खाद्य सुरक्षा के लिए बदलते मौसम के अनुसार फसलों की नई किस्में जरूरी : अध्ययन

तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे तक सीमित रखने पर सदी के अंत तक दुनिया भर में होने वाली पैदावार में लगभग 20 फीसदी की वृद्धि हो सकती हैं।

By Dayanidhi

On: Thursday 20 May 2021
 
Photo : Wikimedia Commons, Paddy Field

दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के चलते कृषि पर सबसे अधिक असर पड़ा है, बढ़ता तापमान उपज में कमी का प्रमुख कारण है। इसलिए, भविष्य में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कृषि क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन के अनुसार ढालने की बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।

अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक नए अध्ययन के अनुसार, स्थानीय रूप से अनुकूलित किस्मों का उपयोग इस लक्ष्य को हासिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इस अध्ययन का नेतृत्व म्यूनिख के लुडविग मैक्सिमिलियन विश्वविद्यालय (एलएमयू) के भूगोलवेत्ता डॉ. फ्लोरियन जाबेल ने किया है।

चार अलग-अलग जलवायु परिदृश्यों के लिए, उन्होंने और उनके सहयोगियों ने मक्का, चावल, सोया और गेहूं के वैश्विक उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का पता लगाया। उन्होंने इस बात की जांच की, कि स्थानीय रूप से अनुकूलित खेती फसल की पैदावार को कैसे प्रभावित करेगी। इस प्रकार, परिदृश्य विभिन्न सामाजिक-आर्थिक आधार के साथ-साथ वैश्विक औसत तापमान में 1.4 से 3.9 डिग्री सेल्सियस के बीच बढ़ने को भी शामिल किया गया है।

अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि हमारे परिणाम बताते हैं कि, कम से कम सीमित तापमान के तहत, हम कृषि क्षेत्र को आम तौर पर जलवायु परिवर्तन के अनुकूल कर सकते हैं। यहां तक कि सदी के अंत तक दुनिया भर में होने वाली पैदावार में लगभग 20 फीसदी की वृद्धि भी कर सकते हैं।

जाबेल कहते हैं कि इस तरह, प्रकाश संश्लेषण की क्षमता पर पड़ने वाले अच्छे प्रभाव के चलते, वायुमंडलीय सीओ 2 की वृद्धि आंशिक रूप से कुछ फसलों के लिए उपज में वृद्धि करने वाली होती है।

तापमान के अत्यधिक बढ़ने से अनुकूलन अथवा मौसम के अनुसार ढलना कठिन हो सकता है

यदि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे तक सीमित किया जाए, जैसा कि पेरिस समझौते में उल्लेखित किया गया है, तो सिमुलेशन (मॉडल) सुझाव देते हैं कि दुनिया भर में फसल क्षेत्र का 85 फीसदी पहले से उपलब्ध कृषि क्षेत्र में बेहतर तरीके से खेती की जा सकती है। तापमान जितना अधिक होगा, फसलों की उतनी ही अधिक नई किस्मों की आवश्यकता होगी और स्थानीय आधार पर इनके ढालने या अनुकूलित करने का खतरा भी उतना ही अधिक होगा।

सबसे खराब स्थिति में, दुनिया भर के कृषि भूमि के लगभग 40 फीसदी को नई किस्मों से खेती करने की आवश्यकता पड़ सकती है, जिनमें से कुछ को ऐसे लक्षणों की आवश्यकता होगी जो वर्तमान में मौजूद नहीं हैं। इस प्रकार, एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि यह विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण उत्पादन क्षेत्रों को भी प्रभावित करता है, जैसे कि उत्तरी अमेरिका का कॉर्न बेल्ट, मक्का उत्पादन के लिए दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है।

जाबेल ने कहा कि इसके अलावा, कुछ ऐसे क्षेत्र होंगे जहां खेती को मौसम के अनुसार ढालने या अनुकूल नहीं किया जा सकेगा, उदाहरण के लिए भविष्य में होने वाली वर्षा और संभावित सूखे में होने वाले बदलाव के कारण। सिमुलेशन जलवायु परिवर्तन के स्थानीय और क्षेत्रीय प्रभावों पर विचार करते हैं और इसलिए उन क्षेत्रों की पहचान करते हैं, जहां स्थानीय रूप से अनुकूलित खेती पैदावार के लिए विशेष रूप से फायदेमंद हो सकती है।

इनमें यूरोप, चीन और रूस के बड़े क्षेत्र शामिल हैं। हालांकि, दुनिया के अन्य हिस्सों में- तुर्की, पूर्वोत्तर ब्राजील, टेक्सास, केन्या और भारत के कुछ हिस्सों सहित फसलों के लिए उपलब्ध पानी की कमी के कारण, अनुकूलित खेती की पैदावार पर बहुत कम या कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। यह अध्ययन ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।

जाबेल कहते हैं कि नए तरीके और फसल उगाने की अधिक कुशल विधियां एक संभावित समाधान प्रदान करती हैं। पारंपरिक तरीकों से फसल उगाने के दृष्टिकोण में अक्सर वर्षों लगते हैं। सीआरआईएसपीआर-कैस जैसी नई विधियां आवश्यक किस्मों को विकसित करने में मदद कर सकती हैं जो विशेष रूप से स्थानीय परिस्थितियों में अधिक तेज़ी से ये ढल अथवा अनुकूलित हो जाती हैं। सीआरआईएसपीआर-कैस तकनीक शोधकर्ताओं को जीन के कार्य का अध्ययन करने और उनमें सुधार करने में मदद करती है।

Subscribe to our daily hindi newsletter