंह और सहयोगियों ने भारत के गंगोत्री ग्लेशियर के पीछे हटने और संबंधित ढांचे आदि के पैटर्न को लेकर 2017 के एक अध्ययन को भी संदर्भ लिया है। जिसमें 2015 तक पीछे हटने के आंकड़ों को आगे बढ़ाया और विभिन्न शोधकर्ताओं द्वारा विभिन्न समय अवधि में संकलित अनुमानों को सूचीबद्ध किया गया।

गंगोत्री ग्लेशियर का पीछे हटना, जो गंगा का स्रोत है, 1935 और 1956 के बीच प्रति वर्ष 10 मीटर से थोड़ा अधिक हटा जो कि अपेक्षाकृत मामूली था, जैसा कि 2017 के अध्ययन में उल्लेख किया गया है। इसके बाद इसमें तेजी आई, एक अध्ययन ने 1962 से 1982 के दौरान प्रति वर्ष औसतन 40 मीटर का अनुमान लगाया, जिससे "खतरनाक अटकलें लगना शुरू हो गईं।

सिंह और उनके सहयोगियों का अनुमान है कि 1976 से 1990 के दौरान ग्लेशियर के पीछे हटने की दर औसतन 17.44 मीटर प्रति वर्ष था। फिर 1990 से 2001 के दौरान यह घटकर 12.55 मीटर प्रति वर्ष हो गया था और फिर यह 2001 और 2015 के बीच प्रति वर्ष 10 मीटर तक कम हो गया।

अय्यर और रैना का अध्ययन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के आंकड़ों पर आधारित है। इसरो हिमालय के ग्लेशियरों पर कुछ दशकों से  उपग्रह-आधारित आंकड़ों को एकत्र कर रहा है, जिसमें सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटियों को कवर किया गया है।

शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक 2004 और 2011 के बीच हिमालयी क्षेत्र में 75,779 वर्ग किमी हिमाच्छादित क्षेत्र में फैले 34,919 ग्लेशियरों की पहचान की गई। इसमें  2000 से 2001 और 2010 से 2011 तक 2,018 ग्लेशियरों के आगे बढ़ने और पीछे हटने की निगरानी भी की गई।  इसरो के आंकड़ों से यह पता चलता है कि ग्लेशियरों के पिघलने की मात्रा में ऊंचाई एक महत्वपूर्ण कारक है।

कैटो  इंस्टीट्यूट के मुताबिक कम ऊंचाई पर ग्लेशियर अपेक्षाकृत उच्च वायुमंडलीय तापमान का सामना करते हैं और इसलिए तेजी से पिघलते हैं, जबकि बहुत अधिक ऊंचाई वाले ठंडे होते हैं और धीरे-धीरे पिघलते हैं, या कुछ मामलों में आगे बढ़ते हैं।

कैटो का अध्ययन इस बात की भी तस्दीक करता है कि पहले के अध्ययनों के साथ-साथ रैना और इसरो के अध्ययन में बर्फ के पिघलने और ग्लेशियरों  के पिघलने के प्रभाव के बीच अंतर नहीं कर सकते हैं। 

पहला अध्ययन अमेरिका में कोलोराडो विश्वविद्यालय के एक ग्लेशियर विशेषज्ञ रिचर्ड एल आर्मस्ट्रांग की अगुवाई में किया गया था। इस अध्ययन में अंतर ग्लेशियरों में अंतर बताने की तकनीक का उपयोग किया गया था।

आर्मस्ट्रांग के अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि गंगा बेसिन के ग्लेशियरों के पिघलने की दर 1 प्रतिशत से कम है, जबकि भूमि पर बर्फ 5 प्रतिशत, और बारिश 94 प्रतिशत होती। सिंधु बेसिन के ग्लेशियर 1 प्रतिशत पिघलता है, बर्फ 5 प्रतिशत है, भूमि पर बर्फ 44 प्रतिशत है और वर्षा 50 प्रतिशत होती है। ब्रह्मपुत्र बेसिन में ग्लेशियरों का योगदान 1 प्रतिशत से कम है, बर्फ 4 प्रतिशत है, भूमि पर बर्फ 30 प्रतिशत है और वर्षा 65 प्रतिशत होती है।

अध्ययन के निष्कर्ष में इस बात पर जोर दिया गया है कि ग्लेशियरों को लेकर खतरनाक अटकलें लगाना नीतियों को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। यह तनाव और क्षेत्र के देशों के बीच सैन्य संघर्ष के जोखिम को बढ़ा सकता है, जिनके बीच नदी के पानी के बंटवारे को लेकर बड़े विवाद चल रहे हैं। यह कृषि अनुसंधान में प्राथमिकताओं को प्रभावित कर सकता है। यह हिमालय में बांधों और सड़कों के निर्माण के खतरों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर सकता है।

Subscribe to our daily hindi newsletter